Thursday 11 January 2018

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : व्यवहारात्मक जनवाद

व्यवहारात्मक जनवाद (संस्करण: 2009, मुद्रण: 2017)
  • मानव के हर रंग रूप संबंध में समानता संवाद का दूसरा मुद्दा बनता है हर मानव अपने पहचान को बनाए रखने के लिए बाल्यकाल से ही प्रयत्नशील है पहचान प्रस्तुत करने की प्रवृतियां विभिन्न तरीके से प्रस्तुत होती हुई आंकलित होती है परिस्थितियां भिन्न-भिन्न रहते हुए प्रवृत्तियों में समानता होती ही है इसी के साथ बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक संरक्षण में पोषण में भरोसा रखने वाली प्रवृत्ति मिलती है संरक्षण पोषण के क्रम में न्याया की अपेक्षा प्रस्फुटित होती हुई देखने को मिलती है। किशोर अवस्था तक सही कार्य व्यवहार करने की इच्छाएँ आज्ञापालन, अनुसरण सहयोग के अनुकरण के रूप में प्रवृत्तियों को देखा जाता है यह बहुत अच्छे ढंग से समझ में आता है यह जन चर्चा का विषय है। संवाद के लिए यह दोनों मुद्दों अच्छे ढंग से सोचने, परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण करने व्यवहार विधि से विचारों को संबंध करने में काफी उपकारी हो सकते हैं। तीसरा मुद्दा देखने को मिलता है कि हर मानव संतान शिशुकाल से ही जब से बोलना जानता है तब से जो भी देखा सुना रहता है उसी को बोलने में अभ्यस्त रहता है। इस ढंग से हर मानव संतान बाल्यकाल से ही सत्य वक्ता होना आकलित होता है। जबकि सत्यबोध उसमें रहता नहीं है। शब्दों को बोलना ही बना रहता है। इससे यह भी पता लगता है मानव परंपरा का दायित्व है कि मानव संतान को सत्य बोध कराएं। इसी के साथ सही कार्य, व्यवहार का प्रयोजन बोध सहित  पारंगत बनाने की आवश्यकता है। न्याय बोध हर संतान को कराने का दायित्व परंपरा के पक्ष में ही जाता है। इस ढंग से बच्चों के लिए प्रेरक साहित्यों, कविताओं की रचना करने के लिए ये तीनों सार्थक प्रवृत्तियाँ है मानव में प्रवृतियां प्रयोग और परिक्षण बहुआयामों में होना देखा गया है। ये सब जन चर्चा के लिए बिन्दुएँ हैं। (अध्याय: 3, पृष्ठ नंबर: 38)
  • सुलझन ही सदा सदा से मानव की अपेक्षा है। सारे अड़चनों का  कारण नासमझी है, समस्या है। सम्पूर्ण समस्याएँ मानव की सुविधा, संग्रह, भोग, अतिभोग प्रवृति की उपज है। इन सारी स्थितियों को देखने पर पता चलता है समझदारी ही मानव का समाधान और समृद्घि का निर्वाध गति है, अथवा अक्षुण्ण गति है अथवा निरन्तर गति है। गति सदा सदा से मानव परम्परा के रूप में ही होना सम्भावित है। समझदारी पूर्ण परम्परा ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का एक मात्र उपाय है। दूसरी किसी विधि से व्यवस्था की सार्वभौमता और समाज की अखंडता को अभी तक स्पष्ट नहीं कर पाये। मानव में समझदारी का स्रोत सर्वसुलभ होना ही है। ऐसे कार्य में आप हम सभी को भागीदार होने की आशा अपेक्षा और कर्तव्य है। इसी आशय को सार्थक संवाद में, अवगाहन में लाने का यह प्रयास है। (अध्याय:3, पृष्ठ नंबर: 54)
  • शिक्षा-संस्कार विधा में सहअस्तित्व और प्रमाणों को प्रस्तुत करना ही कार्यक्रम है। इसे क्रमिक विधि से प्रस्तुत किया जाना मानव सहज कर्तव्य के रूप में, दायित्व के रूप में स्वीकार होता है। मानवीय शिक्षा में जीवन एवं शरीर का बोध और इसकी संयुक्त रूप में अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन और दिशा बोध होना ही प्रधान मुद्दा है। इन दोनो मुद्दों पर संवाद होना आवश्यक है। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर: 68)
  • इस तथ्य को भली प्रकार से देखा गया है, समझा गया है, कि हर मानव तृप्ति पूर्वक ही जीने  का इच्छुक है। ऐसी तृप्ति, सुख ,शांति, संतोष, आनंद के रूप में पहचान में आती है। ऐसी पहचान, जानने,  मानने, पहचानने, निर्वाह करने के फलस्वरूप प्रमाणित होना पायी गयी। सुख, शांति, संतोष, आनंद अनुभूतियाँ समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व का, प्रमाण के रूप में परस्परता में बोध और प्रमाण हो जाता है। ऐसी बोध विधि का नाम ही है शिक्षा संस्कार।  शिक्षा का तात्पर्य शिष्टता पूर्ण अभिव्यक्ति से है। ऐसी शिष्टता अर्थात मानवीय पूर्ण शिष्टता समझदारी पूर्वक ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। इसकी आवश्यकता के लिए जनचर्चा भी एक अवशम्भावी क्रियाकलाप है। जनसंवाद अर्थात मानव में परस्पर संवाद प्रसिद्ध है।  संवाद के अनन्तर संवेदनशीलता का ध्रुवीकरण एक  स्वाभाविक प्रक्रिया रही है।  ये प्रक्रियाएं क्रम से तृप्ति की अपेक्षा में ही संजोया हुआ पाया जाता है। सभी मानव संवेदनशीलता से परिचित है ही, संज्ञानशीलता की आवश्यकता शेष रही ही है।  समस्या समाधान के क्रम में प्रदूषण के संबंध में सोचना और निष्कर्ष निकालना हर मानव का कर्तव्य बन गया है क्योंकि इससे उत्पन्न विपदाएं हर मानव के लिए त्रासदी का कारण बन चुकी है। इससे मुक्ति पाना हर मानव के लिए आवश्यक है वन, खनिज, औषधि संपदाए समृद्ध रहने की स्थिति में ऋतु संतुलन, वन वनस्पति औषधियों के अनुकूल रूप में मानव का अवतरण धरती पर आरंभ हुआ है।  और मानव अपने तरीके से सोचते समझते मनाकार को साकार करने के क्रम में वन, खनिज, औषधि, जलवायु संपदा को उपयोग, प्रयोग, परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक इनके साथ अपनी अनुकूलता के लिए प्रयोग करता ही आया। इस क्रम में सर्वाधिक वनों का विध्वंस और खनिजों का शोषण हो ना पाया गया। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर:70)
  • ...क्योंकि परिवार में सीमित संख्या में सदस्यों का होना और उन सबके शरीर पोषण संरक्षण और समाज गति के पक्ष में वस्तुओं की आवश्यकता होना पाया जाता है। ऐसे निश्चयन के आधार पर आवश्यकता से अधिक उत्पादन प्रवृत्ति का होना तदनुसार फलपरिणाम होना पाया जाता है। इस विधि से अर्थात जागृति पूर्ण परंपरा विधि से हर मानव परिवार समाधान समृद्धि को अनुभव करना सहज है। इसकी अपेक्षा सुदूर विगत से ही मानव आकांक्षा के रूप में विद्यमान है ही और विद्यमान रहेगा ही। इस मुद्दे पर परामर्श संवाद हर मानव परिवार में और योग संयोग होने वाले छोटे बड़े समाजों में चर्चित होना निष्कर्ष का पाना मानव का ही कर्तव्य है चर्चा की प्रवृत्ति मानव में निहीत है ही। सारे मानव अपने में स्वस्थ सुंदर समाधान समृद्धि का धारक वाहक होना चाहता ही है। समाधान संपन्न मानसिकता और रोग मुक्त शरीर होना तो उसे बनाए रखना ही मानव में स्वस्थता का तात्पर्य है इसमें शरीर में निरोगिता को स्वास्थ्य कहा जाता है ऐसे निरोगिता  की पहचान सप्त धातुओं के संतुलन में होना पाया जाता है। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर:74)
  • दृष्टापद प्रतिष्ठा के रूप में अनुभूति जीवन में, से, के लिए जीवन ज्ञान सम्पन्न होना ही है। सह अस्तित्व दर्शन ज्ञान का मतलब यही है। इसी के क्रियान्वयन विधि से अखंडता सार्वभौमता का अनुभव होना समाधान है और समाधान का अनुभव होता है, यही सुख है यही मानव धर्म है। मानव धर्म विधि से जीता हुआ परिवार से विश्व परिवार तक जीवनाकांक्षा मानवाकांक्षा सहज रुप में ही सबके लिए सुलभ रहती है। इसी आशा में मानवकुल प्रतीक्षारत है तथा इसे सफल बनाना मानव का ही कर्तव्य दायित्व है। इस जिम्मेदारी को स्वीकार करने के लिए लक्ष्य सम्मत परिवार जनचर्चा हर मानव परिवारों में, समुदायों में, सभाओं में आवश्यक है। चर्चा अपने में लक्ष्य के लिए आवश्यक प्रक्रिया, प्रणाली और नीतिगत स्पष्टता के लिए होना सार्थक है। प्रक्रिया का तात्पर्य निपुणता, कुशलता, पांडित्य पूर्वक  किए जाने वाली कृतकारित अनुमोदित कार्यों से है। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर: 74-75)
  • प्रदूषण से  प्राण वायु का शोषण बढ़ता जा रहा है। और प्राण वायु की सृजनशीलता घटती जा रही है। इससे  मानव कितने खतरे में आ रहा है इसे समझना आवश्यक है। यदि प्राण वायु इतना घट जाये, हमारे श्वॉस में प्राण वायु आवश्यकता से कम हो जाये तो क्या स्थिति रहेगी। मानव शरीर में प्राण वायु का सेवन होता है। अपान वायु का विसर्जन होता है। वनस्पति संसार में अपानवायु का सेवन होता है प्राणवायु का विसर्जन होता है। इस ढंग से प्राणावस्था, जीव और मानव शरीर के लिए पूरक होना और जीव एवं मानव वनस्पति संसार के लिए पूरक होना पाया जाता है। इस प्रकार मानव अपनी स्वस्थ मानसिकता के साथ परिशीलन करने पर पता चलता है कि इसके संतुलन को बनाए रखना अतिआवश्यक है। सन्तुलन बनाए रखने का दायित्व मानव के माथे पर टिकता है। इस दायित्व को स्वीकारने के उपरान्त ही उपर कही गयी दुर्घटनाओं का उन्मूलन होगा। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 80)
  • सम्पूर्ण मानव शिक्षा-संस्कार पूर्वक ही अपनी दिशा, उद्देश्य और कर्तव्यों को निर्धारित कर पाता है। मानव की दिशा लक्ष्य निर्धारित हो पाना जागृति का प्रथम सोपान है। इसके आगे अपने आप में कार्यक्रम और कार्यव्यवहार सम्पादित होना स्वाभाविक है। जिसके फलन में समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व प्रमाणित होना है जिसके लिए हर मानव नित्य प्रतीक्षा में है और उपलब्धि ही गम्यस्थली है। उसकी निरन्तरता ही परम्परा है। ऐसी लक्ष्य संगत परम्परा ही  जागृत परम्परा है। इसी क्रम में संज्ञानशीलता प्रमाणित होना, संवेदनाएँ नियंत्रित होना पाया जाता है। संवेदनाओ के नियंत्रण को अपने आप में मर्यादा के सम्मान के रूप में पहचाना गया है। मर्यादाएँ  परस्परता में अति आवश्यक स्वीकृतियाँ है। इन स्वीकृतियों के आधार पर किये जाने वाली कृतियाँ अर्थात कार्य और व्यवहार से मानव परम्परा में हर मानव सुखी होना स्वाभाविक है। (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर: 82)
  • मानव में परस्परताएँ में भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, माता-पिता, पति-पत्नि, चाचा-चाची, मामा-मामी आदि से सम्बोधन किये जाते है। ये परिवार सम्बोधन कहलाते है। इन सम्बोधन के साथ प्रयोजनो को (सम्बंध का अर्थ रूपी प्रयोजनो को) पहचानते हुए निर्वाह करने के क्रम में हम जागृत मानव कहलाते है। भ्रमित मानव भी सम्बोधनो को प्रयोग करता ही है। सम्पूर्ण प्रयोजन सम्बन्धो की पहचान और निर्वाह जैसे गुरू के साथ श्रद्घा-विश्वास, माता-पिता के साथ श्रद्घा-विश्वास, भाई-बहन के साथ स्नेह और विश्वास, मित्र के साथ स्नेह-विश्वास, पुत्र पुत्री के साथ वात्सल्य, ममता, विश्वास, इसकी निरन्तरता में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित करते है। इन सभी सम्बंधो का निर्वाह करने के साथ दायित्व और कर्तव्य अपने आप स्वीकृत होते है। (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर:82)
  • दायित्व कर्तव्यों का निर्वाह होना अपने आप में विश्वास का आधार बनता है यही व्यवहार सूत्र कहलाता है। जहाँ भी कर्तव्य दायित्वो का निर्वाह नहीं कर पाते वहाँ विश्वास नहीं हो पाता है। भ्रमित मानव परम्परा में दायित्व कर्तव्य का बोध नहीं हो पाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है व्यवहार तंत्र का आधार सम्बंध ही है। इसका निर्वाह और निरंतरता ही परिवार और समाज की व्याख्या बन जाती है। इन दोनो प्रकार की व्याख्या  से पारंगत होने के फलन में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी होना स्वाभाविक है। व्यवस्था में सार्वभौमता स्वभाविक है। व्यवस्था को हर व्यक्ति बरता ही है अखण्ड समाज व्यवस्था ही व्यवस्था हो पाती है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:82-83)
  • व्यवहार व्यवस्था का तात्पर्य अथवा समाज व्यवस्था का तात्पर्य मानव में, से, के लिए लक्ष्य समेत जीने की विधि, विधान, कार्य और व्यवहार ही है। व्यवहार विधि संबंधो के आधार पर मूल्यों के निर्वाह करने के दायित्व पर निर्भर किया जाता है। इसके लिए जो क्रमबद्घता अर्थात निर्वाह के लिए जो क्रम बद्घता होती है यही विधान है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 83)
  • दसों परिवार संस्कृति सभ्यता में एक रूपता को बनाए रखेंगे। कला और उत्पादन क्रियाओ के प्रोत्साहन से अपनी अपनी पहचान बनाए रखने में सतत स्वयं स्फूर्त विधि से सम्पन्न होते जायेंगे। इस स्वायत्ता को पहचानने के उपरान्त सम्मिलित व्यवस्था दस परिवार में समाधान, समृद्घि का अनुभव होना, प्रमाणित होना, गवाहित होना बन जाता है। यही परिवार समूह सभा का वैभव होना पाया जाता है। इस वैभव के साथ यह भी स्वयं स्फूर्त होता है इसकी विशालता की आवश्यकता है। जैसे परिवार में परिवार समूह व्यवस्था की प्रवृति स्वयं स्फूर्त होती है। इसी प्रकार परिवार समूह सभा ग्राम परिवार की विशालता दस के गुणन में होते हुए ग्राम सौभाग्य को प्रमाणित करने का उद्देश्य बन जाता है। क्योकि समूचे ग्राम में कम से कम 10 परिवार समूह सभा से निर्वाचित सदस्य होगी। दस परिवार सभा अपना सौभाग्य प्रमाणित किये रहना स्वाभाविक रहता है। इन आधारो पर हर परिवार समूह सभा से एक एक व्यक्ति का निर्वाचन होना सहज हो जाता है। इस स्वयं स्फूर्त निर्वाचन से जन प्रतिनिधि अपने दायित्व, कर्तव्य से सम्पन्न, सजग प्रमाणित रहता ही है क्योंकि समझदार परिवार से ही जन प्रतिनिधि की उपलब्धि होना पाया जाता है। इसके हर परिवार के समझदार होने की व्यवस्था, लोक शिक्षा और शिक्षा विधि से, मानवीय शिक्षा का बोध कराने की व्यवस्था सुचालित रहेगी ही। इस प्रकार से तीसरे सोपान के लिए दस जनप्रतिनिधि परिवार समूह सभा से निर्वाचित होकर ग्राम सभा के लिए उपलब्ध रहेंगे। इसके निर्वाचन की कालावधि को हर ग्राम सभा अपनी अनुकूलता के आधार पर अथवा सबकी अनुकूलता के आधार पर निर्णय लेगी। उस कालावधि तक मूलत: परिवार से निर्वाचित होकर परिवार समूह से निर्वाचित होकर ग्राम परिवार सभा कार्यक्रम में भागीदारी करने के लिए पहुँचे रहते है। इनके लिए कोई मानदेय या वेतन स्वीकार नहीं होता है क्योंकि हर परिवार समृद्घ रहता ही है। समाधान समद्घि के आधार पर ही जनप्रतिनिधि निर्वाचन होना पाया जाता है। जब दसो जनप्रतिनिधि एकत्रित होते है ये सभी प्रतिनिधि हर कार्य करने योग्य रहते हैं। व्यवस्था कार्य में ऐसा कोई भाग नहीं रहेगा जिसे यह कर नहीं पायेगे। दूसरा हर कार्य के लिए समय और प्रक्रिया को निर्धारित करने में समर्थ रहेंगे। इस शोध के आधार पर मानवीय शिक्षा- संस्कार में पारंगत जैसे एक गॉव में प्राथमिक शिक्षा का आवश्यकता तो रहता ही है उसमें पारंगत रहेंगे। न्याय-सुरक्षा कार्य में पारंगत रहेंगे। उत्पादन-कार्य में पारंगत रहेंगे। विनिमय कार्य में पारंगत रहेंगे। स्वास्थ्य संयम कार्य में भी पारंगत रहेंगे। प्राथमिक स्वास्थ्य विधा में सभी पारंगत रहेंगे। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर:112-113)
  • व्यवस्था की दूसरी कड़ी में सुरक्षा कार्य सम्पन्न होगे। इसमें ग्राम परिवार सभा के लिए निर्वाचित दसो सदस्य सुस्पष्ट ज्ञान सम्पन्न, विवेचना, विश्लेषण में पारंगत रहेंगे। हर परिवार समझदार परिवार होने के आधार पर गलती और अपराध की कोई संभावना नहीं रहती। फिर भी ऐसी कोई प्रवृत्ति उदय होने से घटना तक पहुंचने के पहले सुधार होने की व्यवस्था रहेगी। ऐसी व्यवस्था का प्रभावशीलन परिवार से ही आरम्भ होकर परिवार समूह, ग्राम परिवार सभा में कार्यरत निष्णात व्यक्तिगण सुधार के दायी रहेंगे। जो अनुचित है अनावश्यक है अथवा गलती अपराध है ऐसी मानसिकता को पहचानने का दायित्व सर्वप्रथम परिवार में उसके अनन्तर परिवार समूह सभा में और ग्राम परिवार में रहेगी। ग्राम के सम्पूर्ण सौ परिवार  दायी रहेंगे। जैसे ही ऐसी मानसिकता देखने मिले तुरन्त सुधारने का कार्य करेंगे। और पूरा गाँव के सौ परिवारो का मूल्यांकन, वर्ष में एक बार अथवा छ: महीने में एक बार, आवश्यकता पड़ने से महीने में एक बार होना स्वाभाविक रहेगी। इसकी सुगमता हर दस परिवार के प्रतिनिधि करेंगे। हर परिवार अपना मूल्यांकन स्वयं करेगा। इन दोनो आधार पर ग्राम सभा अपना ध्यान देकर मूल्यांकन की घोषणा करेगा। इनमें से कोई भी परिवार में श्रेष्ठता की आवश्यकता होने पर अथवा परिवार समूह में श्रेष्ठता की आवश्यकता होने पर ग्राम सभा उसकी भरपाई करने का कार्य करेंगे।  मूल्यांकन का ध्रुव बिन्दु समाधान, समृद्घि सम्पन्नता होगा। तीसरा बिन्दु उपकार कार्य में प्रवर्तन समाज गति के रूप में मूल्यांकित होगी। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 114)
  • मंडल समूह परिवार सभा दस मंडल परिवार सभा में से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित होकर मंडल समूह परिवार सभा के कर्णधार रहेंगे। इसी क्रम में सभी प्रकार के कार्यकलापो को तथा पाँचों कड़ियो के कार्यक्रमों को इस सातवीं सोपान में प्रमाणित करने का दायित्व रहेगा इसमें सम्पूर्ण मानव प्रयोजनो को स्पष्ट रूप से प्रमाणित किया जाना कार्यक्रम रहेगा। ऐसे मानव अधिकार परिवार सभा से ही प्रमाणरूप में वैभवित होते हुए शनै: शनै: पुष्ट होते हुए मंडल समूह परिवार सभा में मानव अधिकार का सम्पूर्ण वैभव स्पष्ट होने की व्यवस्था रहेगी। समान्यत: मानव अर्थात समझदार मानव शनै: शनै: दायित्व के साथ अपनी अर्हता की विशालता को प्रमाणित करता ही जाता है। अपनी पहचान का आधार होना हर व्यक्ति  पहचाने ही रहता है। समूचे अनुबंध समझदारी से व्यवस्था तक को प्रमाणित करने तक जुड़ा ही रहता है। प्रबंधन इन्हीं तथ्यो में, से, के लिए होना स्वाभाविक है। समझदारी में परिपक्व व्यक्तियों का समावेश मंडल समूह सभा में होना स्वाभाविक है। ऐसे देव मानव दिव्य मानवता को प्रमाणित करते हुए दृढ़ता सम्पन्न विधि से शिक्षा विधा में शिक्षा-संस्कार कार्य को सम्पादित करते है। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 121)
  • इस सभा की दूसरी कड़ी न्याय- सुरक्षा कार्य रहेगी  इसे पड़ोंसी राज्यों में अर्थात परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को पड़ोंसी राज्यों में प्रवाहित करने के लिए सभी उपायों का प्रयोग करेगी। इस विधि से लोकव्यापीकरण प्रवृत्ति का प्रमाण प्रधान राज्य सभा के दायित्व में रहेगी। 
इस सभा की तीसरी कड़ी उत्पादन कार्य रहेगी जो आकाश गमन आदि यंत्रो को तैयार करने की प्रौद्योगिकी बनाये रखेगी। साथ में  जलप्रवाह बल से विद्युत उपार्जन कार्य सम्पादित करने की व्यवस्था और दायित्व रहेगी। इसी के साथ साथ वायु प्रवाह, समुद्र तरंग विधियों से भी विद्युत उपार्जन करने के उपक्रम समावेशित रहेंगे। इसी प्रौद्योगिकी कार्यक्रम के साथ और श्रेष्ठतर उपलब्धियो के लिए प्रयोगशील रहने के अधिकार समावेशित रहेंगे जिससे ऊर्जा संतुलन सुलभ हो। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 125)


स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज

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