Thursday 11 January 2018

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : मानव कर्म दर्शन

मानव कर्म दर्शन (संस्करण:2010, मुद्रण:2017)
  • मानव के लिये अशेष परिस्थितियाँ उनसे सम्पादित कर्म, उपासना, ज्ञान-योग्य-क्षमता से ही निर्मित होती हैं। यही परिस्थितियाँ  उचित अनुचित वातावरण का रूप धारण करती हैं। 
जागृत-मानव का आचरण एवं व्यवहार ही व्यवस्था है जो शांति का कारण है।
जहाँ तक मानव का सम्पर्क है वहाँ तक दायित्व का अभाव नहीं है।
संबंध में दायित्व का निर्वाह होता ही है।
संबंध में दायित्व प्रधान कर्त्तव्य और संपर्क में कर्त्तव्य प्रधान दायित्व वर्तमान है। यही सामाजिकता है। (अध्याय: 1, पृष्ठ नंबर: 12)
  • मानवीयता पूर्ण व्यवहार सहज ‘‘नियम-त्रय’’ का आचरण ही व्यक्तित्व है। ऐसे व्यक्तित्व के निर्माण में सक्रिय योगदान ही कर्त्तव्य है। यही पुरूषार्थ है। यही प्रबुद्घता है। (अध्याय:2 , पृष्ठ नंबर:46)
  • उपासना व्यक्ति में व्यक्तित्व तथा कर्त्तव्य का प्रत्यक्ष रूप प्रदान करती है क्योंकि उपासना स्वयं में शिक्षा एवं व्यवस्था है। इसलिये यही प्रबुद्घता है। प्रबुद्घता ही मानव की सीमा में शिक्षा एवं व्यवस्था है। (अध्याय:2 , पृष्ठ नंबर:46)
  • ऐसी स्थिति में ब्रह्माण्डीय किरण जो पानी बनने के लिए संयोजक रहा है, ऐसे प्रदूषण के संयोजन वश इसके विपरीत घटना का कारण (पानी के विघटन का कारण) बन सकता है। ऐसी स्थिति में मानव का क्या हाल होगा? इस भीषण दुर्घटना का धरती के छाती पर हम जितने भी विज्ञानी, ज्ञानी,अज्ञानी  कहलाते हैं, प्रौद्योगिकी संसार के कर्णधार कहलाते हैं, क्या इनके पास इसका कोई उत्तर है। इस बात का उत्तर देने वाला कोई दिखता नहीं। क्योंकि, जिम्मेदारी कोई स्वीकारता नहीं। यही इसका गवाही है। जिम्मेदारी स्वीकारने में परेशानी है, क्योंकि व्यक्ति प्रायश्चित के लिए उत्तर दायी हो जाता है। इसलिए इसके सुधार के लिए प्रयास ही एकमात्र कर्त्तव्य लगता है। इसकी औचित्यता अधिकाधिक लोगों को स्वीकार होता है।(अध्याय: 3-7, पृष्ठ नंबर: 88-89)
  • चौथी विपदा धरती के ताप ग्रस्त होने के आधार पर धरती के चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र का विचलित होना भी एक संभवना है। इस धरती में उत्तर और दक्षिणी ध्रुव के बीच, स्वयं स्फूर्त विधि से चुम्बकीय धारा अथवा चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र बना हुआ है। इस बात को भी स्वीकारा गया है। इसी आधार पर दिशा सूचक यंत्र तंत्र बनाकर प्रयोग कर चुके हैं। इस विधि से जो ध्रुव से ध्रुव अपने संबद्घता को बनाये रखा है, इसके आधार पर ही धरती के ठोस होने का अविरल कार्य संपादित होता रहा। इससे धरती के परत से परत ऊष्मा संग्रहण, पाचन, संतुलनीकरण संपादित होती रही। इससे धरती का स्वास्थ्य, ताप के रूप में संतुलित रहने की व्यवस्था बनी रही है। अभी धरती के असंतुलित होने की घोषणा तो मानव करता है, किन्तु उसके दायित्व को स्वीकारता नहीं, इसलिए उपायों को खोजना बनता नहीं, फलस्वरूप निराकरण होना बनता नहीं। इस क्रम में आगे और धरती में ताप बढ़ने की संभावना को स्वीकारा जा रहा है यह इस बात के लिए आगाह करता है - ध्रुव से ध्रुव तक संबद्घ चुम्बकीय धारा, किसी ताप तक पहुँचने के बाद, विचलित हो सकती है, इससे यह धरती अपने आप में ठोस होने के स्थान पर बिखरने लग जाना स्वभाविक है। यह बिखर जाने के बाद धूल के रूप में मानव की कल्पना में आता है। इसके उपरान्त मानव कहाँ रहेगा, जीव जानवर कहाँ रहेंगे, हरियाली कहाँ रहेगी, पानी कहाँ रहेगा, पानी की आवर्तनशीलता की व्यवस्था कहाँ रहेगा। ये सब विलोम घटनायें मानव के मानस को काफी घायल करने के स्थिति में तो हैं। (अध्याय: 3-7, पृष्ठ नंबर: 89)
  • इसके उपचार का उपक्रम यही है कि कोयले और खनिज तेल से जो-जो काम होना है, उसका विकल्प पहचानना होगा। कोयला और खनिज तेल के प्रयोग को रोक देना ही एकमात्र उपाय है। इसी के साथ विकिरणीय ईंधन प्रणाली भी धरती और धरती के वातावरण के लिए घातक होना, हम स्वीकार चुके हैं। विकिरण विधि से ईंधन घातक है, कोयला, खनिज विधि से ईंधन भी घातक है। इनके उपयोग को रोक देना मानव का पहला कर्त्तव्य है। दूसरा कर्त्तव्य है मानव सुविधा को बनाये रखने के लिए ईंधन व्यवस्था के विकल्प को प्राप्त कर लेना।...  (अध्याय: 3-7, पृष्ठ नंबर:89-90)
  • मानव कुल में से ज्ञान विज्ञान विवेक प्रमाणित होता है। यही निर्विवाद स्वत्व का स्वरुप है। ऐसे स्वत्व परावर्तन में सार्थकता का आंकलन और स्वीकृति के आधार पर ही स्वत्व में आंकलन बनता ही रहता है, निरंतर श्रेष्ठता की ओर हम अपने में से प्रमाणित होना बनता ही है। एक बार प्रमाणित होने के बाद प्रमाण विधि में श्रेष्ठता की श्रृंखला बन जाती है। यह प्रत्यावर्तन में दृढ़ता का सूत्र बनता है। मानव में प्रमाण विधि से ही सार्थक पूंजी, प्रत्यावर्तन विधि से निरंतर प्रखर और वृद्घि होते ही जाता है। वृद्घि मतलब आज एक मुद्दे में प्रमाणित हुए, कल दो मुद्दे में, परसों तीन मुद्दे में प्रमाणित होने की स्वीकृति समाहित होती जाती है। यह प्रत्यावर्तन क्रिया बोध और अनुभव में समाहित होते रहने से है अर्थात् स्वीकृति रहने में है, यही पुन:श्च परावर्तन के लिए पूंजी बना रहता है। ऐसे अनुभव ही बोध में समाधान के रुप में अवस्थित रहता है। फलस्वरूप परावर्तन में हम समाधान को प्रमाणित कर पाते हैं। इस विधि से परावर्तन क्रिया अनुभव के लिए नित्य स्रोत होना प्रत्यावर्तन विधि से स्पष्ट होता है। जागृति को प्रमाणित करने के लिए यही सूत्र और व्याख्या है। हर प्रत्यावर्तन अनुभव सूत्र है। हर परावर्तन अनुभव सूत्र की व्याख्या है। इस विधि से मानव के स्वरुप का प्रमाण प्रत्यावर्तन में ज्ञान विज्ञान विवेक के रुप में, परावर्तन में कार्य व्यवहार व्यवस्था में भागीदारी के रुप में प्रमाणित होता है। यही जागृत परंपरा है। पीढ़ी से पीढ़ी इसको बनाये रखना हर मानव का कर्त्तव्य और दायित्व है। (अध्याय: 3-12, पृष्ठ नंबर: 126)
  • समझदारी के साथ मानव का स्वास्थ्य संयम विधा में भागीदारी करना एक स्वभाविक प्रक्रिया है। इसके साथ ही शिक्षा संस्कार, न्याय सुरक्षा, उत्पादन कार्य, विनिमय कार्यों में भागीदारी करना सभी समझदार मानव का कर्त्तव्य एवं दायित्व हो पाता है। समझदारी के साथ कर्त्तव्य और दायित्व स्वीकृति सहज रूप में प्रमाणित हो जाता है। समझदारी के अनन्तर अर्थात् सहअस्तित्ववादी ज्ञान, विज्ञान, विवेक संपन्नता के उपरान्त दायित्व और कर्त्तव्य को स्वीकारने में देरी होती ही नहीं, यह स्वयं स्फूर्त विधि से प्रमाणित होती, प्रगट होती है। इन सबको भली प्रकार से परीक्षण, निरीक्षण कर निश्चित किया गया है। हर नर-नारी इसको परीक्षण पूर्वक सत्यापित कर सकते हैं, यह मानव परम्परा के लिए महत्वपूर्ण प्रेरणा रही है। (अध्याय: 16, पृष्ठ नंबर: 158)
  • साथ में जीने के क्रम में, सर्वप्रथम मानव ही सामने दिखाई पड़ता है। ऐसे मानव किसी न किसी सम्बन्ध में ही स्वीकृत रहता है। सर्वप्रथम मानव, माँ के रूप में और तुरंत बाद पिता के रूप में, इसके अनन्तर भाई-बहन, मित्र, गुरु, आचार्य, बुजुर्ग उन्हीं के सदृश्य और अड़ोस-पड़ोस में और भी समान संबंध परंपरा में है हीं। जीने के क्रम में, संबंध के अलावा दूसरा कोई चीज स्पष्ट नहीं हो पाता है। संबंधों के आधार पर ही परस्परता, प्रयोजनों के अर्थ में पहचान, निर्वाह होना पाया जाता है। इस विधि से पहचानने के बिना निर्वाह, निर्वाह के बिना पहचानना संभव ही नहीं है। इसमें यह पता लगता है कि प्रयोजन हमारी वांछित उपलब्धि है। प्रयोजनों के लिए संबंध और निर्वाह करना एक अवश्यंभावी स्थिति है, इसी को हम दायित्व, कर्त्तव्य नाम दिया। सम्बन्धों के साथ दायित्व और कर्त्तव्य अपने आप से स्वयं स्फूर्त होना सहज है। कर्त्तव्य का तात्पर्य क्या, कैसा करना, इसका सुनिश्चियन होना कर्त्तव्य है। क्या पाना है, कैसे पाना है, इसका सुनिश्चियन और उसमें प्रवृत्ति होना दायित्व कहलाता है। हर संबंधों में पाने का तथ्य सुनिश्चित होना और पाने के लिए कैसा, क्या करना है, यह सुनिश्चित करना, ये एक दूसरे से जुड़ी हुई कड़ी है। ये स्वयं स्फूर्त विधि से, सर्वाधिक संबंधों में निर्वाह करना बनता है। जागृति के अनन्तर ही ऐसा चरितार्थ होना स्पष्ट होता है। भ्रमित अवस्था में संबंधों का प्रयोजन, लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता है। भ्रमित परम्परा में सर्वाधिक रूप में संवेदनशील प्रवृत्तियों के आधार पर, सुविधा संग्रह के आधार पर और संघर्ष के आधार पर संबंधों को पहचानना होता है। सुदूर विगत से इन्हीं नजरियों को झेला हुआ मानव परम्परा मन: स्वस्थता के पक्ष में वीरान निकल गया। जबकि सहअस्तित्व वादी विधि से मन:स्वस्थता की संभावना, सर्वमानव के लिए समीचीन, सुलभ होना पाया जाता है। इसी तारतम्य में हम सभी संबंधों को सार्थकता के अर्थ में, प्रयोजनों के अर्थ में और संज्ञानीयता पूर्ण प्रयोजन के अर्थ में पहचान पाते हैं। इसका स्पष्ट रूप सार्वभौम व्यवस्था अखण्ड समाज के रूप में, इसका स्पष्ट रूप मानवाकाँक्षा; जीवनाकाँक्षा प्रमाणों के अर्थ में स्वीकार सहित और मूल्यांकन सहित कार्य व्यवहार और व्यवस्था और आचरणों को परिवर्तन कर लेना ही सहअस्तित्व वादी ज्ञान, विज्ञान और विवेक का फलन होना पाया जाता है।
मानवाकांक्षा- समाधान, समृद्धि, अभय सह-अस्तित्व सहज प्रमाण।
जीवनाकांक्षा- सुख, शांति, संतोष आनंद के रूप में गण्य है। (अध्याय:17, पृष्ठ नंबर: 168-169)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

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