Tuesday 19 September 2017

शिक्षा

परिभाषा: 
  • शिष्टता पूर्ण दृष्टि का उदय का प्रक्रिया।
  • अस्तित्व में जीवन सहज मूल्य, मानव मूल्य, व्यवसाय मूल्य, स्थापित मूल्य एवं शिष्ट मूल्य के प्रति निर्भ्रम जानकारी सहित व्यवसाय, व्यवहार चेतना की परिष्कृति|  (परिभाषा संहिता: संस्करण: 2012 : मुद्रण: 2016, पेज नंबर:219)
सन्दर्भ: परिभाषा संहिता (संस्करण: 2012 : मुद्रण: 2016, पेज नंबर:)
  • उन्मादत्रय शिक्षा - लाभोन्मादी अर्थशास्त्र, भोगोन्मादी समाज शास्त्र और कामोन्मादी मनोविज्ञान का प्रवर्तन क्रिया कलाप। (पेज नंबर: 48 )
  • मानवीय शिक्षा  - अस्तित्व, विकास, जीवन, जीवन-जागृति रासायनिक एवं भौतिक रचना, विरचना का अध्ययन। 
          - अवधारणा सहित बौद्धिक विशिष्टता सहज सहअस्तित्व पूर्ण, विश्व दृष्टिकोण की क्रिया शीलता।
          - सर्वतोमुखी समाधान और प्रामाणिकता का वर्तमान और उसकी निरंतरता। (पेज नंबर: 151)
  • शिक्षा नीति - सहअस्तित्व बोध, जीवन बोध, मानवीयतापूर्ण आचरण बोध सहित मानव लक्ष्य बोध, जीवन मूल्य बोध, लक्ष्य सफलता के लिए निश्चित दिशा बोध कराने के साथ  -  साथ स्वयं में विश्वास श्रेष्ठता का सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन व्यवहार में सामाजिक, उत्पादन में स्वावलंबन का बोध सर्व सुलभ होना। यहाँ बोध का तात्पर्य जीवन में समझने, स्वीकारने से है| (पेज नंबर:219 )
  • शिक्षण - शिक्षापूर्ण दृष्टि सहज विकास, जागृति की ओर दिशा, अध्ययनपूर्वक यथार्थ बोध निपुणता कुशलता, पांडित्य सहज शिक्षण। (पेज नंबर:219)
  • शिष्य- जिज्ञासु, मानवीय शिक्षा संस्कार को ग्रहण करने के लिए तत्पर। (पेज नंबर: 219)
  • शिक्षा संस्कार  - ज्ञान विवेक विज्ञान सहज बोध होना। (समझ में आना, स्वीकार होना ) (पेज नंबर:219)
(शिक्षा को लेकर मध्यस्थ दर्शन वाङ्ग्मय में आये सन्दर्भों को निम्न क्रम से संकलित किया गया है।  नीचे दिये गए प्रत्येक लिंक पर जाकर आप सूचना प्राप्त कर सकते हैं।)
  1. मानव व्यवहार दर्शन 
  2. मानव कर्म दर्शन 
  3. मानव अभ्यास दर्शन
  4. मानव अनुभव दर्शन
  5. समाधानात्मक भौतिकवाद
  6. व्यवहार जनवाद
  7. अनुभवात्मक अध्यात्मवाद
  8. व्यवहारवादी समाजशास्त्र 
  9. आवर्तनशील अर्थशास्त्र
  10. मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान
  11. मानवीय संविधान सूत्र व्याख्या
  12. जीवन विद्या –एक परिचय 
  13. विकल्प 
  14. जीवन विद्या- अध्ययन बिन्दु 
  15. मानवीय आचरण सूत्र 
  16. संवाद- 1  
  17. संवाद-2
  18. श्री ए. नागराज जी द्वारा दिया गया पाठ्यक्रम
  19. चेतना विकास मूल्य शिक्षा का लघु प्रस्ताव (मानवीय शिक्षा-नीति का प्रारूप)
  20. 10 सोपानीय व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षा संस्कार
  21. "शिक्षा" पर केन्द्रित मुख्य बातें (मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद) वाङ्ग्मय में से)  
नोट- (सभी संदर्भ संबन्धित पुस्तकों के PDF से लिए गए हैं कोई भी अंतर होने पर कृपया मूल वांगमय को ही सही माना जाए। ) 

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज

शिक्षा - संदर्भ: मानव व्यवहार दर्शन

मानव व्यवहार दर्शन (अध्याय:15,16,17,18, संस्करण:2011, मुद्रण- 2015, पेज नंबर:)
  • शिक्षा में पूर्णता 
चेतना विकास मूल्य शिक्षा, कारीगरी (तकनीकी) शिक्षा 
  • परंपरा में संपूर्णता 
- मानवीय शिक्षा संस्कार।
- मानवीय संविधान। 
- मानवीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था।   (मध्यस्थ दर्शन के मूल तत्व में से)
  • कृतज्ञता
उन सभी सुपथ प्रदर्शकों के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ जिनसे आज भी यथार्थता के स्त्रोत जीवित हैं. कृतज्ञता जागृति की ओर प्रगति के लिए मौलिक मूल्य है.  कृतज्ञता ही मूलतः संस्कृति व सभ्यता का आधार एवं संरक्षक मूल्य है.
जो कृतज्ञ नहीं है, वह मानव संस्कृति व सभ्यता का वाहक बनने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकता.  जो मानव संस्कृति व सभ्यता का वहन नहीं करेगा, वह विधि एवं व्यवस्था का पालन नहीं कर सकता.
संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था परस्पर पूरक हैं.  इनके बिना अखंड-समाज तथा सामाजिकता का निर्धारण संभव नहीं है.  अस्तु, कृतज्ञता के बिना गौरव, गौरव के बिना सरलता, सरलता के बिना सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व के बिना कृतज्ञता की निरंतरता नहीं है.
जो मानव कृतज्ञता को वहन करता है, उसी का आचरण अग्रिम पीढ़ी के लिए शिक्षाप्रद एवं प्रेरणादायी है.  यह मानवीयता में ही सफल है.  जिस विधि से भी चेतना विकास मूल्य शिक्षा के लिए सहज सहायता मिला हो, उन सभी के लिए कृतज्ञता है.
“ज्ञानात्मनोर्विजयते”
ए. नागराज 
  • मानव मात्र में सुख की आशा अपरिवर्तनीय है, जिसकी अपेक्षा में ही चेतना विकास मूल्य शिक्षा से विधि व निषेध स्वीकार होता है. (अध्याय:14, पेज नंबर:93)
  • मानव गलती करने का अधिकार लेकर तथा सही करने का अवसर एवं साधन लेकर जन्मता है. उपरोक्तानुसार मानव को न्यायवादी बनाने हेतु तथा न्याय में निष्ठा उत्पन्न करने हेतु उसे स्वभाववादी बनाने के लिए व्यवस्था व शिक्षा संस्कार का योगदान आवश्यक है. (अध्याय: 15, पेज नंबर: 111)
  • माता एवं पिता हर संतान से उनकी अवस्था के अनुरूप प्रत्याशा रखते हैं.  उदाहरणार्थ शैशव-अवस्था में केवल बालक का लालन-पालन ही माता-पिता का पुत्र-पुत्री के प्रति कर्त्तव्य एवं उद्देश्य होता है तथा इस कर्त्तव्य के निर्वाह के फलस्वरूप वह मात्र शिशु की मुस्कुराहट की ही अपेक्षा रखते हैं.  कौमार्यावस्था में किंचित शिक्षा एवं भाषा का परिमार्जन चाहते हैं. इसी अवस्था में आज्ञापालन प्रवृत्ति,अनुशासन,शुचिता, संस्कृति का अनुकरण, परंपरा के गौरव का पालन करने की अपेक्षा होती है। कौमार्यावस्था के अनंतर संतान में उत्पादन सहित उत्तम सभ्यता की कामना करते हैं.  सभ्यता के मूल में हर माता-पिता अपने संतान से कृतज्ञता (गौरवता) पाना चाहते हैं तथा केवल इस एक अमूल्य निधि को पाने के लिए तन, मन, एवं धन से संतान की सेवा किया करते हैं.  संतान के लिए हर माता-पिता अपने मन में अभ्युदय, समृद्धि तथा सम्पन्नता की ही कामना रखते हैं, इन सबके मूल में कृतज्ञता की वांछा रहती है.  जो संतान माता-पिता एवं गुरु के कृतज्ञ नहीं होते हैं, उनका कृतघ्न होना अनिवार्य है, जिससे वह स्वयं क्लेश परंपरा को प्राप्त करते हैं और दूसरों को भी क्लेशित करते हैं. (पिता-माता एवं पुत्र-पुत्री सम्बन्ध से) (अध्याय:16, पेज नंबर:122)
  • जागृत मानव परंपरा में राज्य का स्वरूप अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र अध्ययन से और आचरण से व्याख्या होने के आधार पर विधि को पहचानने के मुख्य रूप से पाँच मुद्दे पाए गए हैं.  यह- (१) मानवीय शिक्षा संस्कार, (२) न्याय-सुरक्षा, (३) उत्पादन कार्य, (४) विनिमय कोष, (५) स्वास्थ्य-संयम के रूप में गण्य हैं. 
राज्य प्रक्रिया में उक्त पाँचों व्यवस्थाएं सार्वभौमिकता के अर्थ में ही सार्थक होना पाया जाता है. मानवीय शिक्षा-संस्कार की सफलता अर्थ-बोध होने के रूप में है.  न्याय-सुरक्षा की सफलता संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन पूर्वक उभय-तृप्ति के रूप में सार्थक होना पाया जाता है.  उत्पादन-कार्य हर परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन के रूप में, समृद्धि के अर्थ में सार्थक होना पाया जाता है.  विनिमय-कोष श्रम-मूल्य के पहचान सहित, श्रम विनिमय पद्धति से सार्थक होता है.  और स्वास्थ्य-संयम मानव-परंपरा में जीवन जागृति को प्रमाणित करने योग्य शरीर की स्थिति-गति के रूप में सार्थक होता है.  यह सब मानव सहज जागृति के अक्षुण्णता का द्योतक है अथवा सार्वभौम व्यवस्था, अखंड समाज और उसकी अक्षुण्णता का द्योतक है.  यही राज्य वैभव का स्वरूप है.  इस विधि से हर परिवार समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना होता है. (अध्याय:16, पेज नंबर:131)
  •  मानव परंपरा में जागृत मानव ही शिक्षा प्रदान करने में समर्थ है.  शिक्षा का प्रयोजन है, अखंड-सामाजिकता का सूत्र एवं व्याख्या समाधान, समृद्धि, अभय व सह-अस्तित्व.  इस विधि से समाज अखंडता और सार्वभौमता के रूप में वैभवित होता है.
उपरिवर्णित धर्मनैतिक तथा राज्यनैतिक व्यवस्था के लिए जो मानवीयतापूर्ण दृष्टि, स्वभाव तथा विषयों को व्यवहार में आचरित करने योग्य अवसर और साधन प्रस्तुत  हो सके तथा रूचि उत्पन्न कर सके , शिक्षा नीति है. (अध्याय:16, पेज नंबर:132)
  • विद्याध्ययन सुरक्षा: - अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित, मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववादी विचार विधि से विधिवत स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य वस्तुस्थिति का अध्ययन कराने वाली जानकारी की ‘विद्या’ संज्ञा है.
- अध्ययन को सफल बनाने का दायित्व अध्यापक, अध्यापन, तथा शिक्षा-वस्तु और प्रणाली पर है, क्योंकि यह चारों परस्पर पूरक हैं।
- शिक्षा प्रणाली, अध्यापक, माता-पिता, तथा अध्ययन यह सब एकसूत्रात्मक होने से ही सफल विद्याध्ययन पद्धति का विकास संभव है, जिससे कृतज्ञता तथा सह-अस्तित्व का मार्ग प्रशस्त होता है।
- शिक्षा-प्रणाली के लिए शिक्षा-नीति का निर्धारण के लिए धर्म-नीति और अखंड-समाज सार्वभौम व्यवस्था रूपी राज्य-नीति का निर्भ्रम ज्ञान आवश्यक है।
- शिक्षा नीति का आधार एवं उद्देश्य मानव में मानवीयता तथा समाजिकता होना अनिवार्य है। मानवीयता ही समाजिकता है जो सार्वभौम तथ्य है। इसलिए इसके आधारित शिक्षा प्रणाली से मानवीयता सम्पन्न नागरिकों का निर्माण होगा जिनकी सहअस्तित्व तथा पोषण में दृढ़ निष्ठा होगी।
- शिक्षा नीति का लक्ष्य है: -
मानवीय दृष्टि, प्रवृत्ति व स्वभाव सहज ज्ञान-विवेक-विज्ञान संपन्न समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी संपन्न नागरिकों का निर्माण, जिनमे अतिमानवीयता का मार्ग प्रशस्त होता है.
शिक्षा-नीति की सफलता निम्न सूत्रों से है: -
  1. विज्ञान के साथ चैतन्य पक्ष का अध्ययन 
  2. मनोविज्ञान के साथ संस्कार पक्ष का अध्ययन
  3. अर्थशास्त्र के साथ प्राकृतिक एवं वैयक्तिक एश्वर्य के सदुपयोगात्मक तथा सुरक्षात्मक नीति पक्ष का अध्ययन
  4. समाजशास्त्र के साथ मानवीय संस्कृति तथा सभ्यता का अध्ययन
  5. राजनीति शास्त्र के साथ मानवीयता के संरक्षण एवं संवर्धन के नीति पक्ष का अध्ययन
  6. दर्शन शास्त्र के साथ क्रिया पक्ष का अध्ययन
  7. इतिहास एवं भूगोल के साथ मानव तथा मानवीयता का अध्ययन
  8. साहित्य शास्त्र के साथ तात्विकता का अध्ययन(अध्याय:16, पेज नंबर:136-137)
  • यह विकल्प अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में है.  इस प्रस्ताव में मानव ही अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का प्रमाण देना प्रतिपादित है.  साथ ही मानव ही प्रमाण होने का साक्षी को भी संजो लिया है.  इस मुद्दे पर सर्वमानव का ध्यानाकर्षण करना आवश्यक है ही.  इस क्रम में समुदाय चेतना से मानव चेतना, मानव चेतना से समाज चेतना में परिवर्तित होना ही महत्त्वपूर्ण घटना है.  ऐसे स्थिति की सफलता मानव ही, शिक्षा-संस्कार पूर्वक, सर्वतोमुखी समाधान संपन्न होना ही एक मात्र उपाय है.  इसे सार्थक बनाने के क्रम में ही मानव व्यवहार दर्शन, मानव के सम्मुख प्रस्तुत है.  इस प्रकार समग्र विकास और जागृति को परंपरा में प्रमाणित करने हेतु एक मात्र इकाई मानव है क्योंकि अस्तित्व में केवल मानव ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा में है.  भ्रमित मानव के द्वारा भ्रमित मानव के चार ऐश्वर्यों (रूप, बल, पद, धन) का शोषण होता है. (अध्याय:17,  पेज नंबर:150-151)
  • जागृत मानव में मध्यस्थ व्यवहार, विचार व अनुभव पाया जाता है.
  • मध्यस्थ व्यवहार: - न्यायपूर्ण व्यवहार
  • मध्यस्थ विचार: - धर्मपूर्ण विचार 
  • मध्यस्थ अनुभव: - सह-अस्तित्व रुपी परम-सत्य 
  • न्यायपूर्ण व्यवहार ही मानवीयतापूर्ण व्यवहार है.  मानवीयतापूर्ण व्यवहार से तात्पर्य है मानवीयता के प्रति निर्विरोधपूर्ण व्यवहार जिसको समझना व समझाना अखंड-मानव की दृष्टि से आवश्यक है.  इसके लिए अध्ययन व शिक्षा आवश्यक है.
  • शिक्षण एवं प्रशिक्षण द्वारा केवल व्यवसाय का ज्ञान कराया जाता है, यह मात्र भौतिक-समृद्धि के लिए सहायक हुआ है.
  • मानवीयता और अतिमानवीयता का वर्गीकरण एवं पुष्टि मानव के साथ किये गए व्यवहार से ही सिद्ध हुई है, जिसके लिए अध्ययन तथा दीक्षा आवश्यक है. 
दीक्षा: - अनुभवमूलक विधि से सुनिश्चित व्यवहार पद्दति व आचरण पद्धति बोध की ‘दीक्षा’ संज्ञा है, जो व्रत है, जिसकी विश्रंखलता नहीं है, अथवा जिसमे अवरोध नहीं है.  जिसमे निरंतरता है. जागृति की निरंतरता ही व्रत है, दीक्षा है. (अध्याय:18, पेज नंबर:156-157)
  • (मन सहज चौसठ (६४) क्रियाएँ – चयन व आस्वादन रूपी चौसठ (६४) क्रियाकलाप में से)
पुत्र-पुत्री: - शरीर रचना की कारकता सहज स्वीकृति और जीवन जागृति में पूरकता निर्वाह करने वाली मानव इकाई ही पिता है.
- पोषण, सुरक्षा की स्वीकृति
- संतानों के पोषण संरक्षण के लिए, उत्पादन हेतु सक्षम बनाने हेतु आधार के रूप में स्वयं को स्वीकारना.
- शिक्षा-संस्कार प्रदान करने में स्वयं को सक्षम स्वीकारना- सम्पूर्ण ज्ञान प्रावधानित करने के लिए स्वयं में स्वीकारना (अध्याय:18, पेज नंबर:174)
  • गुरु, प्रामाणिक- 
गुरु: - शिक्षा-संस्कार नियति क्रमानुशंगीय विधि से जिज्ञासाओं और प्रश्नों को समाधान के रूप में अवधारणा में प्रस्थापित करने वाला मानव गुरु है.
प्रामाणिक: - प्रमाणों का धारक-वाहक, यथा अस्तित्व-दर्शन, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण समुच्चय को प्रयोग, व्यवहार, अनुभवपूर्ण विधि से प्रमाणित करना और प्रमाणों के रूप में जीना. (अध्याय:18, पेज नंबर:176)
  • शिष्य, जिज्ञासु
शिष्य: - जागृति लक्ष्य की पूर्ति के लिए शिक्षा-संस्कार ग्रहण करने, स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत व्यक्ति, जिसमे गुरु का सम्बन्ध स्वीकृत हो चुका रहता है.
जिज्ञासु: - जीवन ज्ञान सहित निर्भ्रम शिक्षा ग्रहण करने के लिए तीव्र इच्छा का प्रकाशन (अध्याय:18, पेज नंबर:176)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

शिक्षा - संदर्भ: मानव कर्म दर्शन

मानव कर्म दर्शन (अध्याय:1,2,3, संस्करण:2010, मुद्रण:2017, पेज नंबर:)
  • प्रत्येक मानव का सहज प्रवृत्तन वातावरण, अध्ययन एवं संस्कार के योगफल के रूप में प्रत्यक्ष है।
प्रकृति एवं मनुष्य कृत भेद से वातावरण प्रसिद्ध है।
शिक्षा एवं व्यवस्था ही मानवकृत वातावरण का प्रत्यक्ष रूप है।
मानव मात्र का संस्कार ‘‘अन्वेषण-त्रय’’ (विषयान्वेषण, ऐषणान्वेशन, सत्यान्वेषण) की सीमा में स्पष्ट है।
प्राकृतिक वातावरण की गणना प्रत्येक भूमि पर पाये जाने वाले शीत-उष्ण एवं वर्षा मान ही का संतुलन सहित मानवेत्तर तीनों अवस्थाएँ संबन्धित रहता है।
प्रत्येक भूमि पर जो प्राकृतिक वातावरण वर्तमान है वह उस भूमि में पाये जाने वाले खनिज एवं वनस्पति की राशि पर आधारित है। यह उस भूमि के विकास पर आधारित है।
किसी भी भूमि पर ज्ञानावस्था के मानव की अवस्थिति घटना के पूर्व ही जीव व वनस्पतियों का समृद्ध होना अनिवार्य है। इसके पूर्व जल का होना आवश्यक है।
प्रत्येक भूमि पर किसी अधिकतम-न्यूनतम शीत-उष्ण और वर्षा मान की सीमा में ही जीव एवं मानव अपने जीवनी-क्रम और जीवन के कार्यक्रम को सम्पन्न करने में समर्थ हुए हैं।
प्राकृतिक वातावरण का संतुलन भी मनुष्य सहज जागृति के लिए सहयोगी है, इसलिए -
संतुलन के लिये आधार आवश्यक है।
अशेष प्रकृति का संतुलनाधार सत्ता ही है, जो पूर्ण है।
प्रत्येक क्रिया के संतुलन का आधार नियम है, जो पूर्ण है।
प्रत्येक व्यवहार के संतुलन का आधार न्याय है,जो पूर्ण है।
प्रत्येक विचार के संतुलन का आधार समाधान है, जो पूर्ण है।
प्रत्येक व्यक्ति में अनुभव का आधार सह-आस्तित्व रूपी परम सत्य है, जो समग्र है।
प्राकृतिक एवं मानव संतुलन एवं असंतुलन का प्रधान कारण मानव ही है, भ्रमित अवस्था में मानव कर्म करते समय स्वतंत्र एवं फल भोगते समय परतंत्र है। जागृत मानव कर्म करते समय तथा फल भोगते समय स्वतंत्र है। जागृत अवस्था में समझकर करने वाली परम्परा रहेगी तथा भ्रमित अवस्था में कर के समझने वाली परम्परा रहेगी। प्राकृतिक वैभव का विशेषकर मनुष्य ही उपयोग करता है जो प्रत्यक्ष है। इसलिए -
ऋतु-संतुलन को बनाये रखने के लिये भूमि में आवश्यकीय मात्रा में खनिज वनस्पति (वन) को सुरक्षित रखते हुए उपयोग करना, साथ ही उसकी उत्पादन-प्रक्रिया में विध्न उत्पन्न नहीं करना और सहायक होना ही प्राकृतिक नियम का तात्पर्य है। यह पूर्णत: मानव का दायित्व है।
वनस्पति (वन) एवं खनिज जिनकी उत्पत्ति की संभावना एवं क्रम स्पष्ट है उनका उन्हीं के अनुपात में व्यय करना उचित है, अन्यथा प्राकृतिक दुर्घटनाओं से ग्रसित हो जाना स्वभाविक है।
शिक्षा एवं व्यवस्था ही सामूहिक (सामाजिक) संतुलन को बनाये रखने का एक मात्र उपाय है।(अध्याय:1, पेज नंबर:7-8)
  • समग्रता के प्रति निर्भ्रमता को प्रदान करने, जागृति की दिशा तथा क्रम को स्पष्ट करने, मानवीय मूल्यों को सार्वभौमिक रूप में निर्धारित  करने, मानवीयता से अतिमानवीयता के लिये समुचित शिक्षा प्रदान करने योग्य-क्षमता-सम्पन्न शास्त्र तथा शिक्षा प्रणाली ही शान्ति एवं स्थिरतापूर्ण जीवन को प्रत्येक स्तर में प्रस्थापित करने में समर्थ है। इसके बिना मानव जीवन में स्थिरता एवं शान्ति संभव नहीं है, जो स्पष्ट है।(अध्याय:1, पेज नंबर:13)
  • अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष और अभिमान सहित व्यक्ति, कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्र की नीति एवं तदनुकूल किये गये कर्म-उपासना, व्यवहार-व्यवस्था, प्रचार-प्रयोग-प्रदर्शन एवं शिक्षा असामाजिक सिद्घ हुई है। समाज एवं सामाजिकता के बिना मनुष्य जीवन में कोई मूल्य तथा कार्यक्रम सिद्ध नहीं होता है।(अध्याय:1, संस्करण:प्रथम,2001,पेज नंबर:)
  • दर्शन-क्षमता जागृति पर; जागृति, आकाँक्षा एवं आचरण पर; आकाँक्षा एवं आचरण शिक्षा एवं अध्ययन पर; शिक्षा एवं अध्ययन व्यवस्था पर; व्यवस्था, दर्शन क्षमता के आधार पर होना पाया जाता है। (अध्याय:1, पेज नंबर:16)
  • प्रत्येक आविष्कार एवं अनुसंधान व्यक्ति मूलक उद्घाटन है। यह शिक्षा एवं प्रचार के माध्यम से सर्व सुलभ हो जाता है। यही सर्व-सामान्यीकरण प्रक्रिया है।
जिसका विभव एवं वैभव है उसी का आविष्कार है क्योंकि उसके पहले उसका स्पष्ट ज्ञान मनुष्य कोटि में था ही नहीं। इसलिए, उस समय में अर्थात सन 2000 से पहले जो समझ मानव समुदायों में रहा उसकी तुलना में मध्यस्थ दर्शन आविष्कार, अनुसंधान है।
सह-अस्तित्व में, से, के लिए प्रकटन ही आविष्कार है। आविष्कार की सामान्यीकरण प्रक्रिया ही शिक्षा यही चेतना विकास मूल्य शिक्षा है।(अध्याय:1, पेज नंबर:20)
  • व्यवहार उत्पादन कर्मों में तीन स्तर में प्रवृत्तियों को पाया जाता है:- (1) स्वतंत्र (2) अनुकरण (3) अनुसरण।
स्वतंत्र प्रवृत्तियों की क्रियाशीलता उन परिप्रेक्ष्यों में स्पष्ट होती हैं जिनके सम्बन्ध में ये विशेषज्ञता हैं।
जो विशेषज्ञ होने के लिये इच्छुक हैं उन्हें अनुकरण क्रिया में व्यस्त पाया जाता है।
जिनमें विशेषज्ञता के प्रति इच्छा जागृत नहीं हुई है उन्हें अनुसरण क्रिया में अनुशीलनपूर्वक ही कर्म एवं व्यवहार रत पाया जाता है। ये विकास एवं अवसर के योगफल का द्योतक है। अवसर प्रधानत:व्यवस्था एवं शिक्षा ही है।(अध्याय:1, पेज नंबर:22)
  • सम, विषम, मध्यस्थ शक्तियाँ क्रम से रजोगुण, तमोगुण एवं सत्वगुण हैं। 
सत्वगुण सम्पन्न व्यक्ति का आचरण व्यवहार के साथ दया, आदर, प्रेम जैसे मूल्यों सहित विवेक व विज्ञान क्षमतापूर्ण होता है।
रजोगुण सम्पन्न व्यक्ति में धैर्य, साहस, सुशीलता जैसे मूल्यों सहित विज्ञान का सद्उपयोग होता है।
तमोगुण सम्पन्न व्यक्ति  में  ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान एवं अहंकार जैसे अवांछनीय विकृतियों सहित विज्ञान क्षमता का अपव्यय होता है। इसलिये-
सत्य-संबद्ध-विधि-व्यवस्था, विचार, आचरण, व्यवहार, शिक्षा, दिशा, कर्म एवं पद्धति के अनुसार वर्तना ही मानव में व्यष्टि व समष्टि का धर्म पालन है।(अध्याय:1, पेज नंबर:27-28)
  • मनुष्य का स्व-धर्म पालन ही अखंडता सार्वभौमता है और सीमा विहीनता है, जो स्वयं में सह-अस्तित्व सामाजिकता, समृद्धि, संतुलन, नियंत्रण, संयमता, अभय, निर्विषमता, सरलता एवं उदारता है। इसी में दया, स्नेह, उदारता, गौरव, आदर, वात्सल्य, श्रद्घा, प्रेम, कृतज्ञता जैसे सामाजिक स्थिर मूल्यों का वहन होता है। यही मानव की चिर वाँछा भी है। यही स्वस्थ सामाजिकता की आद्यान्त उपलब्धि है।
सच्चरित्र पूर्ण व्यक्तियों की बाहुल्यता के लिये जागृत मानव का सहयोग व प्रोत्साहन, उनकी समुचित शिक्षा व संरक्षण एवं उनके अनुकूल परिस्थितियाँ ही विश्व शान्ति का प्रत्यक्ष रूप है। इसके विपरीत में अशान्ति है, जो स्पष्ट है।
‘‘व्यवहार-त्रय’’ नियम का पालन ही सच्चरित्रता है। यही मानव की पाँचों स्थितियों में प्रत्यक्ष गरिमा है। यही सहज निष्ठा है और इसी में विज्ञान और विवेक पूर्णरूपेण चरितार्थ हुआ है। फलत: स्वस्थ व्यवस्था-पद्धति एवं शिक्षा-प्रणाली प्रभावशील होती है।
‘‘व्यवहार-त्रय’’ का तात्पर्य जागृत मानव के द्वारा किया गया कायिक, वाचिक, मानसिक व्यवहार से है।(अध्याय:1, पेज नंबर:28)
  • भोग एवं बहु भोगवादी जीवन में मनुष्य स्वयं को स्वस्थ बनाने तथा अग्रिम पीढ़ी के आचरणपूर्वक जागृति के लिये शिक्षा प्रदत्त करने में समर्थ नहीं है और न हो सकता है। यह ज्वलंत तथ्य ही विचार परिवर्तन एवं परिमार्जन का प्रधान कारण है।(अध्याय:1, पेज नंबर:29)
  • उपासनायें कूटस्थ, रूपस्थ एवं आत्मस्थ भेद से होती हैं। पूर्ण अनुभव के लिये की गई प्रक्रिया कूटस्थ उपासना है। महिमा सहित रूप सान्निध्य के लिए की गयी प्रक्रिया रूपस्थ उपासना है। प्रत्यावर्तन प्रक्रिया ही आत्मस्थ उपासना है जिसके लिये मानव बाध्य है। इसलिये प्रवृत्तियों का परिमार्जन ही मानव जीवन का कार्यक्रम है। मानव में पूर्णता एवं परिमार्जनशीलता की अपेक्षा प्रत्येक स्थिति में पाई जाती है। परिमार्जनशीलता ही निपुणता एवं कुशलता है। पूर्णता ही पांडित्य है। पांडित्य से अधिक ज्ञान एवं निपुणता, कुशलता से अधिक व्यवहार एवं उत्पादन नहीं है। परिमार्जनशीलता उत्पादन व व्यवहार में पाई जाती है। पांडित्य ही प्रबुद्धता, प्रबुद्धता ही शिक्षा एवं व्यवस्था है। प्रबुद्धता से परिपूर्ण होते तक उपासना अत्यन्त सहायक है।(अध्याय:2, पेज नंबर:34)
  • उपासना के लिये वातावरण का महत्व अपरिहार्य है, जिसमें से मानव कृत वातावरण ही प्रधान है, जो शिक्षा व व्यवस्था के रूप में ही है। 
प्रबुद्धता से परिपूर्ण शिक्षा ही व्यक्तित्व के लिये दिशा प्रदायी महिमा है। उसके समुचित संरक्षण, संवर्धन के लिये योग्य व्यवस्था ही प्रभुसत्ता है।
प्रबुद्धता की सामान्यीकरण प्रक्रिया ही गुणात्मक परिवर्तन का प्रत्यक्ष रूप है। एक व्यक्ति जो उपासना पूर्वक प्रबुद्ध होता है, वह शिक्षा और व्यवस्था पूर्वक सामान्य हो जाता है। (अध्याय:2, पेज नंबर:45-46)
  • उपासना व्यक्ति में व्यक्तित्व तथा कर्त्तव्य का प्रत्यक्ष रूप प्रदान करती है क्योंकि उपासना स्वयं में शिक्षा एवं व्यवस्था है। इसलिये यही प्रबुद्धता है। प्रबुद्धता ही मानव की सीमा में शिक्षा एवं व्यवस्था है। सत्य व सत्यता में वैविध्यता नहीं है। (अध्याय:2, पेज नंबर:46)
  • मनुष्य के बौद्धिक क्षेत्र में पायी जाने वाली अनावश्यक कल्पनाओं का निराकरण ही दर्शन-क्षमता में गुणात्मक परिमार्जन है। यही गुणात्मक संस्कार-परिवर्तन, शिक्षा एवं जीवन के कार्यक्रम का योगफल है। (अध्याय:2, पेज नंबर:49)
  • मानव में यह वैभव देखने को मिलता है कि वह उपयोगी, सदुपयोगी, प्रयोजनशील प्रमाणित किया हुआ शोध अनुसंधान को शिक्षा पूर्वक, अध्ययन पूर्वक, अभ्यास पूर्वक लोकव्यापीकरण करता हुआ पाया जाता है। (अध्याय:3 (3), पेज नंबर:67)
  • सहअस्तित्ववादी विचार के अनुसार ज्ञान, विवेक, विज्ञान के अनुसार सर्वमानव को मानव लक्ष्य के अर्थ में शिक्षा संस्कार  को अपनाना आवश्यक है। इसमें मानवीयता पूर्ण आचरण मानव लक्ष्य के अर्थ में स्पष्ट रहना आवश्यक है, क्योंकि सभी अवस्था में आचरण के आधार पर ही उन अवस्थाओं का लक्ष्य पूर्ण हुआ समझ में आता है। जैसे पदार्थावस्था में सम्पूर्ण वस्तु परिणाम के आधार पर यथास्थिति रूपी लक्ष्य का आचरण करता हुआ देखने को मिलता है। इसी प्रकार प्राणावस्था और जीवावस्था में भी कार्यरत सभी इकाई उन-उन अवस्थाओं के लक्ष्य के अर्थ में आचरण करती हुई स्पष्ट है, यथा प्राणावस्था अस्तित्व सहित पुष्टि के अर्थ में, बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज तक यात्रा करता हुआ देखने को मिलता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण जीव संसार, अस्तित्व, पुष्टि सहित वंशानुषंगीय विधि से जीने की आशा में आचरण करता हुआ देखने को मिलता है। इतने सुस्पष्ट स्थितियों को देखने के उपरान्त यह भी आवश्यक रहा कि मानव का आचरण अस्तित्व, पुष्टि, आशा सहित सुख को प्रमाणित करने के अर्थ में होना है जिसके लिए ही मन:स्वस्थता प्रमाणित होना स्वाभाविक रही।(अध्याय:3 (4), पेज नंबर:71)
  • मानव लक्ष्य - समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को प्रमाणित करने और उस आधार पर जीवन लक्ष्य (मन:स्वस्थता) - प्रमाण ही सुख, शान्ति, संतोष, आनन्द को सार्थक बनाने के अर्थ में मानव शिक्षा संस्कार की आवश्यकता सदा-सदा से बनी हुई है। इसकी सफलता ही मानव कुल का सौभाग्य है।(अध्याय:3 (4), पेज नंबर:73)
  • ‘मानव कुल और रासायनिक-भौतिक क्रियाकलाप का सार्थक प्रमाण’
शिक्षा की सम्पूर्ण वस्तु सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में रासायनिक, भौतिक एवं जीवन क्रिया के रूप में ही है। इसमें से, इनके अविभाज्य रूप में मानव परम्परा का सम्पूर्ण क्रियाकलाप, व्यवहार, सोच विचार, समझ है। समझ के अर्थ में ही हर मानव का अध्ययन करना होता है। समझ अपने में जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होती है। इसी अर्थ में सम्पूर्ण अध्ययन सार्थक होना पाया जाता है।
अस्तित्व में सम्पूर्ण इकाईयाँ, रासायनिक, भौतिक एवं जीवन क्रिया के रूप में परिलक्षित है ही। गठनशील परमाणु से लेकर अणु, अणुरचित पिंड, प्राणकोषा, वनस्पति संसार, जीव संसार सभी स्वयं में व्यवस्था में रहते हुए, अपने-अपने निश्चित आचरण को व्यक्त करते हुए समझ में आते हैं। ऐसे प्रमाण में से ये धरती सबसे बड़ा प्रमाण है। धरती एक व्यवस्था के रूप में काम करती है। व्यवस्था के रूप में काम करने का प्रमाण ही है, इस धरती पर भौतिक-रासायनिक और जीवन क्रियाकलाप पदार्थ, प्राण, जीव और ज्ञान अवस्था के रूप में प्रकाशित है। इससे बड़ी गवाही क्या होगी। इस गवाही के आधार पर अर्थात् पदार्थ, प्राण, जीव अवस्था के निश्चित कार्यकलाप के अनुसार, मानव अपने व्यवस्था में होने का भरोसा कर सकता है।
मनुष्य को सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व सहज विधि से स्वयं व्यवस्था रूप में जीने का सूत्र और व्याख्या स्वयंस्फूर्त विधि से समझ आता है।
सहअस्तित्ववादी विधि से सम्पूर्ण मानव को एक अखण्ड समाज के रूप में पहचानना हो पाता है। अखण्ड समाज मानसिकता का पूर्ण समझ ही ज्ञान, विज्ञान, विवेक रूप में सार्वभौम व्यवस्था का ताना-बाना स्पष्ट हुआ रहता है। ऐसे सर्वशुभ के अर्थ में ही मानव व्यवस्था के रूप में सार्थक होना पाया गया। इसलिये सार्वभौम व्यवस्था सम्पन्न होना, मानव कुल के लिये परम वैभव, सूत्र और व्याख्या है। इस प्रकार मानव कुल, मानव संचेतना पूर्वक ही अपने में से सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज में भागीदारी करने की प्रवृत्ति स्वयंस्फूर्त होना पाया जाता है। इसका एकमात्र कारण है कि सहअस्तित्ववादी विधि से मानव अपने को पहचानता है।
मानव जाति आचरण में धर्म प्रधान है, जीव जातियाँ स्वभाव प्रधान, वनस्पतियाँ गुण प्रधान, पदार्थ रूप प्रधान है। मानव धर्म अपने में सुख के आधार पर समाधान प्रमाणित होना आवश्यक हो चुका है। सर्वतोमुखी समाधान पूर्ण शिक्षा संस्कार ही इसके लिये परम्परा और स्त्रोत है। यही जागृत परम्परा है।(अध्याय:3 (4), पेज नंबर:73 -74)
  • सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व स्थिर है। सहअस्तित्व में ही विकास और जागृति निश्चित है। इस धरती पर हम मानव इस तथ्य का अध्ययन करने योग्य स्थिति में हो चुके हैं। सर्व शुभ का दृष्टा, कर्त्ता, भोक्ता, उसके मूल में शिक्षा संस्कार से पाई गयी ज्ञान, विज्ञान, विवेक का धारक-वाहक केवल जागृत मानव ही है।(अध्याय:3(5), पेज नंबर:75)
  • मानव परम्परा जागृत होने में स्थिरता, अस्तित्व सहज विधि से प्रमाणित होता है, सुस्पष्ट होता है। निश्चयता मानवीयता पूर्ण आचरण विधि से प्रमाणित होता है, सुस्पष्ट होता है। इसकी अपेक्षा मानव में पीढ़ी से पीढ़ी में रहा आया है। इस प्रकार मानव का विकास और जागृति को प्रमाणित करने में समर्थ होना ही, मानव का उत्थान, वैभव, राज्य होना पाया जाता है। राज्य का परिभाषा भी वैभव ही है। उत्थान का तात्पर्य मौलिकता रूपी ऊँचाई में पहुँचने से या पहुँचने के क्रम से है। वैभव अपने स्वरूप में परिवार व्यवस्था और विश्व परिवार व्यवस्था ही है। ऐसी व्यवस्था में भागीदारी मानव का सौभाग्य है। इस क्रम में अध्ययन, शिक्षा संस्कार के रूप में उपलब्ध होते रहना भी व्यवस्था का बुनियादी वैभव है। वैभव ही राज्य और स्वराज्य के रूप में सुस्पष्ट होता है। स्वराज्य का मतलब भी मानव के वैभव से ही है। यह वैभव समझदारी पूर्वक ही हर मानव में पहुँच पाता है। यह शिक्षा पूर्वक लोकव्यापीकरण हो पाता है। ऐसी व्यवस्था अपने आप में द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्घ मुक्त रहना इसके स्थान पर समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व पूर्वक रहना पाया जाता है। यही सार्वभौम व्यवस्था का तात्पर्य है। (अध्याय:3 (6), पेज नंबर: 79 -80)
  • मानव जागृति पूर्वक स्थिति-गति में प्रमाणित होना चाहता है। ऐसे प्रमाण स्वयं के भी और सम्पूर्ण के भी संबंध में आशित हैं। सर्वप्रथम इस सिद्धान्त को हृदयंगम करना होगा कि स्थिति, गति अविभाज्य है। ‘होना’, ‘गतित रहना’ इसका मूल प्रमाण है। एक परमाणु भी होने के आधार पर गतित रहता है। ग्रह गोल भी होने के आधार पर गतित रहता है। सम्पूर्ण पदार्थ संसार ‘होने’ के आधार पर ही रचना विरचना रूपी गति को बनाये रखता है। सारे वनस्पति भी होने के आधार पर ही, पुष्टि के रूप में गतित रहते हैं। संपूर्ण जीव संसार भी होने के आधार पर ही गतित रहता है। मानव जागृति होने के आधार पर ही गति को प्रमाणित करता है। इस प्रकार सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में नित्य प्रतिष्ठा प्राप्त संपूर्ण वस्तु स्थिति-गति के रूप में वर्तमान है। इस विधि से संपूर्ण स्थिति-गति अविभाज्य है। स्थिति में बल, गति में शक्ति अथवा स्थिति को बल, गति को शक्ति के रूप में देखा जाता है और बल और शक्ति अविभाज्य है ही।
इस स्थिति-गति की अविभाज्यता को मानव में होने वाली जीवन क्रियाओं में भी देखा जाता है। मानव में अनुभव के रूप में स्थिति, प्रमाण के रूप में गति दिखाई पड़ती है। यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता का बोध रूपी बुद्घि की स्थिति, उसे प्रकाशित करने की प्रवृत्ति के रूप में संकल्प ही गति है। न्याय, धर्म, सत्य के साक्षात्कार करने के रूप में चित्त स्थिति और इसका चित्रण के रूप में चित्रित हो पाना गति है। चित्त क्रियाकलाप का सम्पूर्ण चित्रण तुलन के रूप में अर्थात् न्याय, धर्म व सत्य रूप में स्पष्ट होना वृत्ति सहज स्थिति है, वृत्ति में सम्पन्न हुये तुलन का विश्लेषण विधि में विश्लेषित होना व सम्प्रेषित होना वृत्ति सहज गति है। विश्लेषण के स्पष्ट अथवा सार रूप में मूल्य स्वीकृत होता है। इसे आस्वादन करना ही मन की स्थिति है, इसकी सार्थकता के लिये चयन क्रिया को सम्पादित करने के रूप में गतित होना हर मानव में सर्वेक्षित है। इस ढंग से मानव भी सभी प्रकार से स्थिति-गति में होना स्पष्ट होता है। इस प्रकार मानव समझदारी से सम्पन्न होने के उपरान्त प्रमाणित होना स्वभाविक होता है। इसका मतलब यही हुआ हम जब तक प्रमाणित नहीं होते, तब तक प्रमाणित होने के लिए ज्ञानार्जन, विवेकार्जन, विज्ञानार्जन कर लेना ही शिक्षा और शिक्षण का तात्पर्य है। इसके लिए सह अस्तित्ववादी शिक्षा क्रम समीचीन है। अतएव समझदार मानव होने के लिए ध्यान देने की आवश्यकता है।(अध्याय:3 (8), पेज नंबर:93)
  • इस बात का उल्लेख अवश्य है कि हम मानव परिभाषा के रूप में मनाकार को साकार करने वाले हैं और मन:स्वस्थता को प्रमाणित करने वाले हैं। यही मानव की मौलिकता है इस मौलिकता को प्रमाणित करने के क्रम में ही मानव सुखी होने के तथ्य को हम अपने में जांच कर प्रमाणित कर चुके हैं। हर विधा में हम समाधानपूर्वक जीकर ही सुखी होते हैं। समाधान पूर्वक जीने का सूत्र समझदारी पूर्वक ही सार्थक होना पाया गया। समझदारी सहअस्तित्व पूर्ण दृष्टिकोण से सम्पन्न होता है। इस क्रम में समझदारी का नित्य स्रोत तीन विधा में होना पहले से हम समझ चुके हैं। यह तो पहले से अभी तक प्रस्तुत किया गया अध्ययन से विदित हो चुका है कि आदर्श वादी विधि, भौतिक वादी विधि से, तार्किक विधियों से समझदारी प्रमाणित नहीं हो पाती। प्रस्तावित सहअस्तित्व वादी विधि से ही, अनुभव मूलक विधि से हर नर-नारी समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और भागीदारी के रूप में मानवीय आचरण पूर्वक सर्वतोमुखी समाधान को प्रमाणित कर सकते हैं। स्वयं में सदा-सदा सुख का अनुभव कर सकते हैं क्योंकि सार्वभौम समाधान सम्पन्न होना ही समझदारी की सर्वप्रथम सीढ़ी है। हर जागृत मानव में यह विद्यमान रहता ही है। इसी कारणवश सदा-सदा सुखी होने की संभावना भी समायी रहती है। इसी आधार पर प्रमाणित होने की आवश्यकता बनी रहती है। इस प्रकार हर समझदार मानव परम्परा में, से, के लिए जिम्मेदार होना, उपकारी होना संभावित हो गया। उपकार का तात्पर्य भी स्पष्ट है। समझा हुआ को समझाना, किये हुए को कराना, सीखे हुए को सिखाना, यह सब समाधानकारी होना फलत: उपकार सार्थक होना होता है। इस ढंग से मानव कैसा उपकारी हो सकता है, स्पष्ट हुआ है। यह भी स्पष्ट हुआ कि हम सब समझदार मानने वाले, नासमझ मानने वाले कैसे समस्याओं को निर्मित किया। इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो गया कि विज्ञान संसार मानसिकता, प्रबोधन कार्यों में जिम्मेदारियों से बहुत दूर पहुँचने के क्रम में, यंत्र के समान मनुष्य को पहचानने की कोशिश की, इसमें सर्वथा असफल हुआ। (अध्याय:3 (8), पेज नंबर:95)
  • सर्वमानव किसी आयु में सर्वाधिक लोगों के लिए अर्थात् सर्वमानव में शुभ चाहते रहे, इसके पुष्टि में सह अस्तित्व रूपी अध्ययन में इसकी संभावना सुलभ हुई है। अभी एक ही मनुष्य, किसी आयु तक सबका अथवा ज्यादा लोगों का सुख चाहता और कुछ अधिक आयु के अनन्तर अपने परिवार, स्वयं की सुविधा संग्रह पर तुल जाने के रूप में देखने को मिलता है। इनमें सन्तुलन स्थापित करने के लिए मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) के अनुसार शिक्षा सुलभ अर्थात् सह-अस्तित्ववादी शिक्षा का लोकव्यापीकरण करने की आवश्यकता है। चारों अवस्था में संतुलित बिन्दु में लाने के लिए सहअस्तित्ववादी विधि को अपनाना ही होगा।(अध्याय:3 (9), पेज नंबर:99)
  • मात्रा विधा में रूप, गुण, स्वभाव और धर्म के अध्ययन के सम्बन्ध में रूप चारों अवस्थाओं के लिए स्पष्ट हो चुकी है। अब गुण और स्वभाव के संंबंध में स्पष्ट होना आवश्यक है। स्वभाव चारों अवस्थाओं में भिन्न देखा जा रहा है। पदार्थावस्था में संगठन-विघटन या किसी से संगठन किसी से विघटन क्रिया के रूप में स्वभाव को पदार्थावस्था में देखा जाता है। प्राणावस्था में स्वभाव सारकता मारकता के रूप में देखने को मिलता है। सारकता, स्वयं में विपुल होने के अर्थ में, दूसरा जीव संसार के लिए उपयोगी होने के अर्थ में। मारकता का मतलब अपने बीज व्यवस्था को विपुल बनाने में अड़चन पैदा करने की क्रिया और जीव संसार के लिए रोग, मृत्युकारक होने की स्थिति से है। जीव संसार में स्वभाव को क्रूर-अक्रूर के रूप में पहचाना गया है। अक्रूर का अर्थ है दूसरे किसी जीवों का हत्या न करना, मांस भक्षण न करना, वनस्पति आहारों पर जीते रहना। इस प्रकार से क्रूर-अक्रूर दोनों स्पष्ट होते हैं। दूसरे भाषा में मांसाहारी-शाकाहारी के रूप में जाना जाता है। तीसरी भाषा में हिंसक-अहिंसक भी कह सकते हैं। ज्ञानावस्था का स्वभाव धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करूणा होना पाया जाता है। ये ही मानव स्वभाव के रूप में स्पष्ट होता है। मानव विरोधी स्वभाव हीनता, दीनता, क्रूरता सहित परधन, परनारी/परपुरुष, परपीड़ा के रूप में गण्य है। जो इन प्रवृत्ति में रहते हैं, वे ही पशु मानव, राक्षस मानव में गण्य होते हैं। ये दोनों मानव विरोधी होना पाया जाता है। मानव विरोधी स्वभाव वाले शनै:-शनै: मानवीय स्वभाव में परिवर्तित होने की संभावना बनी रहती है। इसी आधार पर सार्थक शिक्षा का प्रस्ताव है, दूसरी भाषा में सहअस्तित्व वादी शिक्षा का प्रस्ताव है।(अध्याय:3 (9), पेज नंबर:108)
  • धीरता का तात्पर्य मानव न्याय के प्रति सुस्पष्ट और प्रमाणित रहने से है। सुस्पष्ट होने के लिए अध्ययन और परंपरा ही एकमात्र आधार है। परंपरा, अध्ययन कार्य का धारक वाहक है, अध्ययन वर्तमान में होता ही रहता है। वीरता का तात्पर्य, स्वयं न्याय के प्रति निष्ठान्वित, व्यवहारान्वित, प्रमाणित रहते हुए लोगों को न्याय सुलभता के लिए अपने तन, मन, धन को अर्पित समर्पित करने से ही है। यह भी शिक्षा विधि से ही और लोक शिक्षा विधि से ही सार्थक होना पाया जाता है। उदारता का तात्पर्य है अपने में से प्राप्त तन, मन, धन रूपी अर्थ को उपयोगिता विधि से, सदुपयोगिता विधि से, प्रयोजनीयता विधि से उपयोग करना। उपयोगिता विधि का तात्पर्य शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज गति में प्रयोग करना है। सदुपयोगिता का तात्पर्य अखण्ड समाज में भागीदारी करते हुए वस्तुओं का अर्पण-समर्पण करना है। प्रयोजनीयता का तात्पर्य सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करना है, वह भी स्वयं स्फूर्त स्वायत्त विधि से। दया का तात्पर्य पात्रता के अनुरूप वस्तुओं को उपलब्ध कराने की क्रिया से है। कृपा का तात्पर्य उपलब्ध वस्तु के अनुसार पात्रता को उपलब्ध कराना है। यह वस्तु के अनुरूप पात्रता के अभाव की स्थिति में हो जाना पाया जाता है। करूणा का तात्पर्य वस्तु भी न हो पात्रता भी न हो इन दोनों को स्थापित करने की क्रिया है। मानव दया, कृपा, करूणा पूर्वक मानव, देव मानव और दिव्य मानव के रूप में वैभवित होना पाया जाता है। ऐसे वैभव देश, धरती, मानव के लिए अत्यधिक उपयोगी होना पाया जाता है। (अध्याय:3 (9), पेज नंबर:108-109)
  • हर मानव का समझदार होना एक साधारण घटना है, सामान्य घटना है, सबसे वांछित घटना है। समझदार होने के फलन में ही अन्य सभी कड़ियाँ अपने आप जुड़ती हैं। समझदारी के साथ ही फल परिणाम तृप्ति का स्रोत बनना आवश्यक है। फल परिणाम मानवाकाँक्षा सार्थक होने से है, समझदारी का प्रमाण भी मानवाकाँक्षा के सार्थक होने से है, मानव का सम्पूर्ण कार्य व्यवहार की सार्थकता भी मानवाकाँक्षा का सार्थक होना है। मानव की सम्पूर्ण व्यवस्था प्रक्रिया भी मानवाकाँक्षा के सार्थक होने से है। मानवीय व्यवस्था, मानवीय शिक्षा, मानव के सोच विचार की सार्थकता यदि कुछ है तो वह केवल मानवाकाँक्षा पूरा होने से है। इसमें मुख्य बात यही है अर्थात् यह सब कहने का मुख्य मुद्दा यही है कि मानवाकाँक्षा पूरा होने से जीवनाकाँक्षा पूरा होता ही है। (अध्याय:3 (12), पेज नंबर:124)
  • हर व्यक्ति अनुभवगामी विधि से अध्ययन, शोध, परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक अनुभव और परावर्तन में अनुभवमूलक प्रणाली से मानवाकाँक्षाओं को प्रमाणित करना हो जाता है। इस प्रकार अध्ययन, बोध, अनुभवमूलक विधि से अनुभवमूलक प्रणाली पूर्वक मानवाकाँक्षा के अर्थ में जीना बन जाता है। यही अध्ययन का मूल उद्देश्य है। अनुभव मूलक विधि से जीने वाले व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि होने के क्रम में ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का प्रमाण होना, क्रम से समाधान समृद्धि अभय सह-अस्तित्व का प्रमाण हो जाना, हर जागृत व्यक्ति का पहचान हो पाता है। इतना ही नहीं हर नर नारी जागृत होना चाहते ही हैं, इसीलिए जागृत होने योग्य शिक्षा का लोक व्यापीकरण करना ही एक मात्र उपाय है। मानवीय शिक्षा में मानव में, से, के लिए आवश्यकीय सभी मुद्दे अध्ययन के लिए वस्तु है। 
इस ढंग से मानव परंपरा उत्तरोत्तर जागृत होने के रुप में परावर्तित रहता ही है। प्रत्यावर्तन में सुख, शान्ति, संतोष, आनन्द से सराबोर रहता ही है। मानवाकाँक्षा अपने आप में कार्य व्यवहार व्यवस्था विधि से प्रमाणित होता ही है। यही जीने का तात्पर्य है। अर्थात् कार्य, लक्ष्य और प्रयोजन प्रमाण होना, उसकी निरंतरता बने रहना ही जीने का तात्पर्य है। (अध्याय:3 (12), पेज नंबर:125)
  • परावर्तन प्रत्यावर्तन क्रिया के संबंध में काफी अध्ययन संभव हो गया है। इसी क्रम में परंपरा में शिक्षा-संस्कार एक अनूस्युत क्रिया है। परावर्तन विधि से अध्यापन, प्रत्यावर्तन विधि से अध्ययन होना पाया जाता है। अध्यापन एक श्रुति अथवा भाषा होना सुस्पष्ट है। भाषा का अर्थ है अस्तित्व में वस्तु होना सुस्पष्ट हो चुकी है, भाषा के अर्थ के स्वरुप में अस्तित्व में वस्तु बोध होना ही मूल आशय है। यही प्रत्यावर्तन क्रिया है। सह अस्तित्व में हर वस्तु बोध अनुभव मूलक विधि से परावर्तित हो पाती है। इस विधि में अध्ययन कार्य अनुभवगामी पद्घति से होना स्पष्ट हुई। यही प्रत्यावर्तन की महिमा है अथवा उपलब्धि है। इस विधि से परावर्तन अध्यापन क्रिया है। अर्थ बोध होना और अनुभव होना अध्ययन का फलन है। अर्थ बोध तक अध्ययन, अनुभव, प्रत्यावर्तन का अमूल्य फल है। अर्थ बोध का अनुभव के अर्थ में प्रत्यावर्तित होना एक स्वभाविक क्रिया है। क्योंकि हर अर्थ का अस्तित्व में वस्तु बोध होता है। अनुभव महिमा की रोशनी से वंचित होकर अध्ययन में वस्तु बोध होता ही नहीं। अभी तक भी जितने वस्तु बोध हुई हैं, ये सब अनुभव में ही प्रमाणित होकर अध्ययन के लिए प्रस्तुत हुए हैं।(अध्याय:3 (12), पेज नंबर:126-127)


स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

शिक्षा - संदर्भ:मानव अभ्यास दर्शन

मानव अभ्यास दर्शन (अध्याय:1,2,3,4,5,6,7,8,9,10,12,13,14,15 संस्करण:द्वितीय, मुद्रण:2010)
  • व्यक्ति की मूल-प्रवृत्ति विचार के रूप में, परिवार में आचरण के रूप में, समाज में सम्मति, प्रोत्साहन एवं भागीदारी के रूप में, राष्ट्र में शिक्षा व व्यवस्था के रूप में एवं अन्तर्राष्ट्रीय मूल-प्रवृत्ति परिस्थिति मानव चेतना के रूप में प्रत्यक्ष है। ये पाँचों स्थितियाँ मानवीय संचेतना में समन्वित, सफल होना पाया जाता है एवं इसके विपरीत अमानवीय प्रवृत्तिवश समस्त समस्याएँ दु:ख रूप में परिवर्तित होती है।(अध्याय:1, पेज नंबर:2)
  • ‘‘संस्कार’’ (प्रवृत्ति) तात्रय पूर्वक ‘‘अध्ययन’’ निपुणता, कुशलता एवं पांडित्य पूर्वक तथा ‘‘वातावरण’’ विशेषत: मानवकृत है। मानवकृत वातावरण ही व्यवस्था है। मानवीयता में संस्कार शिक्षा एवं व्यवस्था की एकसूत्रता, अमानवीयता में एकसूत्रता का अत्याभाव, अतिमानवीयता में मानव स्वतंत्रता पूर्वक एक सूत्रता सहज प्रमाण है, यही अभ्यास का तात्पर्य है। अर्थात् संस्कार सम्पन्न होना अभ्यास का फलन है। जागृत मानव ही स्वतंत्रित है। (अध्याय:1, पेज नंबर:8)
  • सम्पूर्ण आस्वादन जड़ शरीर के लिए पोषक या शोषक सिद्घ हुए हैं। सम्पूर्ण स्वागत क्रियाएं चैतन्य सीमान्तवर्ती उपादेयी हैं, जो संस्कार है। यही शिक्षा, अध्ययन, अनुसंधान व अनुभूति है, जिसके बिना मानव जीवन की सफलता सिद्घ नहीं होती है।(अध्याय:1, पेज नंबर:15)
  • आशा व प्रत्याशा में समाधान रूप में शुभ होना पाया जाता है, उसके अनुरूप कर्म और उपयोग में दक्षता व पात्रता का अभाव ही पराभव या असफलता का कारण है। यही पुन:प्रयासोदय है। यह क्रम तब तक रहेगा जब तक स्वस्थ व्यवस्था एवं शिक्षा से मानव सम्पन्न न हो जाए। अत: मानव द्वारा ‘‘वादत्रय’’ को सफल बनाने के लिए स्पष्ट एवं पूर्णतया मानव की परिभाषा, मानवीयता की व्याख्या, सामाजिक अनिवार्यता, समाज की परिभाषा,  समाज का आधार, समाज का लक्ष्य, समाज का आचरण, सामाजिकता का अध्ययन, समाज की अक्षुण्णता के लिए प्राकृतिक एवं वैयक्तिक ऐश्वर्य के सदुपयोग एवं सुरक्षा का अध्ययनपूर्वक व्यवहारान्वयन आवश्यक है। (अध्याय:1, पेज नंबर:17)
  • दर्शन क्षमता प्रत्येक मानव में किसी न किसी अंश में पायी जाती है। दर्शन क्षमता के जागृति की अभिलाषा से शिक्षा एवं अध्ययन की अनिवार्यता सिद्ध हुई है।(अध्याय:2, पेज नंबर:24)
  • न्यायपूर्ण व्यवहार चेतना विकास  मूल्य शिक्षा मानवीयता पूर्ण समाज के लिए आवश्यक कार्यक्रम है। गुणात्मक स्थितिवत्ता की उपेक्षा ही अज्ञान, अभाव, असमर्थता एवं अक्षमता है। अज्ञानी को ज्ञानी में, अभाव को भाव में, असमर्थ को समर्थ में, अक्षम को सक्षम में परिवर्तित, परिमार्जित करने के लिए शिक्षा एवं व्यवस्था है।(अध्याय:2, पेज नंबर:24)
  • मानव ही इस पृथ्वी पर अधिकाधिक संचेतनशील है। परस्पर मानव की संचेतनशीलता में जो अंतरान्तर है, उसी में अनन्यता को स्थापित करने के लिए प्रयास भी किया है। यही शिक्षा और अध्यापन कार्य की प्रेरणा भी है।(अध्याय:2, पेज नंबर:25)
  • मूल्यों की स्थिरता ही अखंडता एवं अक्षुण्णता है, जो नियति क्रम में पाये जाने वाले तथ्य हैं। समाज की पाँचों स्थितियाँ परस्पर पूरक हैं, जिसकी एकसूत्रता ही अखंडता है। अन्तर्राष्ट्रीय जीवन में ‘‘नीतित्रय’’ का संतुलन, राष्ट्रीय जीवन में मानवीयता के संरक्षण एवं संवर्धन योग्य विधि-व्यवस्था एवं शिक्षा-प्रणाली-पद्घति, सामाजिक जीवन में मानवीयता का प्रचार, प्रदर्शन, प्रकाशन एवं प्रोत्साहन; परिवार-जीवन में मानवीयता के प्रति समर्पण, विश्वास एवं निष्ठा, व्यक्ति के जीवन में मानवीयता पूर्ण आचरण, व्यवहार, अभ्यास अनुभव, विचार, व्यवहार, अभ्यास, अनुभव, विचार तथा आवश्यकता से अधिक उत्पादन  ही लोक मंगल-कार्यक्रम है। यही चारों आयामों एवं पाँचों स्थितियों की एकसूत्रता का सूत्र है।(अध्याय:2, पेज नंबर:27)
  • जनाकाँक्षा को सफल बनाने योग्य शिक्षा व व्यवस्था (अध्याय-3, पेज नंबर:34) ("शिक्षा" के लिए कृपया पूरा अध्याय देखें यहाँ इस अध्याय के कुछ अंश ही लिए गए हैं) ⇩
  • मानव लक्ष्य को सफल बनाने योग्य शिक्षा व व्यवस्था की अपेक्षा प्रत्येक व्यक्ति में किसी न किसी अंश में पायी जाती है जो चेतना विकास मूल्य शिक्षा पूर्वक राज्यनीति एवं धर्मनीति से ही सफल है। दोनों के मूल में मानवीयता पूर्ण व्यवस्था है ही जिसमें अर्थ के सदुपयोग एवं सुरक्षा की अवधारणा समायी है। (अध्याय:3, पेज नंबर:34)
  • उपयोगिता-मूल्य आवश्यकता में, आवश्यकता-मूल्य शिष्टता में, शिष्टता-मूल्य स्थापित मूल्य में, स्थापित मूल्य मानव मूल्य में, मानव मूल्य जीवन मूल्य में समर्पित पाये जाते हैं। स्थापित मूल्य  ही जीवन एवं जीवन के कार्यक्रम का आधार है, इसी आधार पर संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था हैं न कि केवल उत्पादन पर क्योंकि उत्पादन मानव के अधीन है न कि उत्पादन के अधीन मानव।(अध्याय:3, पेज नंबर:36) 
  • मानव में  अनुभव बोध सम्पन्नता ही प्रबुद्घता है। यही शिक्षा व्यवस्था का आद्यान्त लक्ष्य है जो कारण, सूक्ष्म, स्थूल तत्वों का अध्ययन है। जिसमें ज्ञान, विवेक, विज्ञान पूर्वक अखण्ड समाज एवं सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होती है। (अध्याय:3, पेज नंबर:37)
  • दश सोपानीय व्यवस्था सहज चारों आयामों की एकसूत्रता ही अखण्ड समाज है जिसकी प्रभुसत्ता संज्ञा है। यह सह-अस्तित्व सहज सम्पूर्ण मूल्यों का प्रमाण एवं परंपरा ही है। सम्पूर्ण मानव में प्रबुद्घता का ही परावर्तितत रूप प्रभुसत्ता है जो मानवीयतापूर्ण शिक्षा व्यवस्था, विधि, नीति पूर्वक सफल है।(अध्याय:3, पेज नंबर:37)
  • अध्ययन से वैचारिक नियंत्रण, शिक्षा से व्यवहारिक नियंत्रण एवं प्रशिक्षण से उत्पादन में नियंत्रण प्रसिद्घ है।(अध्याय:3, पेज नंबर:39)
  • परिवार ही बुनियादी व्यवस्था, न्याय एवं शिक्षा है। प्रत्येक मानव के जीवन जागृति और प्रमाणित होने का आधार भी यही है। 
मानव का प्रथम परिचय परिवार में स्पष्ट होता है। प्रतिभा एवं व्यक्तित्व का संतुलन व्यवहार में प्रमाणित होता है एवं आचरण-प्रकटन का भी परिवार ही बुनियादी क्षेत्र है, उसकी विशेषतानुसार ही विशाल एवं विशालतम सीमा सिद्घ होती है।(अध्याय:3, पेज नंबर:43)
  • अखण्ड सामाजिकता ही मानव जीवन की स्थिरता का प्रत्यक्ष रूप है जो स्थापित मूल्यों की अनुभव योग्य क्षमता पर आधारित है। यह शिक्षा एवं व्यवस्था प्रबुद्धता पर आधारित है।(अध्याय:3, पेज नंबर:47)
  • संस्कार परिवर्तन केवल शिक्षा एवं व्यवस्था से ही है क्योंकि त्रुटिपूर्ण शिक्षा व व्यवस्था के द्वारा ज्ञानी-अज्ञानी, विवेकी-अविवेकी, सबल-दुर्बल एवं अन्य किसी को भी संतुष्टि, समाधान व अभय प्रदान करना संभव नहीं हुआ है, जो स्पष्ट है।(अध्याय:3, पेज नंबर:49)
  • शिष्ट मूल्य ही अनुभव को इंगित करता है, यही सभ्यता व शिक्षा है। प्रत्येक मानव में किसी से शिक्षित होना या किसी को शिक्षित करना प्रसिद्घ है। शिष्टता में ही उपयोगिता व सुंदरता संयत रूप में प्रयुक्त होती है। संयमता ही सदुपयोग है। सदुपयोग एवं सुरक्षा ही सतर्कता का प्रत्यक्ष रूप है। यही सामाजिकता का कार्य-कारण एवं लक्ष्य भी है। (अध्याय:3, पेज नंबर:50)
  • समाधानात्मक भौतिकवादी कार्यक्रम की चरितार्थता आवश्यकता से अधिक उत्पादन के रूप में भी प्रस्तावित है, जिसके लिये मानव में शिक्षा एवं शैक्षणिक क्षमता, निपुणता एवं कुशलता के रूप में है। यही उत्पादन क्षमता है। यही क्षमता उपयोगिता एवं काला मूल्य को प्रकृतिक ऐश्वर्य पर प्रतिस्थापित करती है।.... (अध्याय:4, पेज नंबर:56)
  • व्यक्तित्व व उत्पादन क्षमता सम्पन्न करने का दायित्व शिक्षा व्यवस्था एवं नीति पर आधारित पाया जाता है। यही व्यवस्था का प्रत्यक्ष स्त्रोत है। प्रचार, प्रकाशन, प्रदर्शनपूर्वक उसे प्रोत्साहित करने का दायित्व विद्वता, कला, कविता सम्पन्न समाज का है जिनसे ही सामान्य जन जाति प्रेरणा पाती है, जो तथ्य है। परस्पर राष्ट्रों में संतुलन सामंजस्य एवं एकसूत्रता को पाने के लिये प्रत्येक राष्ट्र को मानवीयता पूर्वक ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन करने के लिए उन्मुख होना ही होगा। सार्वभौमिकता ही सभी राष्ट्रों के अनुमोदन के लिये आधार रहेगा। सामाजिक सार्वभौमिकता अर्थात् अखंडता ही सभी राष्ट्रों का मूल आशय है। उसकी स्पष्ट सफलता न होने का कारण मात्र वर्गीयता है या वर्गीयता का प्रोत्साहन एवं संरक्षण है। यह सभी वर्गीयताएं मानवीयता में ही विलीन होती है न कि अमानवीयता में। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मानवीयतापूर्ण जीवन परम्परा ही एकमात्र शरण है। इसी का दश सोपानीय व्यवस्था में निर्वाह करना ही एकसूत्रता, अखंडता एवं समाधान सार्वभौमता है। प्रत्येक संतान को उत्पादन एवं व्यवहार एवं व्यवस्था में भागीदारी करने योग्य बनाने का दायित्व अभिभावकों में भी अनिवार्य रूप में रहता है क्योंकि प्रथम शिक्षा माता-पिता से, द्वितीय परिवार से, तृतीय परिवार के सम्पर्क सीमा से, चतुर्थ शिक्षण संस्थान से, पंचम वातावरण से अर्थात् प्रधानत: प्रचार-प्रकाशन-प्रदर्शन से तथा प्राकृतिक प्रेरणा से अर्थात् भौगोलिक एवं शीत, उष्ण, वर्षामान से प्राप्त होती है। (अध्याय:4, पेज नंबर:57)
  • श्रम नियोजन, श्रम विनिमय-पद्धति से प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सेवा व वस्तु को दूसरी सेवा व वस्तु में परिवर्तित करने की सुगमता होती है, जिसमें शोषण, वंचना, प्रवंचना एवं स्तेय की संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं जो अपराध परम्परा का वृहद् भाग है। ये संभावनाएं जागृति पूर्वक मानवकृत वातावरण, प्रधानत: व्यवस्था पद्धति एवं शिक्षा से ही निर्मित होती है। (अध्याय:4, पेज नंबर:59)
  • न्याय, अनुभव और व्यवहार ‘‘में, से, के लिये’’ है जो प्रसिद्घ है। यही व्यवहरात्मक जनवाद को स्पष्ट करता है। न्याय पाने की साम्य कामना ही व्यवहारात्मक जनवाद का आधार है, मानवीयता पूर्वक ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन होना ही न्याय है, जिसका प्रत्यक्ष रूप आवश्यकता से अधिक उत्पादन और अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा है। यही जनाकांक्षा है। जनाकाँक्षानुरूप व्यवहार-व्यवस्था-प्रक्रिया ही जनवादीय तंत्र का उद्देश्य है। तद्नुरूप व्यवस्था व शिक्षा का सर्व-सुलभ होना ही व्यवहार है।  जनवादीय तंत्र से जनवादीय व्यवस्था एवं शिक्षा, जनवादीय व्यवस्था शिक्षा से जनजाति में व्यवहार, जनजाति में व्यवहारानुरूप जनाकाँक्षा का निर्माण होना ही जनावादीय तंत्र की सफलता है। जागृत मानव परम्परा में जनाकाँक्षाए सार्थक होना पाया जाता है।न्याय पाना, सही कार्य व्यवहार करना सत्य सम्पन्नता ही साम्यत: जनाकाँक्षा है। (अध्याय:4, पेज नंबर:60)
  • मानव में विकसित अवस्था ही देव पद चक्र है। जिसके लिये मानव में सतत तृषा, अथक प्रयास एवं पूर्ण आकाँक्षा है। देव पद चक्र में संक्रमित होना ही मानवीयता सहज वैभव है। यही वैयक्तिक एवं परिवार की स्थिति में आचरण एवं व्यवहार है। इसका व्यवस्था एवं शिक्षा के रूप में उपलब्ध हो जाना ही मानवीयतापूर्ण समाज का प्रत्यक्ष रूप है। यह संक्रमण-प्रक्रिया चेतना विकास मूल्य शिक्षा के क्रम में भावी है। अमानवीयता से मुक्ति पाने के लिये मानवीयता एक संभावना है। मानवीयता से परिपूर्ण होने के अनन्तर यह मानव का अधिकार और स्वत्व है। यही अधिकार एवं स्वत्व, स्वतंत्रता के लिये उत्प्रेरणा है। पूर्ण स्वतंत्रता दिव्य मानवीयता में ही होती है। देव पद चक्र  में संक्रमित समाज ही जागृति सहज समाज है। इससे पूर्व की स्थिति में सामाजिकतापूर्ण समाज सिद्घ नहीं है, क्योंकि अमानवीयता में सामाजिकता का पूर्ण होना संभव नहीं है। इसी कारणवश वर्ग-संघर्ष का क्रम दृष्टिगोचर है। (अध्याय:4, पेज नंबर:68)
  • मानवीयतापूर्ण शिक्षा व व्यवस्था की प्रस्थापना, आप्त कामना सहित प्रमाण-पूर्वक विश्लेषणपूर्ण प्रक्रियाबद्घ सिद्घांतों का उद्घाटन है। यह अनुसंधान-क्षमता की स्वभाविक प्रक्रिया है। प्रत्येक जागृत इकाई में सबके जागृति के प्रति कामना जागृत होना स्वभाविक है। इसी क्रम में प्रत्येक अनुसंधान जन सुलभ होता आया है। जिनमें यह क्षमता प्रत्यक्ष हुई है, वे आप्तपुरुष हैं। मानवीयता में ही संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था की एकरूपता सिद्घ होती है। अर्थात् निर्विषमता सिद्घ होती है। यही धार्मिक, आर्थिक एवं राज्यनैतिक एकात्मकता को सिद्घ करती है, जिसके लिये ही मानव कुल प्रतीक्षारत है। यही व्यक्ति में उत्पादन, व्यवहार, विचार एवं अनुभूति के लिये अविरत प्रेरणा का स्रोत है।
शिक्षा ही मानव जीवन एवं जीवन के कार्यक्रम को विश्लेषण व व्याख्यापूर्वक बोधगम्य कराने के लिये एकमात्र सूत्र है। प्रधानत: मानव को शिष्टता विशिष्टता से पूर्णत: प्रबोधन करा देना ही शिक्षा है। साथ ही उत्पादन-विनिमय कुशलता एवं निपुणता-योग्य योग्यता का निर्माण करना ही शिक्षण की चरितार्थता है। (अध्याय:4, पेज नंबर: 69)
  • आचरण पूर्णता ही शिक्षा का लक्ष्य है (अध्याय- 5)(शिक्षा के लिए कृपया पूरा अध्याय देखें यहाँ इस अध्याय के कुछ अंश ही लिए गए हैं)⇩
  • ‘‘प्रबुद्धता ही प्रतिभा और आचरण ही व्यक्तित्व है।’’ आचरण एवं प्रतिभा-सम्पन्नता के लिये शिक्षा एवं उसके संरक्षण के लिये व्यवस्था प्रसिद्ध है।(अध्याय:5, पेज नंबर:72)
  • मानव जीवन की विधि एवं नीति-संहिता में असंदिग्धता ही शिक्षा में पूर्णता है। व्यवस्था की सफलता उसके कार्यक्षेत्र के अंतर्गत पाई जाने वाली जनजाति में तारतम्यता ही असंदिग्धता का प्रत्यक्ष रूप है। विधि-संहिता ही मानव-जीवन-संहिता है। यही प्रकृति के विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति की भाषाकरण संहिता है। उसका अनुकरण, अनुसरण और आचरण-प्रक्रिया ही नीति है। यही मानव जीवन का कार्यक्रम है।(अध्याय:5, पेज नंबर:74)
  • समाज संरचना का आधार मानव मूल्य एवं स्थापित मूल्य ही है। संबंधों से अधिक समाज संरचना नहीं है। मित्र संबंध में समस्त मानव-मात्र संबंधित हैं ही। अपराध विहीन समाज को पाने के लिए मानवीय शिक्षा एवं व्यवस्था पद्घति ही मूलत: कारक एवं आवश्यक है। मानवीय शिक्षा एवं व्यवस्था अन्योन्याश्रित उद्घाटन हैं। इनकी आधारभूत संहिता में मानव-जीवन के अनुरूप जीवन के कार्यक्रम को पूर्णतया विश्लेषित करते तक अंतर्विरोध स्वभाविक है। मानवीय शिक्षा एवं व्यवस्था-संहिता का योगफल ही मानव-जीवन-संहिता है, जिसमें मानव की परिभाषा, मानवीयता की व्याख्या समायी हुई है। यही जीवन-संहिता की पूर्णता है। इसी के आधार पर निर्विषमता, निर्विरोधित स्थापित होती है। ये जागृति पूर्वक प्रमाणपूर्वक पाई जाने वाली स्थिति है।(अध्याय:5, पेज नंबर:78)
  • संबंध विहीन समाज नहीं है। समाज रचना संबंध ‘‘में, से, के लिए’’ ही है। संबंध मात्र समाज ‘‘में, से, के लिए’’ है। अत: समाज एवं संबंध अन्योन्याश्रित हैं। इसी तारतम्य में सभी मूल्य अन्योन्याश्रित है। फलत: अनन्यता सिद्धहै। यही सह-अस्तित्व का मूल सूत्र है। इसलिए 
संबंध ही जन्म, शिक्षा, व्यवहार, परिवार, उत्पादन, व्यवस्था के प्रभेद से दृष्टव्य है। वह:-
  1. जन्म संबंध :- माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन उनसे संबंधित सभी संबंध
  2. शिक्षा संबंध :- गुरु-शिष्य।
  3. व्यवहार संबंध :- मित्र, वरिष्ठ, कनिष्ठ (आयु के आधार पर)
  4. उत्पादन प्रौद्योगिकी संबंध :- साथी-सहयोगी, स्वामी-सेवक, साधन-साधक, साध्य।
  5. व्यवस्था संबंध :- दश सोपानीय परिवार सभा विधि।
  6. परिवार संबंध :- परिवार संबंध में पति-पत्नि सहित सभी संबंध समाये रहते हैं।(अध्याय5:, पेज नंबर:79)
  • ‘‘निर्भमतापूर्वक ही मानव चारों आयामों और दश सोपानीय परिवार सभा व्यवस्था में पूर्णता का अनुभव करता है।’’ यह पूर्णता समाधान समृद्घि अभय एवं सह-अस्तित्व के रूप में प्रत्यक्ष होती है। पूर्णता मानव जीवन एवं प्रकृति की विकासक्रम एवं जीवन जागृति की संहिता है। जिसका सार्थक भाषाकरण ही संहिता है। यह सर्ववांछित उपलब्धि हैं। सार्वभौम सिद्धान्त, नीति एवं पद्धति को पाना अर्थ के सदुपयोग एवं सुरक्षा के लिए अनिवार्यतम आवश्यकता है जिसके बिना शिक्षा में सार्वभौमिकता संभव नहीं है। फलत: संस्कृति-सभ्यता में सार्वभौमिकता संभव नहीं है। (अध्याय:6, पेज नंबर:84)
  • ‘‘जागृति सहज अनुमान क्षमता मानव की विशालता को और अनुभव ही पूर्णता को स्पष्ट करता है।’’ सतर्कता एवं सजगता मानव-जीवन में प्रकट होने वाली क्रिया पूर्णताएं है। चैतन्य क्रिया अग्रिम रूप में क्रिया पूर्णता एवं आचरण पूर्णता के लिये तृषित एवं जिज्ञासापूर्वक अपनी विशालता को अनुमान के रूप में प्रकट करती है। ज्ञानावस्था की इकाई का मूल लक्ष्य ही पूर्णता है। पूर्णता के बिना ज्ञानावस्था की इकाईयाँ आश्वस्त एवं विश्वस्त नहीं है। उत्पादन एवं व्यवहार में ही क्रमश: समाधान एवं अनुभव चरितार्थ हुआ है। प्रयोग एवं उत्पादन में ही समस्या एवं समाधान है। व्यवहार एवं आचरण में ही सामाजिक मूल्यों का अनुभव होने का परिचय सिद्ध होता है। आशा, विचार, इच्छा समाधान के लिए ही प्रयोग व उत्पादन-विनिमयशील है। इच्छा एवं संकल्प अनुमानपूर्वक अनुभव के लिए आचरणशील है। आचरण के मूल में मूल्यों का होना पाया जाता है। स्वभाव ही आचरण में अभिव्यक्त होता है। मानवीय स्वभाव धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करूणा ही है। अनुभव आत्मा में  अनुभवमूलक व्यवहार एवं आचरण आत्मानुशासित होता है, आत्मानुभूति ही प्रमाण और वर्तमान है। आत्मानुभूति मूलक व्यवहार समाधान सम्पन्न होता है। तभी परावर्तन एवं प्रत्यावर्तन में संतुलन सिद्घ होता है। अनुभूति आत्मानुषंगी एवं अपरिवर्तनीय है। पूर्णता सहज व्यवहार आत्मानुषंगी एवं अपरिवर्तनीय है यही पूर्णता है। यही पूर्ण सजगता है, पूर्ण सजगता ही सहजता है। समाधान एवं अनुभूति की निरंतरता ही सामाजिक अखण्डता एवं अक्षुण्णता है। अनुभव एवं समाधान के बिना जीवन चरितार्थ नहीं है। चरित्रपूर्वक अर्थ निस्सरण ही चरितार्थता है। आचरण ही स्वभाव के रूप में प्रकट होता है। यही स्वभाव ‘‘तात्रय’’ में स्पष्ट है। आवश्यकता से अधिक उत्पादन के रूप में प्रयोग पूर्वक किया गया उत्पादन-विनिमय में सफल हुआ है। व्यवहार एवं उत्पादन का योगफल ही सह-अस्तित्व है। उनमें निर्विषमता ही जागृति है। उसकी निरंतरता ही सामाजिकता की अक्षुण्णता है, जिसके दायित्व का निर्वहन, शिक्षा एवं व्यवस्था करती है।(अध्याय:6, पेज नंबर:87)
  • मानव में पायी जाने वाली स्वतंत्रता की तृषा का तृप्त हो जाना ही मानव-जीवन में दृष्टा पद एवं जागृति है। मानव जीवन भी जागृति क्रम है। स्वतंत्रता का प्रत्यक्ष रूप ही सतर्कता एवं सजगता है जो मानवीयतापूर्ण समाज, सामाजिकता, आचरण, संस्कृति, विधि, व्यवस्था एवं शिक्षा है। ये सभी परस्पर पूरक तथ्य हैं। इन सभी पूरक तथ्यों का एक ही सुद्दढ़ आधार है मानवीयता। (अध्याय:6, पेज नंबर:88)
  • प्रकृति का अध्ययन एवं दर्शन तथा मूल्यों का अनुभव प्रसिद्घ है। अनुभव क्षमता ही मूल्य एवं मूल्यांकन का निष्कर्ष है। स्थिति मूल्य या मूल्यांकन ही अनुभव है। अनुभव विहीन मानव अपने में स्पष्ट नहीं होता है। प्रत्येक मानव स्पष्ट होने में, से, के लिए निरंतर प्रयासशील है। स्वयं स्पष्ट होना ही समाधान एवं अनुभव पूर्ण प्रकटन है। तत्पर्यन्त मानव संतृप्त नहीं है। सम्यक प्रकार से तृप्ति ही संतृप्ति है। सम्यक प्रकार से तुष्टि ही संतुष्टि है। संतुष्टि का तात्पर्य पूर्णता से है। आद्यान्त प्रकृति में पूर्णता की स्थित तीन ही है। वह गठन, क्रिया और आचरण ही है जो प्रमाण सिद्घ है। पूर्णता-त्रय-सम्पन्नता ही जीवन में पूर्णता है जो प्रमाण सिद्घ है जो सजगता, सतर्कता एवं अमरत्व है। यही समाधान व प्रतिभा का चरमोत्कर्ष है। यही सह-अस्तित्व, समृद्घि, स्वर्ग, मंगल, शुभ है। यही अभ्युदय है, जिसके लिए मानव अनादि काल से तृषित है। इसे सर्व-सुलभ बनाना ही मानवीय शिक्षा एवं व्यवस्था का आद्यान्त कार्यक्रम एवं सफलता है।(अध्याय:6, पेज नंबर:92)
  • सामाजिकता का अनुसरण आचरण तब तक संभव नहीं है जब तक मानवीयतापूर्ण जीवन सर्वसुलभ न हो जाय। ऐसी सर्वसुलभता के लिए शिक्षा और व्यवस्था ही एकमात्र दायी है, जिसके लिये मानव अनादिकाल से प्रयासशील है। प्रत्येक मानव को सतर्कता एवं सजगता से परिपूर्ण होने का अवसर है, जिसको सफल बनाने का दायित्व शिक्षा एवं व्यवस्था का ही है। सफलता और अवसर का स्पष्ट विश्लेषण ही शिक्षा है। प्रत्येक मानव सही करना चाहता है और न्याय पाना चाहता है। साथ ही सत्यवक्ता है। ये तीनों यथार्थ प्रत्येक मानव में जन्म से ही स्पष्ट होते हैं। यही अवसर का तात्पर्य है। इन तीनों के योगफल में भौतिक समृद्घि एवं बौद्घिक समाधान की कामना स्पष्ट है। यह भी एक अवसर है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अवसर का सुलभ हो जाना ही व्यवस्था की गरिमा है। न्याय प्रदान करने की क्षमता एवं सही करने की योग्यता की स्थापना ही शिक्षा की महिमा है।(अध्याय:6, पेज नंबर:93)
  • ‘‘संस्कृति का शुद्ध रूप संस्कार सम्पन्न होने की परम्परा है।’’ यही पूर्ण शिक्षा है। मानव में संस्कार गुणात्मक परिर्वतन क्रिया परम्परा है। गुणात्मक परिर्वतन जागृति अनुक्रमानुगमन या अनुसरण है। मानव की जागृति अमानवीयता से मानवीयता में, मानवीयता से अतिमानवीयता में स्पष्ट है। क्रम ही परम्परा है। (अध्याय:6, पेज नंबर:94)
  • संस्कृति पराम्परागत उद्बोधन, प्रयोजन, प्रोत्साहन, संरक्षण, संवर्धन, परिपालन प्रक्रिया सहित चेतना विकास मूल्य शिक्षा है जो अनुभव प्रमाण परंपरा है। यही शिक्षा सर्वस्व है। संस्कार पूर्वक ही प्रवृत्तियों का उदय होता है। प्रत्येक प्रवृत्ति संवेग के रूप में अवतरित होकर क्रियाशील होती है। यही स्वभाव में गण्य होता है। स्वभाव ‘‘ता-त्रय’’ की सीमा में गण्य होता है। इसलिये‘‘वर्गविहीन मानवीयतापूर्ण समाज में संघर्ष का अत्याभाव होता है।’’ जागृति और संगठनपूर्वक ही समाज-चेतना परंपरा उदय होता है। संगठन के मूल में पूर्णता की धारणा एवं अध्ययन होती है। यही अभयता है।(अध्याय:6, पेज नंबर:95)
  • परम्परा की स्वीकृति ही प्रतिबद्धता है। मानवीयता पूर्ण परंपरा ही सामाजिक एवं स्वस्थ परंपरा होती है। वर्गीय एवं परिवारीय व व्यक्तिवादी परंपरा संघर्ष से मुक्त नहीं है फलत: सामाजिक नहीं है। सामाजिकता सीमा नहीं अपितु अखंडता है। प्रतिबद्धताएं संकल्प पूर्ण प्रवृतियों के रूप में प्रकट होती है जो उनके आहार, विहार, आचरण, व्यवहार, उत्पादन, उपभोग, वितरण और दायित्व, कर्तव्य, निर्वाह के रूप में प्रत्यक्ष होती है। संकल्प में परिवर्तित होना ना होना ही अवधारणा है। ऐसी अवधारणा भास, आभास पूर्वक ही होती है जबकि धारणा संक्रमण ज्ञानपूर्वक स्वीकृति है। जिसे शिक्षा ही स्थापित करती है। प्रथम शिक्षा माता-पिता, द्वितीय शिक्षा परिवार, तृतीय शिक्षा केन्द्र, चतुर्थ शिक्षा व्यवस्था सहज वातावरण है जिसमें प्रचार, प्रदर्शन, प्रकाशन प्रक्रिया भी हैं। यही शिक्षा मानव में अवधारणा स्थापित करती है। फलत: मानव ‘‘ता-त्रय’’ के रूप में अपने आचरण को प्रस्तुत करता है। यही मानवीयता, देव मानवीयता, दिव्य मानवीयता है। (अध्याय:6, पेज नंबर:95-96)
  • अवधारणा ही संस्कार है। संस्कार विहीन मानव नहीं हैं। संस्कार प्रदाता केवल अस्तित्व दर्शन मानवीयता पूर्ण आचरण जीवन ज्ञान को प्रबोधित करने वाली शिक्षा ही है। इस शिक्षा एवं शिक्षण समुच्चय को मानवीयता से परिपूर्ण किया जाना ही अखंडता की स्थापना है। यही क्रम अखंड सामाजिकता की अक्षुण्णता है। यही सर्वमंगल शुभ धर्म की सफलता है। (अध्याय:6, पेज नंबर:96)
  • मानव में वर्गविहीनता न्याय अपेक्षा, सही करने की इच्छा एवं सत्यवक्ता होना जन्म से ही दृष्टव्य है।जन्म के अनन्तर वर्ग जाति, मत, सम्प्रदाय का आरोपण होता है। शुद्घत: प्रत्येक संतान केवल मानव संतान है। इसमें मानव से अतिरिक्त जाति, मत, संप्रदाय, वर्ग, बोध को उनके माता-पिता परिवार तथा प्रतिबद्घ समूह प्रस्थापित करते हैं जो एक पारम्परिक प्रक्रिया है। वह वर्ग सीमा से अधिक नहीं हैं। शैशवावस्था से ही तदाकार वृत्ति होती है। फलत: विभिन्न जाति, मत, सम्प्रदाय, धर्म, वर्ग को स्वीकारता है। उसी सीमा में स्व-अस्तित्व मान्यतावश उस वर्ग के सीमावर्ती कार्यकलाप, आचरण, व्यवहार में प्रवृत्त होने के लिए बाध्य करता है। यह बाध्यताएं तब तक रहेगी जब तक किसी विशेष घटनावश उसमें विशिष्ट परिवर्तन न हो जाये। विशिष्टता का तात्पर्य मानवीयता एवं अतिमानवीयता पूर्ण जीवन में स्थिति को पा लेने से है। ऐसा व्यक्ति जिस परम्परा से उद्गमित हुआ रहता है उसी परम्परा में उसकी विशिष्टता एवं शिष्टता का समावेश करने के लिए प्रयास करता है। पहले से ही वह परम्परा किसी सीमा से सीमित रहने के कारण अनुभवमूलक तत्वों का समावेश करने में असमर्थ होकर उस व्यक्ति या व्यक्तित्व को एक आर्दश के रूप में वह परम्परावादी जनजाति स्वीकारता है। फलत: वह आर्दश एक स्मारक रूप में परिणत हो जाता है। इन तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्ग विहीन परम्परा को वहन करने के लिए मानवीयता के अतिरिक्त कोई भी उपाय सम्पन्न परम्परा समर्थ नहीं हुआ है। 
इस तथ्य से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए जागृत परम्परा और शिक्षा का सुलभ होना आवश्यक है। तभी अखंड सामाजिकता, सह-अस्तित्व सिद्घ होता है। (अध्याय:6, पेज नंबर:96-97)
  • वर्ग चेतना को मानवीय चेतना में परिवर्तित करना मानव कुल के लिए वांछित एवं अभीष्ट है। प्रत्येक स्थिति में मानव संस्कृति एवं सभ्यता की एकात्मकता ही इसका एक मात्र व्यावहारिक रूप है। इसे समृद्घ बनाने योग्य शिक्षा एवं व्यवस्था पद्घति की स्थापना ही मूल प्रक्रिया है, इसकी समानत: सभी व्यवस्था संस्थाओं में अर्थात् राज्यनैतिक एवं धर्मनैतिक में समान रूप हो जाना ही अभ्युदय है। यही व्यावहारिक समाधान का प्रमाण है। अनेक धर्म के स्थान में मानव धर्म का, अनेक जाति के स्थान पर मानव जाति का, अनेक राष्ट्र के स्थान पर अखंड समाज और भूमि का, रहस्यात्मक अनेक ईश्वर के स्थान पर व्यापक सत्ता रूपी ईश्वर का पूर्णतया बोध कराने वाली पद्धति से वर्ग चेतना मानवीय चेतना में परिणित होती है। यही व्यक्ति के जीवन में सार्वभौमिक आचरण, परिवार में सहयोग, समाज में प्रोत्साहन, राष्ट्र में संरक्षण-संवर्धन, अंतर्राष्ट्र में अनुकूल परिस्थितियाँ है। यही सर्वमंगल कार्यक्रम है, यही समृद्धि एवं समाधान है।(अध्याय:6, पेज नंबर:98)
  • ‘‘मानव जीवन में गुणात्मक जागृति के लिए शिक्षा-संस्कार प्रसिद्ध है।’’ गुणात्मक विकास के लिए प्रेरणा प्रदान करने का कार्यक्रम पद्धति, वस्तु, विषय, प्रणाली एवं प्रक्रिया ही मानव जीवन में शिक्षा-संस्कार का प्रत्यक्ष रूप है। यह क्रम से माता-पिता, परिवार, संपर्क, संबंध, शिक्षा मंदिर, शिक्षा संस्थान एवं मानवकृत वातावरण से सम्पन्न होता है। प्रत्येक मानव जन्म से जाति एवं वर्ग विहीन है। शिक्षापूर्वक ही उसमें वर्गीय, जातीय संस्कारों को स्थापित किया जाता है, जो मानवता के लिए वांछित घटना नहीं है। इसका विकल्प अर्थात् मानवीयतापूर्ण संस्कृति एवं सभ्यता का अप्रचुर होना ही ऐसी अवांछित घटना के लिए विवशताएं हैं। इसका निराकरण मानवीयतापूर्ण जीवन चित्रण एवं ऐसी चेतना की परम्परा ही है, जो शुद्घत: मानवीय संस्कृति एवं सभ्यता में विलीन होती है। गुरू मूल्य में लघु मूल्य का विलय होना पाया जाता है। इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक विद्यार्थी में क्रम से शैशव, बाल एवं किशोरावस्था से ही माता-पिता, परिवार, शिक्षा मन्दिर, शिक्षा संस्थान, व्यवस्था-पद्घति, प्रचार, प्रकाशन,प्रदर्शन-समुच्चय द्वारा मानवीयता पूर्ण जीवन एवं जीवन के कार्यक्रम को उद्बोधन-प्रबोधन कराने वाली प्रक्रिया परम्परा ही वर्ग विहीन चेतना को  प्रस्थापित करने का एकमात्र उपाय है। यही मानवीय संस्कृति का मौलिक देय है। संस्कृति एवं सभ्यता से संबद्घ शिक्षा सर्वसुलभ न होने से अखंड सामाजिकता में प्रत्येक व्यक्ति के भागीदार होने की संभावना नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि इसका सर्वसुलभ होना अनिवार्य है। यही शिक्षा-संस्कार की गरिमा, महिमा एवं जीवन में अविभाज्यता है।
शिक्षा में प्रधानत: मानव की परस्परता में निहित स्थापित एवं शिष्ट मूल्य का प्रबोधन है साथ ही वस्तु मूल्यों का शिक्षण भी। स्थापित एवं शिष्ट मूल्य की पूर्ण स्वीकृति एवं अनुभूति ही प्रबुद्घता का प्रत्यक्ष रूप है, जो व्यवहार में प्रमाणित होता है। व्यवहार में केवल स्थापित मूल्य का निर्वाह एवं शिष्ट मूल्य का प्रकटन होता है। यही मानवीय संस्कृति एवं सभ्यता की चरितार्थता है। इसके अभाव की स्थिति में कितने भी विशाल वस्तु मूल्य की उपलब्धि एवं योग्यता का उर्पाजन करने पर भी सामाजिकता की सिद्घि होना संभव नहीं है। मानवीयता की सीमा में ही सामाजिकता सिद्घ होती है। सामाजिकता से ही सुसंस्कृति की अक्षुण्णता होती है। यही सत्यता प्रत्येक मानव को प्रत्येक स्तर एवं स्थिति में अमानवीयता से मानवीयता, मानवीयता से अतिमानवीयता पूर्ण जीवन में प्रबोधन पूर्वक संक्रमित होने के लिए बाध्य की है। यही उदय एवं जागृति का प्रधान लक्षण है। 
    धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा एवं करूणा पूर्ण स्वभाव से अभिभूत होकर व्यवहार में आरूढ़ होने के लिए प्रदान की गई शिक्षा एवं सम्मान, आदर एवं पुरस्कार पूर्वक सम्पन्न की गई प्रक्रिया ही मानव जीवन में उपादेयी सिद्घ हुई है। शिक्षा के माध्यम से ही श्रेष्ठ संस्कारों की स्थापना होती है। न्यायान्याय, धर्माधर्म एवं सत्यासत्य पूर्ण दृष्टियों की सक्रियता पूर्वक सुयोजित पद्घति प्रक्रिया सहित व्यवहार एवं आचरण करने की क्षमता एवं आवश्यकता से अधिक उत्पादन करने योग्य योग्यता को प्रबोधन पूर्वक व्यवहृत करने योग्य स्थिति, परिस्थितियों का निर्माण कर देने पर सर्वश्रेष्ठ संस्कारों की स्थापना  होती है। वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा एवं भ्रम मुक्ति के संर्दभ में किया गया प्रबोधन सर्वोत्तम संस्कारों को स्थापित करता है। मानवीयतापूर्ण व्यवहार एवं कर्माभ्यास पूर्ण उत्पादन शिक्षा-संस्कार से विद्यार्थियों में अभ्युदय अवश्यंभावी होता है। फलत: मूल्य के अनुभव योग्य क्षमता प्रकट होती है। ऐसी संस्कार प्रक्रिया ही मानवीयता को व्यवहार रूप में साकार रूप प्रदान करती है। मूल्य व लक्ष्य तंत्रित राज्यनीति एवं धर्मनीति के प्रबोधन से श्रेष्ठ संस्कार स्थापित होते हैं।  मानवीयतापूर्ण संस्कृति की शिक्षा से ही कृतज्ञता, गौरव, श्रद्घा, प्रेम, विश्वास, वात्सल्य, ममता, सम्मान एवं स्नेहात्मक मूल्यों का अनुभव करने योग्य संस्कारों की स्थापना होती है। मानवीयतापूर्ण संस्कृति के  अनुसरण योग्य सौम्यता, सरलता, पुज्यता, अनन्यता, सौजन्यता, सहजता, आदर, सौहार्द्रता एवं निष्ठात्मक शिष्टता को अभिभूतता पूर्वक अभिव्यक्त करने योग्य संस्कारों की स्थापना होती है। मानवीयतापूर्ण संस्कृति सम्बद्घ शिक्षा ही प्राकृतिक एवं वैकृतिक ऐश्वर्य का सदुपयोग एवं सुरक्षा करने योग्य संस्कारों की स्थापना करती है। यही क्रम से विधि-निषेध एवं व्यवस्था-अव्यवस्था का निर्णय करने योग्य सुसंस्कारों को स्थापित करती है। यही क्रम से मानव की चिर आशा एवं तृषा है। शिक्षा ही मानव में संस्कार परिवर्तन की अतिमहत्वपूर्ण प्रक्रिया एवं कार्यक्रम है। शिक्षा में ही संस्कृति एवं सभ्यता का उद्बोधन-प्रबोधनपूर्वक स्फुरण होता है, जो व्यक्तित्व को प्रकट करता है।(अध्याय:7, पेज नंबर:102-105)
      • दीक्षा संस्कार प्रत्येक मानव के लिए अनिवार्य है। ‘‘मानव धर्मीयता का अनुभव करने के लिए की गई प्रक्रिया, पद्घति एवं प्रणाली ही दीक्षा है।’’ दीक्षा संस्कार गुणात्मक परिवर्तन की ओर सुस्पष्ट दिशा निर्देशन के संदर्भ में ज्ञातव्य है। दिशा जागृति सहज प्रमाणों के क्रम में अग्रिमता को इंगित है। मानव जीवन जागृति क्रम में अमानवीयता से मानवीयता एवं मानवीयता से अतिमानवीयता की ओर है। शिक्षा द्वारा मानवीयता को स्थापित किया जाना, दीक्षा द्वारा अतिमानवीयता की ओर द्दढ़ता एवं गति को प्रस्थापित करना ही इन दोनों संस्कारों की चरितार्थता है, जो सर्व वांछनीय उपलब्धि है। मानवीयतापूर्ण जीवन प्रतिष्ठा के बिना दीक्षा संस्कार सफल नहीं होता है। दीक्षा संस्कार स्वमूल्य और मौलिकता का अनुभव करने के लिए ही दिशादायी प्रक्रिया है। स्वमूल्याँकन मात्र अनुभव है क्योंकि ‘‘मूल्य’’ भी अनुभव प्रमाण ही है। यही अनुभव क्षमता पर मूल्य में निष्णातता है। पूर्णता एवं परिपक्वता की सम्मिलित प्रक्रिया ही निष्णातता है। स्वमूल्यानुभूति योग्य क्षमता हीसर्वोच्च जागृति है। यही क्रम से जीवन मूल्य, मानव मूल्य, स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य, वस्तु मूल्य के वरीयता क्रम को प्रमाणित करता है। अनुभव योग्य क्षमता ही स्वमौलिकता है। अनुभव क्षमता ही क्रम से आचरण, व्यवहार एवं व्यवसाय में प्रकट होती है जिसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि समाधान एवं समृद्घि है। मानव जीवन अनुभवमय है। जागृति के क्रम में यह एक संभावना एवं जागृति पूर्णता में उपलब्धि है। यही विशेषवत्ता जागृत को अजागृत में अवबोधन, प्रबोधन एवं निर्देशनपूर्वक अनुभव योग्य क्षमता, योग्यता पात्रता को प्रस्थापित करने के लिए बाध्य करती है। यही दीक्षा संस्कार की गरिमा है। स्वागत पूर्वक स्वीकार्य योग्य बोध क्रिया ही अवबोधन क्रिया है, जिसकी चरितार्थता अवगत होने से है। आवश्यकता एवं अनिवार्यतापूर्वक स्वीकृति क्रिया से ही अवगत होने का तात्पर्य है। 
      दीक्षा ही व्रत, व्रत ही निष्ठा, निष्ठा ही सकंल्प, संकल्प ही द्दढ़ता, द्दढ़ता ही प्रबुद्धता,  प्रबुद्धता ही श्रद्धा-विश्वास एवं प्रेम, श्रद्धा-विश्वास एवं प्रेम ही अनुभूति तथा अनुभूति ही दीक्षा है। मानव में, से, के लिए व्रत अवधारणा है जो सत्यवक्ता, इन्द्रिय संयमता, विचार संयमता, अस्तेय, अपरिग्रह, निरपराधिता, ब्रह्मचर्य (संज्ञानीयता में संवेदनायें नियंत्रित रहना), विवेकशीलता एवं गुणात्मक परिवर्तन- शीलता है, जिनका प्रत्यक्ष रूप धीरता-वीरता-उदारता एवं दया, कृपा, करूणा की अभिव्यक्ति ही है। व्रत का तात्पर्य गुणात्मक परिवर्तन की दिशा में आचरण की निरंतरता से है। गुणात्मक परिवर्तन की अपरिहार्यता जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति में पायी जाती है, जो वास्तविकताओं पर आधारित यथार्थता है। मूल्यमात्र ही अनुभूति तथ्य है। जीवन मूल्यमय है। इसकी अनुभूति ही आत्मानुभूति है। मूल्यमयता की अनुभूति ही तन्मयता है। मूल्यमयता ही मूल्यों में तादात्मय है। यही समग्रता के प्रति सौजन्यता है, स्नेह निष्ठा व विश्वास जैसी मूल्य प्रदायी क्षमता है। स्थापित मूल्य अपरिवर्तनीय है। इनकी अनुभूति ही स्वयं शिष्टता को अभिव्यक्त करती है क्योंकि प्रत्येक स्थापित मूल्य प्रत्येक देश काल में एक सा स्थित पाया जाता है। स्थापित  मूल्यानुभूति में, से, के लिए अनुगमन एवं अनुशीलन योग्य प्रेरणा, परम्परा, प्रक्रिया ही दीक्षा का आद्यान्त प्रमाण है। यह संस्कार मानवीयता पूर्ण जीवन के स्वभावगत होने के अनन्तर सफल होने वाला सहज सुलभ संस्कार है। यही चिन्तनाभ्यास की अर्हता है। सत्ता में अनुभूति ही चिन्तनाभ्यास का चरम लक्ष्य है। जीवन का लक्ष्य ही आचरण पूर्णता है, जिसका प्रत्यक्ष स्वरूप ही सजगता है। आचरण ही मानव को व्यक्त करता है। दया, कृपा, करूणा से परिपूर्ण होना ही चिन्तनाभ्यास का प्रयत्क्ष प्रमाण है। यही दीक्षा का देय है। धीरता, वीरता, उदारता ही सामाजिकता की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है जो शिक्षा का देय है। दया, कृपा, करूणापूर्ण स्वभाव में अनुगमन होना ही दिव्य मानवीयता में संक्रमण है। यह अनुगमन प्रक्रिया ही चिन्तनाभ्यास है। दिव्य मानवीयता में अनुगमन सिद्धि ही प्रत्यावर्तन है। यही मध्यस्थ जीवन है। प्रत्यावर्तित जीवन आत्मानुशासित होता है। आत्मा मध्यस्थ क्रिया है इसलिए मध्यस्थ जीवन स्थापित सुलभ संभावना के रूप में है। मध्यस्थ जीवन ही चरमोत्कृष्ट विकास है। पूर्ण विकास के लिए ही दीक्षा संस्कार एवं योगाभ्यास है। विकास की क्रमिकता इसी को स्पष्ट करती है। मानव प्रकृति का अभीष्ट सत्ता में अनुभूति है। जागृति में पूर्णता को स्थापित करना ही दीक्षा संस्कार का आद्यान्त उपलब्धि है। पूर्ण जागृत इकाई ही जनजाति में अग्रिम जागृति के लिए गति प्रदायी क्षमता स्थापित करने के लिए समर्थ है साथ ही समुचित शिक्षा प्रणाली, पद्घति एवं नीति को प्रस्थापित करने के लिए अर्ह होता है। इस तथ्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्ण जागृत मानव ही लोक के लिए अत्यन्त उपयोगी व उपादेयी सिद्ध होता है। ऐसी इकाईयों की संख्या वृद्धि ही लोक मंगल का आधार है। (अध्याय:7, पेज नंबर:106-109)
      • अखंड सामाजिकता के लिए चेतना विकास मूल्य शिक्षा अनिवार्य है (अध्याय 8) (113-121) (शिक्षा के लिए कृपया पूरा अध्याय देखें यहाँ इस अध्याय के कुछ अंश ही लिए गए हैं) ⇩
      • अखण्ड समाज-परम्परा में ही प्रतिभा एवं व्यक्तित्व का संतुलन, उदय एवं उसकी अक्षुण्णता रहती है। यही भौतिक समृद्धि एवं बौद्धिक समाधान है। यही मध्यस्थ जीवन का प्रत्यक्ष रूप है। मध्यस्थ जीवन का तात्पर्य न्याय-प्रदायी क्षमता, सही करने की परिपूर्ण योग्यता सत्य बोध सम्पन्न रहने से है। न्याय ही व्यवहार में तथा नियम ही व्यवसाय में मध्यस्थता सत्य अनुभव को सिद्ध करता है। मूल्य-त्रयानुभूति योग्य क्षमता, योग्यता, पात्रता इसका प्रमाण है। यही शिक्षा एवं दश सोपानीय व्यवस्था सहज महिमा है। शिक्षा एवं व्यवस्था ही मूल्यानुभूति एवं मूल्यवहन योग्य क्षमता को प्रदान करती है। यही वर्गविहीनता का एकमात्र आधार एवं उपलब्धि है। वर्गवादी शिक्षा एवं व्यवस्था सामाजिकता को प्रदान करने में समर्थ नहीं है। फलत: निर्विषमता, निर्भमता, अभयता एवं समृद्धि की उपलब्धि नहीं है। मानव का अध्ययन जब तक पूर्ण नहीं होगा तब तक भ्रम है। भ्रम ही अपूर्णता है। अपूर्णता ही प्रकारान्तर से वर्ग भावना को जन्माती है। अपूर्णता के बिना वर्ग भावना का प्रसव नहीं है। निर्विषमतापूर्वक ही मानव में अखण्डता, सामाजिकता, समाधान एवं समृद्धि का अनुभव होता है। निर्भमता ही निर्विषमता है। यही सार्वभौमिकता है। मूल्य-त्रयानुभूति ही निर्भमता का प्रमाण है। मूल्य मात्र सर्वदेशीय एवं सर्वकालीय होने के कारण सार्वभौमिक है। सार्वभौमिकता ही निर्विषमता है। सामाजिक मूल्यों का शिष्ट मूल्यों सहित निर्वाह ही न्यायपूर्ण जीवन है। स्थापित मूल्य एवं शिष्ट मूल्य का योगफल ही सामाजिकता है। वस्तु मूल्य ही समृद्धि है।(अध्याय:8, पेज नंबर:114) 
      • नैतिकतापूर्ण जीवन की अपेक्षा मानव की परस्परता में दृष्टव्य है। यही प्रत्येक स्तर एवं स्थिति में भी पाया जाने वाला तथ्य है। धर्मनीति एवं राज्यनीति ही सम्पूर्ण नीति है। अर्थ ही उनका आधार है। इन नीति-द्वय का विधिवत् पालन ही नैतिकता है। प्रत्येक मानव नैतिकता से सम्पन्न होना चाहता है। प्रत्येक संस्था प्रत्येक मानव को नैतिकता से परिपूर्ण बनाना चाहता है। धर्म नैतिक एवं राज्यनैतिक संस्थाओं द्वारा मानव को नैतिकता से परिपूर्ण करने का संकल्प किया जाना प्रसिद्घ है। भौतिकवादी व्यवस्था पद्घति में संदिग्धता है। शिक्षा में अपूर्णता का तात्पर्य पर्याप्त वस्तु-विषय, समुचित नीति, पद्धति तथा उसकी सर्वसुलभता न होने से है। शिक्षा प्रणाली पद्धति का पूर्ण होना अनिवार्य है। जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति के पूर्ण विश्लेषण संपन्न वस्तु-विषय का समावेश हुए बिना शिक्षा प्रणाली में पूर्णता संभव नहीं है। प्रधानत: सह-अस्तित्व रूपी अस्तित्व और चैतन्य प्रकृति के अध्ययन की अपूर्णता ही मानव को सभ्रम बनाने का कारण है। भ्रमता सामाजिकता नहीं है। मानव का अतिमहत्वपूर्ण रूप चैतन्य क्रिया ही है। चैतन्यता का तात्पर्य आशा, विचार, इच्छा, संकल्प एवं अनुभूति सहज प्रमाण से है। यह परमाणु की गठनपूर्णता के अनन्तर गुणात्मक परिवर्तन पूर्वक प्रकट होने वाली क्रिया एवं तथ्य है। रासायनिक क्रिया की सीमा में आशा, विचार, इच्छा, संकल्प एवं अनुभूति का प्रकट न होना पाया जाता है। चैतन्य परमाणु में ही इन तथ्यों का उद्घाटन होना प्रमाणित है। प्रकृति में ही विकास क्रम, ज्ञानावस्था में निर्भम जागृत मानव द्वारा दृष्टव्य है। अधिक विकसित, कम विकसित का दृष्टा है। विकासशीलता प्रकृति का कार्य सीमा है। विकासशीलता के लिए प्रकृति के अतिरिक्त और कोई वस्तु या तत्व नहीं है। सत्तामयता में तरंग या गति सिद्ध नहीं होता है। सत्ता में प्रकृति के अतिरिक्त और कोई अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। इन प्रमाणों से प्रकृति की विकासशीलता के प्रति भ्रम निवारण होना पाया जाता है। सत्ता, स्वयं में पूर्ण रहना प्रमाण सिद्ध है। इसी सत्यता से स्पष्ट होता है  कि ‘‘पूर्ण’’ सत्ता परिणामशील नहीं है, नित्य वर्तमान है।(अध्याय:8, पेज नंबर:115)
      • मानव जीवन का विधिवत् कार्यक्रम धर्मनीति, अर्थनीति एवं राज्यनीतिक रूप में स्पष्ट है। मानव का ऐसा कोई विधिवत् कार्यक्रम नहीं है जो इन तीनों से सम्बद्ध न हो। नीति, पद्घति एवं प्रणाली का संयुक्त रूप ही व्यवस्था है। व्यवस्था विहीन जीवन वांछित को पाने में असमर्थ रहेगा। व्यवस्था विहीनता अथवा व्यवस्था में अपूर्णता जीवन की पूर्णता के अर्थ में प्रयोजित नहीं होती है। यही प्रत्येक जीवन में अपूर्णता है। जीवन में अपूर्णता ही जीवन के कार्यक्रम में अपूर्णता है। जीवन के कार्यक्रम में अपूर्णता ही भ्रम एवं समस्या है। भ्रम एवं समस्या ही व्यवस्था में अपूर्णता है। व्यवस्था को मानव ही अनुभव एवं व्यवहारपूर्वक प्रमाणित करता है।  फलत: उसे सर्वसुलभ बनाने के लिए प्रस्थापना, स्थापना एवं संचालन करता है जो चरितार्थता का स्पष्ट रूप है। प्रत्येक मानव नियति-क्रम व्यवस्था का अनुभव करने के लिए अवसर रहते हुए योग्यता, पात्रता न होने के कारण शिक्षा एवं व्यवस्था में समर्पित होता है या ऐसे अधिकार सम्पन्न अधिकारी होने के लिए समर्पित होते है। हर मानव संतान शिक्षा-संस्कार पूर्वक ही प्रबुद्घ होने की व्यवस्था है। यह नियति है। क्योंकि मानव ज्ञानावस्था की इकाई है। ज्ञान परम्परा से ही सर्वसुलभ होता है। किसी मानव को ज्ञान की तृषा हो वह तृषा परम्परा में सुलभ न हो, ऐसे स्थिति में कोई मानव संतान ही उसकी भरपाई करता हुआ घटना विधि से स्पष्ट हुआ है। इसी क्रम में अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन बनाम मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) मानवीय शिक्षा-दीक्षा व्यवस्था परम्परा में समावेश होने अर्पित है।  शिक्षा एवं व्यवस्था केवल प्रबुद्धता की प्रबोधन एवं संरक्षण प्रक्रिया है। यह विभूति मूलत: किसी मानव की ही अनुभूति है। अनुभूति ही वरीय प्रमाण है। ऐसी शिक्षा एवं व्यवस्था संहिता मानव के समग्र जीवन के प्रति अनुभवपूत होते तक उनमें परिवर्तन, परिमार्जन के लिए समुचित प्रक्रिया है। साथ ही वह दायी एवं उत्तरदायी भी है। ऐसी पूर्णता का प्रमाण अखण्ड समाज है जिसके लिए धार्मिक, आर्थिक एवं राज्यनैतिक एकरूपता पूर्वक दश सोपनीय व्यवस्था में एकात्मकता को प्रदान करने योग्य सक्षम दर्शन संहिता ही आधार है। यही प्रत्येक मानव में मन-तन-धनात्मक अर्थ की सर्ववांछित सुरक्षा एवं सदुपयोगात्मक क्षमता को प्रादुर्भावित करता है। साथ ही सर्वसुलभता भी करता है। फलत: अखण्ड समाज की सिद्घि होती है।(अध्याय:8, पेज नंबर:116-117)
      • मानव में ज्ञान शक्ति की अर्थात् आशा, विचार, इच्छा एवं संकल्प अनुभव प्रमाण शक्ति ही धीरता, वीरता एवं उदारता तथा दया, कृपा एवं करुणा है। विषम जीवन जीव चेतनावश पराभवित, जागृत मानव जीवन समाधानित एवं मध्यस्थ जीवन सफलता से परिपूर्ण सिद्घ होता है। मानव मध्यस्थ जीवन के लिए ही प्रमाण होना जागृति है। असफलता मानव की वांछित घटना या उपलब्धि नहीं है। सफलता ही मानव की चिर तृषा, वाँछा, आकाँक्षा, इच्छा एवं संकल्प है। सफलता के बिना मानव जीवन अपूर्णता को स्पष्ट करता है। अपूर्णता ही पूर्णता के लिए बाध्यता है। अंतरंग शक्तियाँ अर्थात् आशा, विचार, इच्छा एवं संकल्प तथा चतुरायाम की परस्परता में और बहिरंग अर्थात् पाँचों स्थितियों की परस्परता में विषमता ही अंतबहिर्विरोध है। यही असामाजिकता, अमानवीयता, वर्ग एवं संकीर्ण सीमान्वर्ती संगठन का, समता ही सामाजिकता अर्थात् वर्ग विहीनता का एवं मध्यस्थ कार्यक्रम में स्वतंत्रता का अनुभव प्रमाण सिद्घ है। दिव्य मानव में ही धार्मिक, आर्थिक एवं राज्यनीतियाँ स्वतंत्रतापूर्वक चरितार्थ होती हैं। वे देव मानव में संयमतापूर्वक सफल होती हैं। मानवीयतापूर्ण मानव में समाधानपूर्वक सफल एवं चरितार्थ होती हैं। यह मानवीयतापूर्ण शिक्षा एवं व्यवस्था पद्घति से सर्वसुलभ एवं चरितार्थ होती है। अन्यथा असफल होती है।(अध्याय:8, पेज नंबर:117-118)
      • अन्तर्विरोध विहीनता ही मध्यस्थता है। यही संतुलन, समाधान, प्रत्यावर्तन, सतर्कता, सजगता एवं स्वतंत्रता है। अंतर्विरोध परस्पर मन-वृत्ति-चित्त-बुद्घि, चतुरायाम में तथा दश सोपानीय परिवार सभा व्यवस्था में विश्लेषित है। यही गुणात्मक परिवर्तन के लिए बाध्यता है। मानव के अंतर्विरोध से मुक्त होने का आद्यान्त लक्षण, उपाय एवं उपलब्धि ही है। साथ ही मानव अंतर्विरोध में, से, के लिए प्रयासी नहीं है। संपूर्ण प्रयास विरोध के मुक्ति के अर्थ में ही है। अंतर्विरोध का विरोध प्रत्येक व्यक्ति में दृष्टव्य है। यही सत्यता विरोध का विरोध करती है। विरोध, विजय, सफलता एवं चरितार्थता विकास क्रम में गण्य है। विकास-क्रम में अवरोधता ही विरोध, विकास की ओर गतिशीलता ही विजय, क्रियापूर्णता ही सफलता तथा आचरण पूर्णता ही जीवन चरितार्थता है। विकासक्रम शाश्वत है। विकास में बाधा ही द्रोह भ्रमवश उसके निराकरण हेतु की गई प्रक्रिया ही विद्रोह है। द्रोह का विद्रोह भावी है। प्रिय-हित-लाभ-सीमान्वर्ती दृष्टि से किया गया निर्णय एवं क्रियाकलाप अंतर्विरोध से मुक्त नहीं है। इन सबका न्याय सम्मत होना ही अंतर्विरोध से मुक्ति है। न्याय सम्मति तब तक संभव नहीं है जब तक स्थापित मूल्यानुभूति एवं उसका निर्वहन न हो जाय। न्याय ही व्यवहार में मध्यस्थता है। मध्यस्थता ही सम और विषम अर्थात् समातिरेक और विषमातिरेक को संतुलित एवं आत्मसात् करता है। सम-विषम दोनों मध्यस्थता में आश्रित एवं संरक्षित हैं। यही सत्यता मध्यस्थता एवं मध्यस्थ जीवन की प्रतिष्ठा, महत्ता एवं अपरिहार्यता को स्पष्ट करता है। व्यवहार में मध्यस्थता ही बहिर्विरोध अर्थात् पाँचों स्थितियों के विरोध का शमन करता है। विचार में मध्यस्थता चारों आयामों के अंतर्विरोध का उन्मूलन करती है। अनुभव में मध्यस्थता परमानन्द को उद्गमित करती है। चैतन्य प्रकृति का मानवीयतापूर्ण मानव एवंसर्वोच्च विकसित निर्भम मानव ही अतंर्विरोध से मुक्त होता है। यही जागृति-क्रम की उपलब्धि एवं गरिमा है। विरोध विहीनता ही मानव का अभीष्ट है। विरोध-विहीन क्षमता ही कृतज्ञता, गौरव, श्रद्घा, प्रेम, विश्वास, वात्सल्य, ममता, सम्मान एवं स्नेह जैसे स्थापित मूल्यों का अनुभव करता हैं। फलत: सौम्यता, सरलता, पुज्यता, अनन्यता, सौजन्यता, सहजता, आदर, सौहर्द्रता एवं निष्ठा जैसे मूल्यों को मानव अभिव्यक्त करता है। यही विश्वास का परिचय है। ऐसे विश्वास को सर्वसुलभ बनाना ही शिक्षा एवं व्यवस्था का आद्यान्त कार्यक्रम है। (अध्याय:8, पेज नंबर:118-119)
      • “मानव के सम्पूर्ण संबंध गुणात्मक परिवर्तन के लिए सहायक हैं|” प्रत्येक मानव, मानव से न्याय की याचना करता ही है। यही गुणात्मक परिवर्तन की तृषा एवं उसका द्योतक है। गुणात्मक परिवर्तन ही जागृति है। जागृति स्वंय में संतुलन, समाधान एवं नियंत्रण है, जो जीवन का अभीष्ट है। जागृति क्रम में प्रत्येक मानव सुख सहज अपेक्षा प्रमाणित करता है। इसके मूल में सत्यता यही है कि प्रत्येक मानव अधिकाधिक विकास की ओर प्रगतित होना ही है। यह साम्य आकाँक्षा भी है। साथ ही मानव, मानव के साथ व्यवहार करने के लिए बाध्य है। व्यवहार विहीन स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन की संभावना नहीं है। मानव में स्थापित मूल्यानुभूति पूर्वक ही गुणात्मक परिवर्तन होता है। इससे यह स्पष्ट हो पाता है कि प्रत्येक संबंध में निहित मूल्य निर्वाह ही जागृति का तथा उसकी उपेक्षा ही ह्रास का प्रधान कारण है। प्रत्येक संबंध में परस्पर न्याय की उपलब्धि ही गुणात्मक परिवर्तन का आधार, प्रक्रिया एवं गति है। संघर्ष जनाकाँक्षा एवं उपलब्धि के मध्य में पायी जाने वाली रिक्तता ही है। इस रिक्तता को भली प्रकार से अरिक्तता में परिवर्तित करने का उपाय केवल मानवीयतापूर्ण शिक्षा एवं व्यवस्था पद्घति है। सार्थक चरितार्थ वर्तमान होता है। ऐसी व्यवस्था से ही प्रत्येक संबंध में न्याय प्रदायी एवं ग्राही क्षमता का प्रमाण होता है। फलत: सर्वमंगल एवं नित्य शुभोदय होता है। (अध्याय:8, पेज नंबर:119-120)
      • ....अमानवीय मानव कितना भी रूपवान, बलवान, धनवान एवं पदवान हो जाय, वह अजागृत के जागृति के लिए सहयोगी नहीं हो पाता है। इसके विपरीत में मानवीयता एवं अतिमानवीयता पूर्ण मानव कितना भी न्यूनतम रूप, बल, धन एवं पद से सम्पन्न क्यों न हो उनका अजागृत के जागृति में सहायक होना पाया जाता है। जैसे अत्यन्त कुरूप मानव भी जब व्यक्तित्व एवं प्रतिभा से सम्पन्न होता है तब उनसे अधिकाधिक रूपवान, बलवान, धनवान एवं पदवान को शिक्षा एवं उपदेश मिलता है। उसे वे ग्रहण करते हुए देखे जाते हैं। इस प्रमाण से यह सिद्घ हो जाता है कि बुद्घि अन्य चारों अर्थात् रूप, बल, धन एवं पद से वरीय है।(अध्याय:8, पेज नंबर:121)
      • निपुणता एवं कुशलता के संयुक्त योगफल में उपयोगिता एवं कला मूल्य सिद्घ होते हैं। निपुणता, कुशलता एवं पांडित्य की संयुक्त चरितार्थता में भौतिक समृद्घि एवं बौद्घिक समाधान सर्वसुलभ है। यही मानव इतिहास की स्थापना एवं अक्षुण्णता है। निपुणता एवं कुशलता ही तकनीकी शिक्षा के रूप में उपलब्ध है। संपूर्ण तकनीकी शिक्षा मानव के आकाँक्षाद्वय संबंधी उपयोगिता को प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन स्थापित करने के लिए सहज-सुलभ उपाय, क्रिया, प्रक्रिया, पद्घति एवं प्रणाली है जिसे मानव करतलगत करता है। इसकी आद्यांत उपलब्धि अर्थात् तकनीकी शिक्षा की उपलब्धि उपयोगिता एवं कला ही है। मानव शुद्घत: संवेदनशील होते हुए भी यांत्रिक साधनों से संम्पन्न होना चाहता है। संवेदनशीलता में गुणात्मक परिवर्तन की क्रम श्रृखंला में यांत्रिक तत्व साधन सिद्घ होते हैं। इसी सत्यतावश संवेदनशीलता एवं यांत्रिकता के संदर्भ में मानव अध्ययन करने के लिए बाध्य है। अध्ययन पूर्वक शोध तब तक भावी है जब तक अज्ञात एवं अप्राप्ति स्थिति रहती है। यांत्रिकता का अध्ययन निपुणता एवं कुशलता में सीमित है जबकि संवेदनशीलता सहित संज्ञानशीलता के अर्थ में अध्ययन पांडित्य, कुशलता एवं निपुणता-समुच्चय ‘‘में, से, के लिये’’ है। संज्ञानीयतापूर्ण संवेनदशीलता का उद्गमन अनुभव ‘‘में, से, के लिये’’ है। सुख मानव धर्म ‘‘में, से, के लिये’’ है। मूल्य सुख ‘‘में, से, के लिये’’ है। मानव धर्म मानवीय परंपरा में, से, के लिए है। मानवीय परम्परा क्रियापूर्णता एवं आचरणपूर्णता ‘‘में, से, के लिए’’ है। पूर्णता, पूर्णता की निरंतरता ‘‘में, से, के लिए’’ है। ‘‘पूर्णता-त्रय’’ की निरंतरता ही जागृति का वैभव है। सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति का वैभव सह-अस्तित्व का प्रत्यक्ष रूप में स्पष्ट होता है। प्रकृति का वैभव संवेदनशीलता के उत्कर्ष, परमोत्कर्ष सम्पन्नता से पूर्ण होता है। संवेदनशीलता का गुणात्मक परिवर्तन ही उसका उत्कर्ष है। संचेतनशीलता की चरमोत्कृष्ट उपलब्धि अनुभूति है या उसका प्रयोजन केवल अनुभवमयता है। अनुभवमयता ही तन्मयता है। उसकी विशालता यही है। यही सतर्कता एवं सजगता से संपन्न होती है। पूर्णानुभूति ही पूर्ण विशालता है। यही परमानन्द है, जिसके लिए ज्ञानावस्था की प्रत्येक इकाई प्यासी है। यही जीवन की अक्षुण्णता है। ऐसे जीवन के लिए अनादि काल से प्रयास हुआ है। इसकी सफलता मानव की मानवीयता से परिपूर्ण होने से है। इसका साक्ष्य व्यवहार में व्यक्तित्व एवं प्रतिभा के संतुलित उदय से है। यह उदय शिक्षा एवं व्यवस्था से संपन्न होता है।(अध्याय:9, पेज नंबर:126-127) 
      • प्रत्येक व्यक्ति धर्मीयता को प्रसारित, प्रमाणित करने के लिए इच्छुक है। धर्मीयता विहीन इकाई नहीं है। हर व्यक्ति ही मानव परम्परा में आचरण के लिए शिक्षा है। प्रत्येक मानव का आचरण दूसरे के ज्ञातव्य में आता है। प्रत्येक मानव वातावरणस्थ क्रियाओं के संकेत को किसी न किसी अंश में ग्रहण करने योग्य क्षमता से सम्पन्न है। शिक्षा परम्परा ही प्रधानत: संस्कृति का प्रथम सोपान है। यही न्यायपूर्ण व्यवहार, संयत आचरण एवं नियम-पूर्ण उत्पादन के लिए समुचित प्रोत्साहन, प्रेरणा, मार्गदर्शन, सहयोग एवं सहानुभूतिपूर्ण कार्यक्रम को वहन पूर्वक अर्थात् निर्वाह पूर्वक स्पष्ट करती है। यही संस्कृति पूर्ण सभ्यता का अर्थ है। इसी से धीरता, वीरता एवं उदारता पूर्ण व्यवहार का प्रसव होता है। यही सामाजिक अभयता एवं अखण्डता का द्योतक है। यही सभ्यता है। सभ्यता के संरक्षण के लिए ही विधि व व्यवस्था का प्रभावशीलन है। यही ऐतिहासिक परम्परा सहज सूत्र है। यही जागृत जीवन परम्परा है। ऐसी ऐतिहासिक जीवन परंपरा में अपूर्णता की पूर्णता भावी है। यही ऐतिहासिकता की गरिमा है। (अध्याय:9, पेज नंबर:128)
      • ‘‘पांडित्य ही जीवन मूल्य, मानव मूल्य, स्थापित मूल्य की अनुभूति एवं शिष्ट मूल्य की अभिव्यक्ति है।’’ प्रत्येक जागृत मानव जीवन सफलता सहज कामना से ओत-प्रोत है। प्रधानतया सफलता अनुभूति एवं शिष्टता ही है। यह अनुभव एवं व्यवहार सिद्घ प्रमाण है। अनुभूति विहीनता पूर्वक शिष्टता सहित जीवन सफलता का प्रमाण नहीं है। अनुभवशील या अनुभव पूर्ण हो, शिष्ट न हो इसका भी प्रमाण नहीं है। शिष्ट न होने में अनुभव का न होना ही है। साथ ही अनुभव का न होना ही शिष्ट न होना है। इसका निराकरण मानव धर्म से परिपूर्ण होना ही है, इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। मानव धर्म के अतिरिक्त सामाजिक अखण्डता का प्रमाण नहीं है। इसे स्थापित एवं संरक्षित करना ही शिक्षा की गरिमा, प्रबुद्घता की महिमा, व्यवस्था में पारंगतता, जीवन में सार्थकता, भौमिक स्वर्गीयता, मानव में दैवीयता एवं दिव्यता, नित्य मंगलमयता एवं धर्ममय सफलता है। यही मानवीयता पूर्ण ‘‘नीति-त्रय’’ का विस्तार है।....(अध्याय:9, पेज नंबर:129)
      • समाधान समृद्घि, अनुभव एवं व्यवहार अर्थ के सदुपयोग एवं सुरक्षा पर आधारित है। अनुभव एवं समाधान पूर्ण होना ही शिक्षा एवं व्यवस्था-संहिता है। इन आधारों का अनुभव एवं समाधान ही शिक्षा व व्यवस्था का आद्यान्त लक्ष्य एवं कार्यक्रम के लिए आधार है। ये जब तक परिपूर्ण नहीं होते तब तक इनका सर्वसुलभ होना संभव नहीं है। समाधान एवं अनुभूति की सर्वसुलभता के बिना सामाजिकता एवं उसकी अक्षुण्णता सिद्घ नहीं होती। इसके लिए संपूर्ण शिक्षा एवं व्यवस्था संहिता को मानवीयता की सीमा में परिवर्तित कर लेना ही एकमात्र उपाय है। जब तक व्यवहारिक संरक्षण नहीं, साथ ही शिक्षा भी सर्व-सुलभ नहीं होती तब तक व्यक्तित्व एवं प्रतिभा के संतुलन, संस्कृति एवं सभ्यता के संतुलन, विधि एवं व्यवस्था के संतुलन की अपेक्षा एक दुरुहता ही है। ‘‘दुरुहता ही रहस्य है।’’ रहस्य एक अनिश्चयता, सशंकता या भ्रम है। दुरुहता की स्थिति मानव के लिए गति एवं दिशा-निर्देशन पूर्वक गुणात्मक परिवर्तन के लिए उपकारी सिद्घ नहीं हुई है। जबकि मानव-जीवन में गुणात्मक परिवर्तन हेतु निश्चित दिशा एवं गति को प्रदान करना ही शिक्षा नीति-पद्घति-प्रणाली का एकमात्र उद्देश्य है, जिसमें ही उत्पादन-क्षमता का निर्माण करने वाले समर्थ तत्वों का समाया रहना आवश्यक है। समर्थ शिक्षा ही गन्तव्य के लिए गति एवं विश्राम के लिए दिशा को अध्ययन पूर्वक स्पष्ट करती है। यही शिक्षा की गरिमा है। उसी से मानव में प्रगति एवं विकास है। यही एक अभ्युदय का प्रधान लक्षण है। शिक्षा एवं व्यवस्था का संकल्प ही अभ्युदय है। अभ्युदय विहीन जीवन ही समस्या से ग्रस्त पाया जाता है। जीवन के कार्यक्रम का आधार ही अध्ययन है। अध्ययन, श्रवण, मनन, निदिध्यासन की संयुक्त प्रक्रिया है। निश्चित अवधारणा की स्थापन प्रक्रिया ही निदिध्यासन है। अवधारणा ही अनुमान की पराकाष्ठा एवं अनुभव के लिए उन्मुखता है। अवधारणा के अनन्तर ही अनुभव होता है। अनुभव एवं समाधान दोनों के ही न होने की स्थिति में अध्ययन नहीं है। वह केवल निराधार कल्पना है। जो अध्ययन नहीं है वह सब मानवीयता को प्रकट करने में समर्थ नहीं है। इसी सत्यतावश मानव समाधान एवं अनुभूति योग्य अध्ययन से परिपूर्ण होने के लिए बाध्य हुआ है। यह बाध्यता मानवीयता पूर्ण पद्धति से सफल अन्यथा असफल है। (अध्याय:9, पेज नंबर:132-133)
      • ‘‘विधि पालन कामना मानव में पायी जाती है।’’ कामना को इच्छा में, इच्छा को तीव्र इच्छा में, तीव्र इच्छा को संकल्प में, संकल्प को संभावना में, संभावना को सुगमता में, सुगमता को उपलब्धि में, उपलब्धि को अधिकार में, अधिकार को स्वतंत्रता में, स्वतंत्रता को स्वत्व में, स्वत्व को व्यवहार एवं उत्पादन में चरितार्थ करना ही शिक्षा एवं व्यवस्था का आद्यान्त कार्यक्रम एवं उपलब्धि है। यही विधि पालन क्षमता को स्थापित करने का प्रधान लक्षण है। व्यक्ति में जागृति सहज स्वतंत्रता ही विधि पालन क्षमता का द्योतक है। विधि-पालन के बिना व्यक्ति में संयमता सिद्ध नहीं होती है। विधि पालन के बिना जागृति प्रमाणित नहीं है। जागृति के बिना स्वतंत्रता का अर्थ नहीं है। शिक्षा में पूर्णता ही मानव में आवश्यकीय जागृति के लिए प्रेरणा एवं दिशादायी तत्व है। ऐसी उपलब्धि के लिए मानव अनवरत तृषित है। शुभकामनाओं को चरितार्थ करने के लिए शिक्षा, दीक्षा एवं वातावरण ही प्रधानत: आधार एवं दायी है। इन्हीं से मानव में गुणात्मक परिवर्तन होना वांछित उपलब्धि है। यही जीवन दर्शनकारी कार्यक्रम है। शिक्षा-दीक्षा एवं कृत्रिम वातावरण भी संस्कारदायी है। कृत्रिम वातारण एवं शिक्षा ही मानव के उत्थान एवं पतन का प्रधान सहायक तत्व हैं। प्रत्येक व्यक्ति व्यवस्था से संबद्घ है ही। व्यवस्था-विहीन जीवन नहीं है। कृत्रिम वातावरण आकाँक्षाद्वय संबंधी साधनों सहित सकारात्मक प्रचार-प्रदर्शन-प्रकाशन के रूप में दृष्टव्य है। आशित, अनिवार्यता, उपयोगिता एवं सुन्दरता का प्रत्यक्षीकरण पूर्वक जनजाति में बोधगम्य हृदयंगम सहित प्रोत्साहित करना ही कृत्रिम वातावरण का कार्यक्रम है। यह मानव से ही नियति के अनुसार निर्मित होता है। कृतिपूर्वक मूल्य त्रयानुभूति में निष्ठा का निर्माण करना ही कृत्रिमता की चरितार्थता है, जिसमें आकाँक्षाद्वय सीमानुवर्ती उत्पादन योग्य योग्यता को, मानवीयतापूर्ण व्यवहार एवं आचरण योग्य क्षमता को स्थापित करने में कृत्रिम वातावरण सफल अन्यथा असफल सिद्घ हुआ है। उत्पादन में अप्रवृत्ति एवं व्यवहार में दायित्व वहन में विमुखता एवं अतिभोग में तीव्र इच्छा ही लोक वंचना, प्रवंचना एवं द्रोह का प्रधान कारण है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव में साम्यत: पायी जाने वाली इच्छाओं को चरितार्थ करने के लिए मानवीयतापूर्ण संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था ही एक मात्र उपाय है। (अध्याय:10, पेज नंबर:135-136)
      • ‘‘विधि-विहित जीवन ही पाँचों स्थितियों एवं दश सोपानीय परिवार सभा व्यवस्था में सफल है।’’ शिष्ट मूल्य और मूल्यवत्ता का संयुक्त स्वरूप ही विधि है। मानव में अनुभव एवं समाधान का संयुक्त स्वरूप ही मूल्य व शिष्ट मूल्यवत्ता है। अनुभव एवं समाधान और न्याय का परावर्तन ही व्यवहार, व्यवस्था एवं उत्पादन का प्रमाण है। मानवीयता ‘‘नियम-त्रय’’ पूर्वक ‘‘कार्यक्रम-त्रय’’ सहित नवधा स्थापित मूल्य, नवधा शिष्ट मूल्य एवं द्विधा वस्तु मूल्य में किया गया विनियोग ही विधि है। विनियोग का तात्पर्य ही प्रयोग, व्यवहार एवं अनुभव सुलभ हो जाने से है। यह ‘‘सुलभ-त्रय’’ शिक्षा एवं व्यवस्था से होता है। यही विशिष्टता है। विशिष्टता ही शिक्षा एवं दीक्षा द्वारा प्रभावशील होता है। यही अनुभव परम्परा को स्थापित करता है। यही अनुभव प्रमाण को सिद्घ करता है। ऐसी प्रभावशीलन प्रक्रिया ही अभ्युदय है। ऐसी प्रभावशीलन प्रक्रिया ही अभ्युदय है। जागृति, समाधान, अनुभव, अभय, अखंडता, समाज, राज्य, असंदिग्धता, सुरक्षा, सदुपयोग एवं समृद्घि क्षमता ही प्रबुद्घता का प्रत्यक्ष रूप है। प्रबुद्घता, प्रतिभा और व्यक्तित्व का समग्र रूप है। जीवन में इसका प्रकट हो जाना ही सफलता है। यही भौमिक स्वर्ग है, जिसके लिए ही मानव चिर प्रतीक्षु है। इसकी सफलता, प्रबुद्धता को सर्वसुलभ बनाने वाली शिक्षा एवं व्यवस्था पद्घति से होता है। प्रबुद्घता मानवीयता पूर्ण व्यवहार रूप में स्पष्ट होता है। इसकी चरितार्थता अर्थात् सर्वसुलभता ही सर्वमंगल नित्य शुभ है। (अध्याय:10, पेज नंबर:136-137)
      • धर्मनीति, अर्थनीति एवं राज्यनीति- यही उत्पादन, व्यवहार, विचार एवं अनुभूति पूर्णता को प्रदान करने में चरितार्थ होता है। नीति एवं व्यवस्था का मूल उद्देश्य पूर्णता से संपन्न होना और पूर्णता को प्रस्थापित, स्थापित एवं संरक्षित करना ही है। तृप्ति ही पूर्णता का द्योतक है। आयाम चतुष्टय में ही तृप्ति की चरितार्थता है। यह समृद्घि, अभय, समाधान एवं सत्य है। इनसे संपन्न होना ही जीवन तृप्ति विकास, सतर्कता, सजगता एवं भ्रम मुक्ति सिद्घि होती है। कार्यक्रम तृप्ति की अपेक्षा के अर्थ में है। उन्हें पाने के लिए ही सर्वप्रयास है। व्यवस्था-विधि, सभ्यता-संस्कृति प्रत्यक्ष रूप में प्रयास है। इसकी सफलता शिक्षा-प्रणाली एवं व्यवस्था संहिता पर निर्भर है जो मानव की ही प्रबुद्घतापूर्ण क्षमता के अनुरूप-प्रतिरूप होती है। पुन: यही शिक्षा व्यवस्थापूर्वक प्रबुद्घ जनजाति का निर्माण करने का आधार होती है। इस प्रकार प्रबुद्घ व्यक्ति के द्वारा शिक्षा एवं व्यवस्था संहिता का उद्गमन होना, उसके व्यवहारान्वयन से प्रबुद्घ जनजाति का निर्माण होना उदितोदित क्रम से अर्थात् पुन: परिष्करण, परिमार्जन तथा अनुसंधान पूर्वक संपन्न पाया गया है।....(अध्याय:10, पेज नंबर:138-139)
      • ...उत्पादन शिक्षा एवं उसका संरक्षण जितना महत्वपूर्ण है उससे अत्यधिक व्यवहार शिक्षा एवं उसका संरक्षण महत्वपूर्ण है।‘‘व्यवहार, उत्पादन के लिए प्रेरणा है। उत्पादन, व्यवहार के लिए साधन हैं।’’ यही वास्तविकता है। व्यवहार शिक्षा में अपूर्णता ही उत्पादन-विनिमय उपलब्धियों की अपव्ययता है। मानव का अपव्ययतापूर्वक सामाजिक सिद्घ होना संभव नहीं है। इन वास्तविकताओं के अतिरिक्त वस्तु मूल्य से शिष्ट मूल्य एवं शिष्ट मूल्य से स्थापित मूल्य वरीय है ही। स्थापित मूल्य में शिष्ट मूल्य व वस्तु मूल्य  समर्पित होता है न कि वस्तु व शिष्ट मूल्य में स्थापित मूल्य। इसका कारण केवल ‘‘गुरू मूल्य में लघु मूल्य का समाना ही है।’’ व्यवहार शिक्षा की प्रधान उपलब्धि स्थापित मूल्य में शिष्ट मूल्य का एवं शिष्ट मूल्य में वस्तु मूल्य का नियोजन होना ही है। ऐसी योग्यता की सर्वसुलभता ही शिक्षा है। मानव की परस्परता में स्थापित मूल्य के निर्वहन, शिष्ट मूल्य के व्यवहारान्वयन एवं वस्तु मूल्य के क्रियान्वयन योग्य योग्यता की स्थापना ही समाज-संरचना का अभीष्ट है, जिससे ही प्रत्येक मानव आश्वस्त एवं विश्वस्त होता है। ऐसी उपलब्धि पाँचों स्थितियों के संयुक्त प्रयास का योगफल है जिससे दश सोपानीय परिवार सभा व्यवस्था की एकात्मकता एवं एकसूत्रता ही समाज संरचना है। उत्पादन-विनिमय व्यवस्था से अधिक उत्पादन व व्यवहारिक विश्वास से समृद्घि भाव सिद्घ होता है। यही समृद्घ परम्परा एवं प्रमाण है। समृद्घ परम्परा उत्तरोत्तर समृद्घि एवं समृद्घि में विपुलता को प्रमाणित करता है। यही लोक वाँछा है। (अध्याय:12, पेज नंबर:146)
      • अपर्याप्त को पर्याप्त समझना ही अविद्या का लक्षण है। ‘‘जो जैैसा है उसको उससे अधिक या कम या न समझना ही अविद्या है।’’ जो जैसा है उसे वैसा ही समझ लेना विद्या है। ‘‘जिसको जो समझना है उसका पूर्ण विश्लेषण हो जाना ही समझना है।’’ (अध्याय:12, पेज नंबर:147)
      • ‘‘भोगों में संयमता के लिए पुरूषों में यतित्व एवं स्त्रियों में सतीत्व अनिवार्य है।’’ यतित्व का तात्पर्य यत्नपूर्वक तरने से तथा सतीत्व का तात्पर्य सत्वपूर्वक तरने से हैं। जागृति की ओर श्रद्घा एवं विश्वासपूर्वक यत्न-प्रयत्नशील होना ही यतित्व का लक्षण है। विकास एवं जागृति में निष्ठा एवं विश्वास सम्पन्न होना ही सतीत्व का प्रधान लक्षण है। विकास एवं जागृति ही जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति का अभीष्ट है। नियति क्रमानुषंगिक ही यतित्व एवं सतीत्व की अनिवार्यता, उपादेयता, उपयोगिता एवं अपरिहार्यता स्पष्ट होती है। गुणात्मक परिवर्तन पूर्वक क्रियापूर्णता एवं आचरणपूर्णता की उपलब्धि जीवन चरितार्थता है। यही श्रेय, नि:श्रेय एवं यतित्व तथा सतीत्व की उपलब्धि है। प्रत्येक मानव में यतित्व एवं सतीत्व के प्रति वांछनीय एवं आवश्यकीय निष्ठा का होना ही अभ्युदय का लक्षण है। यह शिक्षा-दीक्षा-संस्कार पूर्वक सफल होता है। यह जागृति की ओर तीव्र निष्ठा का प्रतीक है, जिसका प्रत्यक्ष रूप गुणात्मक परिवर्तन है। मानवीयता के अनन्तर गुणात्मक परिवर्तन देव मानवीयता एवं दिव्य मानवीयता के रूप में प्रकट होता है। मानव संस्कृति यतित्व एवं सतीत्व का लक्षण है। सतीत्व एवं यतित्व मानव संस्कृति के लक्षण है। यतित्व एवं सतीत्व पूर्ण जीवन में तन-मन-धन का अपव्यय का अत्याभाव होता है। सदुपयोगिता ही जीवन का प्रधान कार्यक्रम है। अपव्यय एवं सद्व्यय के मूल में विचार का होना पाया जाता है। मानवीयता की अपेक्षा में सद्व्ययता एवं अपव्ययता का निर्णय होता है। सदुपयोग प्रत्येक मानव सहज अपेक्षा है। मानवीयता में ही यह चरितार्थ होता है। यही मानवीय परम्परा में अक्षुण्णता को स्थापित करता है। मानवीयता पूर्ण परम्परा का पराभव नहीं है। अमानवीयता पराभव से मुक्त नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि यतित्व एवं सतीत्व के मूल में शुद्घत: तन-मन-धनात्मक अर्थ के सदुपयोग में निष्ठा एवं विश्वास ही है। यही सत्यता मानवता के वैभव को कीर्तिमान सिद्घ करता है। इसका सर्वसुलभ हो जाना ही अखण्डता है, जिसमें ही भूमि स्वर्ग, मानव देवता, धर्म सफल एवं नित्य मंगल होता है। (अध्याय:12, पेज नंबर:152-153)
      • ...अभयता ही सुख, सुख ही विश्वास, विश्वास ही साम्य मूल्य, साम्य मूल्य ही पूर्ण मूल्यानुसंधान, पूर्ण मूल्यानुसंधान ही पूर्ण मूल्यानुभूति, पूर्ण मूल्यानुभूति ही पूर्ण सामाजिकता एवं पूर्ण सामाजिकता ही अभयता है। मानवीयतापूर्ण जीवन में अभय सिद्घि होती है। अभयता के बिना मानव की स्वधार्मिक या स्व धर्मात्मिक सुख धर्मीयता का प्रसारण या प्रकटन नहीं होता है। जिसका जो अनुभव करता है उसी का वह प्रकटन करता है। जिसका जो प्रकटन करता है उसी का प्रसारण होता है। जन-जाति एवं शिक्षा तथा व्यवस्था पद्घति में मानवीय तत्वों का समावेश हो जाना ही अभयता एवं विश्वास का सर्वसुलभ होना है, जिससे ही भूमि स्वर्ग, मानव देवता, धर्म सफल एवं नित्य शुभ होता है।(अध्याय:13, पेज नंबर:155)
      • ‘‘मानव के चारों आयामों का पूर्ण जागृति ही प्रेमानुभूति योग्य क्षमता है।’’ यही ऐतिहासिक उपलब्धि मानव में प्रतीक्षित है। ऐसी क्षमता से सम्पन्न व्यक्तियों के योग्य कार्यक्रम ही अभ्युदय है। वह धार्मिक, आर्थिक एवं राज्यनैतिक कार्यक्रम ही है। ऐसे कार्यक्रम में निपुणता, कुशलता सहित मानव जीवन दर्शन की शिक्षा जो पाण्डित्य है उसका समावेश होना ही प्रेमानुभूति योग्य क्षमता का सर्वसुलभ होना है। यही सर्वमंगल कार्यक्रम है। (अध्याय:14, पेज नंबर:162)
      • ‘‘प्रेमानुभूति सम्पन्न जनमानस को उज्जवल करने के लिए शिक्षा की भूमिका अति महत्वपूर्ण है।’’ शिक्षा ही विश्लेषण पूर्वक वास्तविकताओं पर आधारित जीवन के कार्यक्रम को स्पष्ट करती है। यही प्रत्येक मानव में पायी जाने वाली कामना एवं उसकी आवश्यकता है। यही शिक्षा का दायित्व है, जिसके बिना मानव में अनुभव योग्य क्षमता का जागृत होना संभव नहीं है। शिक्षा व व्यवस्था ही जीवन में गुणात्मक परिवर्तन का स्रोत है। अंततोगत्वा यही अनुभव के लिए प्रेरणा है। वरिष्ठ अनुभूति प्रेमानुभूति ही है। यही पूर्णतया सामाजिक एवं व्यावहारिक है। (अध्याय:14, पेज नंबर:162-163)
      • ‘‘संपूर्ण प्रकार के संयम, तपस्या व अनुष्ठान की चरितार्थता का सार्थक फलन प्रेमानुभूति और व्यवस्था में सार्वभौमता का प्रमाण है।’’ सम्पूर्ण नेतृत्व को  प्रेरणा स्रोत के रूप में पहचानना आवश्यक है। स्रोत अपने में दश सोपानीय व्यवस्था और सम्पूर्ण मूल्य प्रधानत: प्रेम मूल्य का प्रमाण होना आवश्यक है। अन्यथा जो होना है वह भ्रमित संसार में स्पष्ट हो चुका है। शिक्षा, व्यवस्था, संस्कृति, सभ्यता, श्रवण, मनन, निदिध्यासन, नित्य-नैमित्तिक कर्म, साहित्य, कला, भक्ति, पूजा, स्तवन, गायन एवं प्रदर्शनसमुच्चय की चरितार्थता और सार्थकता को भी प्रेमानुभूति और व्यवस्था में  प्रमाणित होने के रूप में ही पहचाना जा सकता  है। मानव की प्रत्येक क्रिया, प्रक्रिया एवं कार्यक्रम के मूल लक्ष्य से विचलित होने पर साधन ही लक्ष्य हो जाता है। फलत: दिशाविहीनता घटित होता है। फलत: असामाजिकता एवं अव्यवहारिकता पूर्ण कार्य होता है। परिणामत: संदिग्धता, सशंकता एवं भयपूर्वक वर्ग संर्घष एवं युद्घ होता है। अस्तु, उक्त सभी प्रकार के अथक प्रयास का प्रेममयता के अर्थ में कार्यक्रम संपन्न होना ही उसकी चरितार्थता है। मानव में चरितार्थता, सफलता एवं उज्जवलता उत्थान की कामना है। सुविधा के तारतम्य में उसकी व्यवहारिकता सिद्घ न होना ही दिशाहीनता है। इसका निराकरण केवल मूल्य-त्रयानुभूति ही है। प्रधानत: स्थापित मूल्यानुभूति योग्य कार्यक्रम मानवीयता में चरितार्थ होता है। उसे स्थापित, प्रस्थापित एवं आचरित करना ही समाज एवं सामाजिक संस्थाओं का आद्यान्त कार्यक्रम है। यही मानवीयता में सर्वसामान्य सुलभ उपलब्धि है। मानवीयता के बिना मानव सुखी नहीं है या मानव का सुखी होना संभव नहीं है। इसे सर्वसुलभ करने का कार्यक्रम शिक्षा में पूर्णता को स्थापित करना है। तात्पर्य उत्पादन एवं व्यवहार शिक्षा के संयुक्त अध्ययन होने से है जो विज्ञान के साथ चैतन्य पक्ष का, मानव विज्ञान के साथ संस्कार पक्ष का, दर्शन शास्त्र के साथ क्रिया पक्ष का, साहित्य के साथ तात्विक पक्ष का, समाज शास्त्र के साथ मानवीय संस्कृति एवं सभ्यता पक्ष का, राज्यनीति शास्त्र के साथ मानवीयता को संरक्षणात्मक नीति का, अर्थशास्त्र के साथ तन-मन-धनात्मक अर्थ के सदुपयोग एवं सुरक्षात्मक नीति पक्ष का, भूगोल और इतिहास के साथ मानव तथा मानवीयता का अध्ययन है। यही व्यवहार एवं व्यवसाय शिक्षा में संतुलन के लिए सर्वसुलभ उपाय है। (अध्याय:14, पेज नंबर:163-164)
      • इन्द्रिय व्यापार एवं उत्पादन स्थूल क्रियाएं हैं। मन, वृत्ति, चित्त एवं बुद्घि की क्रियाशीलता एवं मूल्यानुभूति सूक्ष्म क्रियाएं है। स्थूल क्रियाएं सूक्ष्म क्रिया से अनुप्राणित एवं नियंत्रित है। उत्पादन से समृद्घि, व्यवहार से सह-अस्तित्व, विचार में समाधान एवंं सत्य में अनुभूति चरितार्थ होना ही कारण क्रिया है। इसी चरितार्थता के लिए ही सम्पूर्ण प्रकार के अभ्यास हैं। चरितार्थता के अतिरिक्त अर्थात् इसके विपरीत जो कुछ भी क्रियाकलाप हैं वे सब अव्यवहारिक, अमानवीयता में गण्य है। स्थूल क्रियाओं का नियंत्रण एवं सूक्ष्म क्रियाओं में परिमार्जन एवं पूर्णता प्रसिद्घ है। चैतन्य जीवन में ही सूक्ष्म जीवन गण्य है। मन, वृत्ति एवं चित्त ही सूक्ष्म क्रिया है। बुद्घि एवं आत्मा कारण क्रिया है। चैतन्य जीवन सूक्ष्म एवं कारण क्रिया का सम्मिलित रूप है। अनुभव में पराभव नहीं है। उत्पादन एवं व्यवहार में ही विभव एवं पराभव का परिचय होता है। व्यवहार एवं व्यवसाय में असफलता विचार व अनुभूति पूर्णता का लक्षण नहीं है। विचार पूर्णता केवल निपुणता, कुशलता एवं पांडित्य ही है। विचारपूर्णता के लिए ही शिक्षा है जिसका स्थूल रूप ही उत्पादन एवं व्यवहार है। सत्य और सत्यता की ही अनुभूति होती है। (अध्याय:15, पेज नंबर:167-168)
      • ‘‘चिदानंद स्थूल एवं सूक्ष्म जीवन की निर्विरोधिता में, आत्मानंद स्थूल-सूक्ष्म-कारण जीवन में एकसूत्रता के रूप में तथा ब्रह्मानंद सत्तामयता में सह-अस्तित्व सहज अनुभूति के रूप में प्रमाणित है।’’ चिदानंद सर्वसुलभ होना ही आत्मानंद एवं ब्रह्मानंद की संभावना है। मानवीयतापूर्ण जीवन में चिदानंद, देव मानवीयतापूर्ण जीवन में आत्मानंद एवं दिव्य मानवीयतापूर्ण जीवन में ब्रह्मानंद प्रधान विधि से चरितार्थ होता है। चिदानंद एवं आत्मानंद ब्रह्मानंदानुभूति में समाये रहते हैं। अर्थात् ब्रह्मानुभूति में सहजत: मानवीयता एवं देव मानवीयता अभिव्यक्त होती है। चिदानंद के सर्वसुलभ होने की संभावना है। मानवीयतापूर्ण समाज संरचना, शिक्षा एवं व्यवस्था आचरण ही उसके लिए आवश्यकीय तत्व है। मानवीयता मानव का स्वत्व है। स्वत्व का व्यवहृत होना न होना शिक्षा एवं व्यवस्था पर, शिक्षा एवं व्यवस्था धर्मनैतिक एवं राज्यनैतिक संस्थाओं की क्षमता पर, धर्मनैतिक एवं राज्यनैतिक संस्थाओं की क्षमता उपलब्ध दर्शन पर और दर्शन भौतिक-बौद्घिक-आध्यात्मिकता पर आधारित होना पाया जाता है। अध्यात्म चिंतन सत्तामयता को स्पष्ट करने के लिए, बौद्घिक चिंतन (मनोवैज्ञानिक चिंतन) संवेदनशीलता एवं चैतन्य जीवन का विश्लेषण करने में तथा भौतिक चिंतन रासायनिक एवं भौतिक क्रिया का निरीक्षण, परीक्षण एवं सर्वेक्षण करने में क्रम से ज्ञान एवं अनुभूति, दर्शन एवं अनुभूति, प्रयोग एवं अनुभूति होती है। (अध्याय:15, पेज नंबर:174)
      • व्यायाम, आसन व प्राणायाम योगाभ्यास (योगाभ्यास जागृति के अर्थ में चरितार्थ होता है। यह मानवीयतापूर्ण जीवन के साथ आरंभ होता है जो श्रवण, मनन एवं निधिध्यासपूर्वक अथवा धारणा, ध्यान एवं समाधिपूर्वक चरितार्थ होता है।) के लिए सहायक हैं। शरीर का स्वेच्छानुरूप उपयोग करने, स्वस्थ रखने के लिए ये प्रक्रियाएं आवश्यक हैं। वातावरण अभ्यास के लिए सहज उपलब्धि है। कृत्रिम वातावरण ही अतिप्रभावशाली है जिसका निर्माण मानव ही करता है। कृत्रिम वातावरण मानवीयतापूर्ण या अमानवीयता भेद से दृष्टव्य है। कृत्रिम वातावरण के लिए शिक्षा एवं व्यवस्था प्रधान तत्व हैं।(अध्याय:15, पेज नंबर:175-176)

      स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
      प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज