Thursday 11 January 2018

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : संवाद भाग १

संवाद भाग - १ (संस्करण: प्रथम, मुद्रण: 2011) 
  • समझदारी से संपन्न होने के बाद यह आता है हम समाधान समृद्धि पूर्वक दायित्वों को भी पूरा कर सकते हैं। जीव चेतना में चले संसार को झेलने के बाद ही हम समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने के लिए स्वयं तैयार हो पाते हैं। उसको घायल बनाकर, काट कर कोई रास्ता नहीं है हम जब पूरा समझ जाते हैं हमको अपने में समृद्धि पूर्वक जीने की तमीज आ जाती है। उसमें परिवार जनों की भी संतुष्टि हो जाती है इसीलिए हम अच्छे कामों में लग सकते हैं। यह बात हर व्यक्ति के पकड़ में आ सकता है। मेरे पकड़ में यह आ सकता है तो बाकी लोगों की पकड़ में कैसे नहीं आएगा साधना? साधना काल में मैं विरक्ति विधि से ही रहा।  55 वर्ष की आयु में मैं समाधि संयम से उठने के बाद समृद्धि के कार्यक्रम बनाने में लगा आज की स्थिति में उससे सभी अच्छे ही हैं।(अध्याय: , पृष्ठ नंबर: 3)
  • “होना” सभी अवस्थाओं का कर्तव्य है! अस्तित्व में हर इकाई नियति क्रम में अपने प्रगटन के अनुसार अपने “होने” को प्रगटन करने के लिए बाध्य है। (अध्याय:, पृष्ठ नंबर: 9)
  • प्रश्नः पानी को अभी हम जीव चेतना में पहचानते हैं,क्या इसका मतलब है क्या हमको पानी का साक्षात्कार हुआ है?
उत्तरः नहीं। जीव चेतना में पानी को मानव उसे अपने लिए उपयोग के अर्थ में ही पहचानता है। जीव चेतना में मानव पानी के साथ अपने सम्बन्ध, पानी के स्वभाव और धर्म को नहीं पहचानता। यही कारण है मानव जीव चेतना में जीते हुए पानी के साथ अपने कर्तव्य को नहीं निभा पाता। समझदारी के बाद मानव को पानी के साथ अपने कर्तव्य का बोध होता है। पानी को संरक्षित करने का दायित्व निर्वाह समझदारी के बाद ही होता है। (अध्याय:, पृष्ठ नंबर: 52-53)
  • मैंने जो अध्ययन पूर्वक अनुभव किया वह मेरे अकेले के परिश्रम का फल नहीं है, यह समग्र मानव जाति के पुण्य का फल है यह मैंने स्वीकार लिया । इसलिए इसको मानव जाति को आपने का दायित्व मैंने स्वीकारा । मैंने जैसा अध्ययन जिया वैसा ही उसको शब्दों में रखने का कोशिश किया। शब्द परंपरा के हैं परिभाषा मैंने दी है। (अध्याय: , पृष्ठ नंबर:128) 
  • इस आधार पर अध्ययन के मुद्दे पर आप को इंगित करना चाहा “हर शब्द का अर्थ होता है।”  वह अर्थ शब्द नहीं है। अर्थ मानव को समझ में आता है दूसरे किसी को समझ में आएगा नहीं। पत्थर को हम बोलेंगे वह समझेगा नहीं। शब्द का प्रभाव पत्थर पर भी होता है। वनस्पतियों पर भी होता है। जानवरों पर भी होता है। मानव पर भी होता है मानव पर होने के बाद इसका अर्थ खोजने की इच्छा मानव में बनी हुई है। हर मानव में कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता प्रभावशील है। आज पैदा हुए बच्चे में भी और कल मर जाने वाले वृद्ध में भी यह प्रभाव शील है। कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता इसके आधार पर हर मानव में कहे गए शब्द के अर्थ तक पहुंचने की इच्छा बनी हुई है। यही एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को अध्ययन कराने का स्त्रोत है। सर्वप्रथम मानव में अध्ययन करने का स्रोत बना हे कि नहीं यह सोचना मेरा दायित्व था। उसमें पता लगा हर व्यक्ति में यह पूंजी रखी हुई है। क्या पूंजी? कुछ भी सुनेगा तो पूछेगा इसका मतलब क्या है इस और जाने का अधिकार सब में रखा है। सर्व मानव में रखी हुई इस कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता की पूंजी को समझ करके ही मैंने अध्ययन होने पर विश्वास किया।(अध्याय: , पृष्ठ नंबर: 152)
  • मध्यस्थ क्रियाकलाप को मानव परंपरा के संदर्भ में देखें तो मानव परंपरा में शैशव, कौमार्य,यौवन, प्रौढ़  और वृद्ध अवस्थाओं के रूप में परिलक्षित है। मानव परंपरा में व्यवहार इसके साथ सुस्पष्ट होता है। हर मानव संतान जन्म से ही न्याय का याचक होता है, सत्य वक्ता होता है और सही कार्य व्यवहार करने का इच्छुक होता है। मानव संतान का अपने अभिभावको के साथ “व्यवहार” होता ही है। मानव संतान स्वभाविक रूप में अपने अभिभावको का अनुसरण अनुकरण करता ही है। इस व्यवहार का प्रयोजन है अभिभावको द्वारा संतान में न्याय प्रदाई क्षमता स्थापित हो, सत्य का बोध हो और सही कार्य व्यवहार करना सिखाया जाए। ऐसा करना अभिभावको का दायित्व है। इस दायित्व को पूरा करने के लिए अभिभावकों का पहले से उस के योग्य बने रहना आवश्यक है। इस प्रकार हर मानव संबंध में दायित्वों को निर्वाह करने के लिए उसके लिए आवश्यक ज्ञान, विवेक, विज्ञान से संपन्न रहना आवश्यक है। (अध्याय: , पृष्ठ नंबर: 231)
  • इस अध्ययन की क्या वस्तु है?
इस अनुसंधान के फलस्वरूप “मानव व्यवहार दर्शन” नामक पुस्तिका तैयार हुआ जिसको “शोध ग्रंथ” भी कह सकते हैं।  मानव व्यवहार दर्शन में मानव चेतना विधि से व्यवहार का क्या स्वरूप होता है? न्याय का क्या स्वरूप होता है? इसका वर्णन है। उसको अध्ययन कराते हैं। “मानव व्यवहार दर्शन” में मानव के कर्तव्य और दायित्व को तय किया। मानव का कर्तव्य और दायित्व तय होना ज़रूरी है या नहीं है इस पर आप ही निर्णय लीजिये। यह निर्णय लेना हर व्यक्ति का अधिकार है। (अध्याय:, पृष्ठ नंबर: 257)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी 

No comments:

Post a Comment