जागृत मानव सहज रूप में समझदारी के आधार पर ही सम्पूर्ण प्रकार के विचार करता हुआ, विचारों के आधार पर अथवा विचार शैली के आधार पर ही जीने की कला अथवा जीवन शैली ही सम्पूर्ण कार्यकलाप होना पाया जाता है। मूल समझ का स्वरूप अस्तित्व रूपी सह-अस्तित्व ही होना स्पष्ट हो चुका है। ऐसा समझ जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में संचेतना स्वरूप मानव में वर्तमान होना प्रमाणित है। यही मानव सहज जागृति का द्योतक है। प्रत्येक जागृत मानव संचेतनापूर्ण अथवा संचेतनशील रहता ही है। पूर्ण होने का तात्पर्य दिव्य मानव पद में सार्थक और प्रमाणित होता है और मानव तथा देव मानव परिष्कृत संचेतनशील रहता है। भ्रमित मानव अपरिष्कृत संवेदनशील रहता ही है। इसी कारणवश मानव में पाँच कोटियाँ सुस्पष्ट हो चुकी हैं। जागृति पूर्ण मानव पंरपरा मानव संतानों में ही देखने को मिलेगी। युवा-प्रौढ़ व्यक्तियों में भ्रम का सम्भावना ही समाप्त हो जाता हैं। परिष्कृत और परिष्कृतपूर्ण संचेतन सम्पन्न मानव परंपरा में दायित्व और कर्तव्य बोध होना स्वाभाविक है। संचेतना का तात्पर्य पूर्णता के अर्थ में चेतना है। चेतना का तात्पर्य ज्ञान और ज्ञान के स्वरूप में जानने-मानने-पहचानने एवं निर्वाह करने का प्रमाण है।
सम्पूर्ण प्रमाण वर्तमान में ही वैभवित होना देखा गया। संचेतना सहज विधि से जीवन शक्ति और बल को पूरक विधि से देने योग्य स्वरूप स्वयं में दायित्व है। व्यवहार और उत्पादन कार्यों में जीवन शक्तियों और बलों को अर्पित करना ही देने का तात्पर्य है। ऐसा दायित्व, कर्तव्यों के साथ ही अर्थात् व्यवहार, उत्पादन, व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी के साथ ही प्रमाणित होता है। यही कर्तव्य का स्वरूप और महिमा है। ऐसे कर्तव्य और दायित्व हर व्यक्ति में चेतना विकास पूर्वक स्वीकृत हैं। इसलिये जागृति के उपरान्त प्रमाणित होना सहज है। जागृत मानव में दायित्व और कर्तव्य पूरक विधि से सम्पन्न होता ही रहता है।
मनुष्येत्तर तीनों प्रकृति में भी पूरकता नियम से सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न होता हुआ देखने को मिलता है। इनमें लक्ष्य तीनों अवस्थाओं में तीन स्वरूप में होना देखा गया है। पदार्थावस्था में परिणामानुषंगी सूत्र और व्याख्या है। यही प्राणावस्था में परिणाम सहित पुष्टि धर्म निहित रहना पाया जाता है। जीवावस्था में अस्तित्व, पुष्टि सहित जीने की आशा धर्म विद्यमान होना देखा गया है। इसलिये सम्पूर्ण जीवावस्था जीवनीक्रम सहित परिणाम, पुष्टि सहित जीने की आशा सहज लक्ष्य रूप में होना पाया जाता है। इसलिये जीवावस्था में जीने की आशा, लक्ष्य, सूत्र और व्याख्या प्रमाणित है। मानव में अस्तित्व, पुष्टि, जीने की आशा सहित सुख धर्मीयता स्पष्ट है। इसी के साथ अपरिष्कृत, परिष्कृतपूर्ण संचेतन सहज कार्यकलाप का वर्गीकरण भ्रम व जागृति रूप में करता हुआ मानव अपने-आप में स्पष्ट है। ऐसे मानव में स्वाभाविक रूप में सुख-लक्ष्य, सूत्र-व्याख्या का होना स्वाभाविक रहा है। ऐसी सुख लक्ष्य परिष्कृत संचेतना अथवा परिष्कृत पूर्ण संचेतना सहज विधि से समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाण सहित प्रमाणित होना पाया जाता है। मानव अपने आप में सुख धर्मी होने के आधार पर ही मानव संचेतना सहज अर्थात् जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने सहज विधि से समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाण रूप में दायित्व और कर्तव्यों का निर्वाह होना सहज है। इसी क्रम में जागृति सहज विधि से ही दायित्व और कर्तव्यों को सम्पन्न करना स्वत्व व स्वतंत्रता का द्योतक है। क्योंकि मानव का मानवीयतापूर्ण आचरण मानव में, से, के लिये स्वतंत्रता का प्रमाण है।
प्रमाण सहित ही हर मानव का सुखी होना सतत समीचीन है। सम्पूर्ण मानव में, से, के लिये प्रामाणिकता और प्रमाण ही सुख का स्रोत, सूत्र और व्याख्या है। जीवन ही जागृति पूर्वक मानव परंपरा में सुख का स्रोत होना पहले से स्पष्ट हो चुकी है। जागृति के पहले जीवन भ्रमित रहता है। भ्रमवश ही मानव जीवन बंधन में होता है। ऐसा बंधन भ्रमित आशा, विचार, इच्छा के रूप में होना सर्वेक्षित है। न्याय, धर्म (सर्वतोमुखी समाधान), सत्य (अस्तित्व में अनुभव) सहज विधि से प्रमाणित पूर्वक ही जागृत होना देखा गया है। जागृति पूर्वक ही हर मनुष्य दायित्व और कर्तव्य को निर्वाह कर पाता है और सुखी होता है। मौलिक अधिकार का प्रयोग अपने-आप में जागृति पूर्वक ही सम्पन्न होता है। हर मानव जागृति के लिये पात्र है। जागृति को परंपरा के रूप में स्थापित करना मानवीय शिक्षा-संस्कार-पूर्वक सहज है। इस विधि से हर मनुष्य जागृत होने का स्रोत जागृत मानव परंपरा ही है। यह स्पष्ट होता है।
जागृति सहज कार्यक्रम दायित्व और कर्तव्य के आधार पर ही सुयोजित हो पाता है। ऐसे सुयोजन परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के रूप में सर्वसुलभ होता है। जागृति पूर्वक जीने की कला ही सुयोजना का साक्ष्य है। परिवार मूलक स्वराज्य-व्यवस्था में व्यवस्थापूर्वक ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी सम्पन्न होना पाया जाता है। इसी सत्यवश, यही सत्यता मानव परंपरा में सर्वतोमुखी समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व के रूप में प्रमाणित होता है; जिसका अक्षुण्णता सहज होना पाया जाता है। मानव का अभीष्ट सदा-सदा से ही और सदा-सदा के लिये शुभ ही शुभ होना देखा गया है। ऐसा सार्वभौम शुभ अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था रूपी कार्यक्रम ही है। ऐसा कार्यक्रम स्वाभाविक रूप में ही जागृति सहज शिक्षा-संस्कार विधि से स्पष्ट हो जाती है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार अपने-आप में अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन, मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) के रूप में स्पष्ट हो जाती है। यही सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सम्पन्नता सहित होने वाले अध्ययन, अवधारणा, अनुभव है। सह-अस्तित्व में अनुभव के आधार पर ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का प्रमाण मानव परंपरा में ही प्रमाणित होना समीचीन है। यही जागृति का द्योतक है। मानवीयतापूर्ण परंपरा का प्रमाण मानवीय शिक्षा-संस्कार सुलभता, न्याय-सुरक्षा सुलभता, विनिमय-कोष सुलभता, उत्पादन-कार्य सुलभता और स्वास्थ्य-संयम सुलभता ही है। इन्हीं पाँच आयामों के योगफल में संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था अपने-आप प्रमाणित होता है और अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का स्वरूप और उसकी निरंतरता बना ही रहता है। ऐसे भागीदारी में दायित्व, कर्तव्य का प्रमाण हर मानव में, से, के लिए सहज सुलभ होता है।
दायित्व बोध और उसके अनुरूप कार्य प्रणालियाँ; सम्बन्ध, मूल्य-मूल्यांकन, उभयतृप्ति, संतुलन और उसकी निरंतरता के रूप में वर्तमान होना पाया जाता है। इसी के साथ तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग, सुरक्षा भी दायित्वों में समाहित रहता ही है। कर्तव्य का स्वरूप आवश्यकता से अधिक उत्पादन, लाभ-हानि मुक्त विनिमय कार्यों में भागीदारी के रूप में सम्पन्न होना देखा गया है। दायित्वों और कर्तव्यों को निर्वाह करने के क्रम में स्वास्थ्य-संयम एक अनिवार्य क्रियाकलाप है जिसको आगे अध्याय में स्पष्ट किया गया है ।इस प्रकार दायित्व बोध के लिये जानना, मानना और कर्तव्य बोध के लिये पहचानना, निर्वाह करना एक अनिवार्य स्थिति है। इस स्थिति में कार्यरत, व्यवहाररत रहना ही जागृत परंपरा सहज महिमा है। परंपरा सहज महिमा ही मानव संतान में, से, के लिये अत्यधिक प्रभावशाली होता है।
मानव परंपरा अपने में बहुआयामी अभिव्यक्ति होना सुदूर विगत से अभी तक और अभी से सुदूर आगत तक होना दिखाई पड़ता है। मानव परंपरा में शिक्षा-संस्कारादि पाँचो आयाम सहित ही स्वस्थ परंपरा होना स्पष्ट हो चुका है। इन्हीं पाँचों आयामों में हर व्यक्ति कार्यरत होना ही बहुआयामी अभिव्यक्ति का तात्पर्य है। इसी क्रम में विभिन्न दृष्टिकोणों, निश्चित दिशाओं और हर देशकाल में प्रमाणित होने योग्य इकाई मानव है अर्थात् सभी आयामों में प्रमाणित होने योग्य इकाई मानव है। ऐसे प्रमाणित होने के क्रम में मौलिक रूप में अधिकार स्वत्व स्वतंत्रता पूर्वक अर्थात् स्वयं स्फूर्त विधि से प्रयोग करना स्वाभाविक रहता ही है। साथ ही जागृति व जागृतिपूर्ण परंपरा में ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होता है।
जागृति ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सहज परंपरा रूप में मानव संतानों को सुलभ हो जाती है। शिक्षा-स्वरूप में सह-अस्तित्व विधि से प्रयोजन कार्य-विश्लेषण विधि को अपनाना सहज है। सह-अस्तित्व विधि से विज्ञान विधियाँ सकारात्मक होना पाया जाता है। अन्यथा नकारात्मक होती है। सकारात्मक का आधार सह-अस्तित्व और व्यवस्था है। इसी आधार पर होने वाली स्पष्ट अवधारणाएँ निष्ठा का सूत्र होना देखा गया। निष्ठा का तात्पर्य वर्तमान में विश्वासपूर्वक किये जाने वाले क्रियाकलाप हैं। सभी क्रियाकलाप व्यवहार, व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज प्रमाण है। इन्हीं व्यवहार वैभव मानव में स्वत्व स्वतंत्रता अधिकार ही स्वराज्य व्यवस्था कहलाता है। मूलत: स्वराज्य व्यवस्था मानव का समझ प्रक्रिया का संयुक्त वैभव ही है - वह भी जागृति पूर्ण वैभव है। अतएव हम जागृतिपूर्वक मानव लक्ष्य एवं जीवन लक्ष्यों को सफल बनाते हैं। जो दायित्व और कर्तव्य पूर्वक ही सफल होता है। इसलिये न्यायपूर्ण व्यवहार कार्यों में दायित्व और कर्तव्य मूल्यांकित होता है। इसी के साथ जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना सुलभ होता है। इसी विधि से न्याय सुलभता का मार्ग प्रशस्त होता है। न्याय सुलभता सर्व स्वीकृति तथ्य है। न्यायिक विधि से अखण्ड समाज, पाँचों आयामों में स्वराज्य विधि से सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होना स्वाभाविक है। हर मानव अपने को जागृतिपूर्वक इन दोनों मुद्दे में अपने उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता को मूल्यांकित करता है। यही स्वस्थ सामाजिक मानव और व्यक्तित्व का तात्पर्य है। यह हर मानव की आवश्यकता है। इस विधि से सम्पूर्ण दायित्वों, कर्तव्यों को उसके प्रयोजन सहित प्रमाणित करना, मूल्यांकित करना सहज है। (अध्याय: 8, पृष्ठ नंबर: 262-269)