Thursday 11 January 2018

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : समाधानात्मक भौतिकवाद

समाधानात्मक भौतिकवाद (संस्करण:2009)
  • शिक्षा-संस्कार ही बोध और अवधारणा का एकमात्र स्रोत है। ऐसे स्रोत को सार्थक रूप देने, उसमें प्रामाणिकता और समाधान की निरन्तरता को बनाये रखना चैतन्य-प्रकृति में, से ज्ञानावस्था की इकाई का दायित्व और वैभव होता हैं। जड़ प्रकृति में अंशों का आदान-प्रदान होता हैं। परमाणुओं के स्तर में जिसमें प्रस्थापन होता है वह पहले से ही सामान्य गति में रहता है, जिसमें विस्थापन होता हैं उसके अनन्तर वह भी सामान्य गति में होना पाया जाता है। सामान्य गति में होने के लिए निरन्तर मध्यस्थ क्रिया में बल समाहित रहता हैं जिसे हम छिपी हुई ऊर्जा कहते है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर: 86)
  • मानव के बहुआयामी इतिहास में उन सभी आयामों के लिए पूरक होने के प्रमाण को मानव अपने कुल के लिए समर्पित नहीं कर पाया। इसी कारण अब प्रबुद्घ मानवों का यह दायित्व होता है कि सभी आयामों में जो रिक्त और अपेक्षित भाग है उसकी भरपाई कर देवें। उसमें से प्रथम और प्रमुख आयाम यही देखने को मिला-व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी। मानव जागृतिपूर्वक ही इसकी भरपाई कर पायेगा। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 124)
  • मानव समझदारी से व्यवस्था में प्रमाणित होता है, जो अस्तित्व सहज ही होती है:- अस्तित्व सहज व्यवस्था वर्तमान सहज प्रमाण के रूप में वैभव हैं। जब-जब मानव व्यवस्था का अनुभव करता है, तब-तब वर्तमान में विश्वास, भविष्य के प्रति आश्वासन होना पाया जाता है। भविष्य के प्रति आश्वस्त होने का तात्पर्य विधिवत् योजना और कार्य योजना होने से है। वर्तमान में विश्वास का तात्पर्य समझदारी सहित दायित्वों, कर्तव्यों का निर्वाह हैं। जिसे भले प्रकार से कर चुके हैं, कर रहे हैं और करने में निष्ठा हैं। समझदारी का स्वरूप जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में, से, के लिए जागृति है। जागृति का तात्पर्य जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने से है। इस प्रकार जागृति ही वर्तमान हैं, वर्तमान ही जागृति का सम्पूर्ण रूप है। (अध्याय: 9(4), पृष्ठ नंबर: 237)
  • जागृत मानव, अभिव्यक्ति सहज रूप में, मानव सहज व्यवहार में सफल हो जाता हैं। यह संबंधों, मूल्यों, मूल्यांकनों, दायित्वों, कर्तव्यों को निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होता है। इसलिए समाधानित होता है। (अध्याय: 9(5), पृष्ठ नंबर: 257)
  • उत्पादन और संतुलन सहज वैभव का मूल सूत्र विकल्प के रूप में होना समझ में आता है कि:-1. भय और प्रलोभन के स्थान पर मूल्यों की पहचान, निर्वाह और मूल्यांकन करने का दायित्व। (अध्याय: 9(10), पृष्ठ नंबर: 305)
  • जागृत मानव अपने तन, मन, धन रूपी अर्थ को आगे पीढ़ी, पीछे पीढ़ी के साथ वर्तमान दायित्व एवं कर्तव्य पूर्वक अर्पित, समर्पित कर सदुपयोग पूर्वक सुख को पा लेता हैं। फलस्वरूप उस-उस की सुरक्षा होना प्रमाणित होता है। (अध्याय: 9(10), पृष्ठ नंबर: 314)
  • तन, मन, धन रूपी अर्थ के सदुपयोग, सुरक्षा क्रम में ही मानव व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी हैं और अखण्ड समाज रचना, रचना कार्य और उसमें भागीदारी का निर्वाह करता हैं, यही जागृत पंरपरा का दायित्व हैं। (अध्याय: 9(10), पृष्ठ नंबर: 315)
  • प्रयोजनशीलता:- जागृतिपूर्ण विधि से प्रमाणित करने में नियोजित किया गया तन, मन, धन रूपी अर्थ।
सदुपयोग पूर्वक सुख उनको मिलता हैं जो अपने तन, मन, धन को विकास और जागृति, कर्तव्य और दायित्वों के लिए अर्पित करते हैं जिसके लिए अर्पित हुआ, उसकी सुरक्षा, जागृति और विकास के अर्थ मंय संपन्न हुई। यही पूरकता विधि हैं। (अध्याय: 9 (10), पृष्ठ नंबर: 315)
  • मानव जागृत परंपरा सहज रूप में जीने के क्रम में शरीर को निरोग रखना भी एक कार्य है। इस क्रम में जो संक्रामक, आक्रामक विधियों से जो कुछ भी परेशानियाँ देखने को मिलती हैं, उसके निवारण के लिए सर्वत्र सहज रूप में पाई जाने वाली जड़ी-बूटी आदि घरेलू वस्तुओं से बहुत सारे रोगों को ठीक करने का अधिकार हर परिवार में स्थापित कर लेना सहज है। क्योंकि परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था क्रम में स्वास्थ्य-संयम कार्यक्रम प्रत्येक परिवार का एक दायित्व हैं। इस क्रम में पवित्र आहार पद्घति एक प्रमुख कार्यक्रम रहेगा। इसे ध्यान में रखकर कृषि कार्य के लिए जो समझदारी चाहिए उसको भी स्वीकृति करना आवश्यक हो जाता हैं। इस क्रम में धरती का उर्वरक संतुलन को बनाए रखना एक आवश्यकता है। इसमें मानव का दायित्व भी बनता हैं। धरती, अनाज उत्पादन-कार्य, उर्वरकता का संतुलन स्वाभाविक रूप में एक-दूसरे से आवर्तनशील कार्य हैं। इस आवर्तनशीलता में पहले भी संतुलन का जिक्र किया जा चुका है। इसमें मुख्य बात यही है कि धरती में उपजी हुई संपूर्ण हरियाली, दाना को निकालने के उपरान्त सभी घास, भूसी, जानवर खाकर गोबर गैस के अनंतर खाद बनकर खेतों में समाने की विधि को अपनाना चाहिए। अन्यथा घास, भूसी ज्यादा होने की स्थिति में अच्छी तरह से सड़ाकर खाद बनाना चाहिए। यह खेतों में डालना चाहिए। यह विधि सर्वाधिक कास्तकारों के यहाँ प्रचलन में हैं ही। इसकी तादाद बढ़ाने की आवश्यकता है। जैसे-जैसे खेत अधिक होता हैं वैसे-वैसे खाद की मात्रा भी अधिक होना आवश्यक है। कीटनाशक या कीट नियंत्रक कार्यों को भी कास्तकारों को अपने हाथों में बनाए रखना चाहिए जिससे पराधीनता की नौबत न आए। (अध्याय: 9(10), पृष्ठ नंबर: 330) 
  • प्रत्येक मानव मूलत: सुख धर्मी है ही। आशा के रूप में यह मानव में प्रमाणित होता है अथवा इच्छा के रूप में यह पाया जाता है। इसकी सफलता की निरंतरता नियति सहज व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का फलन हैं। सम्पूर्ण परंपराएँ व्यवस्था के संबंध में भ्रमित होने के फलस्वरूप, प्रत्येक मानव अपने में कल्पनाशील होने के कारण रुचि मूलक विधि से मानसिकता में आना एक बाध्यता बन गई। इतिहास के अनुसार भी, स्वर्ग की परिकल्पना भी रुचि के अनुकूल वर्णन हैं। रुचि सहज कल्पनाएँ इंद्रिय सन्निकर्ष के आधार पर हैं। इंद्रिय सन्निकर्ष शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के रूप में होना पाया जाता है। इसी का रुचिकर होना, अरुचिकर होना देखा जाता है। रूचि की एकरूपता का, सार्वभौमिकता का कोई नियम नहीं होता। रुचि मूलक मानसिकता को हटाने के लिए अथवा परिवर्तन करने के लिए एक मात्र प्रस्ताव उपदेश के रूप में मोक्ष को बताया गया। उसके लिए विरक्तिवादी चरित्र, साधना और उसके क्रम का प्रस्ताव भी मानव के सम्मुख प्रस्तुत है। यह भी देखने को मिला कि विरक्ति में मानव ने अपने को अर्पित भी किया। यह सब होने के उपरान्त भी, किसी भी परपंरा में सार्वभौम व्यवस्था निखरकर, उभरकर जनमानस में नहीं आया। अथवा इस रिक्तता के चलते सामान्य मानव के लिए रुचि मूलक प्रणाली से कल्पनाओं को दौड़ाना सहज हो गया। फलत: अव्यवस्था के अनंतर पुन: अव्यवस्था हाथ लगते आया। मूल मुद्दा भक्ति, विरक्ति, भोग और संग्रह क्रम में अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या और कार्यक्रम लोक विदित नहीं हो पाई। अभ्यास में आना तो दूर ही रहा। आज की स्थिति में सर्वाधिक संग्रह, भोग की मानसिकता अथवा लोक मानसिकता को देखते हुए व्यवस्था को पहचानना एक अनिवार्य स्थिति निर्मित हो चुकी है। इसके पक्ष में अर्थात् सार्वभौम व्यवस्था को पहचानने के पक्ष में सर्वमानव में सुखापेक्षा (सुख की अपेक्षा) एक मात्र सूत्र हैं। सुख सहज सूत्र व्याख्या ही भरोसा करने और प्रयोग कर, अभ्यास कर, प्रमाणित कर, लोक व्यापीकरण करने योग्य कार्यक्रम दिखाई पड़ता है। इसका मूल ध्रुव जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन तथा मानवीयतापूर्ण आचरण का समीकरण ही हैं। इसके लिए अस्तित्व सहज सूत्र, सह-अस्तित्व सहज व्याख्या, अध्ययन सुलभ हो चुका है। अस्तु, मानवीयतापूर्ण विधि और व्यवस्था को पहचानना सुलभ हुआ। इसको व्यवहार रूप देना ही इसका लोक व्यापीकरण ही हमारी निष्ठा और कर्तव्य हैं। इसी विधि से पाई जाने वाली सुखाकांक्षा, व्यवहार और कार्यक्रम सहज सुलभ होने की संभावना आ चुकी हैं। इसी संभावना के आधार पर प्रत्येक मानव मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करने के कार्यक्रम को परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था क्रम में पहचान कर निर्वाह कर सकते हैं। इससे ही प्रत्येक मानव सुख, समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व को अनुभव करेगा।  (अध्याय: 9 (11), पृष्ठ नंबर: 355-357)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी 

No comments:

Post a Comment