Thursday 18 January 2018

दायित्व और कर्तव्य/ कर्त्तव्य

परिभाषा: 
दायित्व   
  • संबंधों की पहचान सहित मूल्यों का निर्वाह।
  • परस्पर व्यवहार, व्यवसाय एवं व्यवस्थात्मक संबंधों में निहित मूल्यानुभूति सहित शिष्टतापूर्ण निर्वाह।
  • सम्बन्धों में ज़िम्मेदारी स्वीकारना, उत्तरदायित्व का वहन, निष्ठा का बोध।  (स्रोत- परिभाषा संहिता, संस्करण : 2012, मुद्रण: 14 जनवरी 2016, पेज नंबर: 89)  
कर्त्तव्य  
  • उत्पादन कार्य में प्रमाणित होने की प्रक्रिया  और सेवा कार्य सहित उत्पादित वस्तुओं का सदुपयोग प्रायोजित करना।
  • प्रत्येक स्तर में प्राप्त संबंधों एवं सपर्कों और उनमें निहित मूल्य निर्वाह।
  • दायित्व का निर्वाह, पूरा करना।  (स्रोत- परिभाषा संहिता: संस्करण: 2012 : मुद्रण: 2016, पृष्ठ नंबर:55)
अन्य संदर्भ परिभाषा संहिता से (संस्करण : 2012 मुद्रण: 14 जनवरी 2016)
  • कर्त्तव्य बुद्धि - उत्पादन कार्य में कुशलता निपुणता को नियोजित करने की विधि सहज प्रवृत्ति। (पृष्ठ नंबर:55)
  • कर्त्तव्यवादी  - उत्पादन संबंधी व्यवहार को पूरा करने में कटिबद्धता। (पृष्ठ नंबर: 55)
  • कर्त्तव्य निष्ठा
- ''त्व'' सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी।
- समृद्धि सम्पन्नता का प्रमाण।
- मानवीयतापूर्ण शिक्षा, संस्कार, आचरण, व्यवहार में निष्ठा। स्वतंत्रता स्वराज्य में निष्ठा।
- उत्तरदायित्व का वहन। (पृष्ठ नंबर: 55)
(दायित्व और कर्तव्य पर बाबा जी के साथ राकेश भैया जी का संवाद )

(दायित्व और कर्त्तव्य को लेकर मध्यस्थ दर्शन वाङ्ग्मय में आये सन्दर्भों को निम्न क्रम से संकलित किया गया है।  नीचे दिये गए प्रत्येक लिंक पर जाकर आप संकलन देख सकते हैं।)


  1. मानव व्यवहार दर्शन 
  2. मानव कर्म दर्शन 
  3. मानव अभ्यास दर्शन
  4. मानव अनुभव दर्शन
  5. समाधानात्मक भौतिकवाद
  6. व्यवहारात्मक जनवाद
  7. अनुभवात्मक अध्यात्मवाद
  8. व्यवहारवादी समाजशास्त्र 
  9. आवर्तनशील अर्थशास्त्र
  10. मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान
  11. मानवीय संविधान सूत्र व्याख्या
  12. जीवन विद्या –एक परिचय 
  13. विकल्प  
  14. जीवन विद्या- अध्ययन बिन्दु  
  15. संवाद- 1  
  16. संवाद-2
नोट- (सभी संदर्भ संबन्धित वाङ्ग्मयों के PDF से लिए गए हैं कोई भी अंतर होने पर कृपया मूल वाङ्ग्मय को ही सही माना जाए। ) 


स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : जीवन विद्या -अध्ययन बिन्दु

जीवन विद्या- अध्ययन बिन्दु (अध्याय:, संस्करण:2011, मुद्रण:2016 )
  • साथी-सहयोगी (संबंध) -  दायित्व-कर्तव्य (क्रिया) (अध्याय: , पृष्ठ नंबर: 21)
  • ममता - स्वयं में, से,के लिए प्रतिरूपता सहज स्वीकृति, उत्सव निरंतरता 
उदारता – प्रतिफलापेक्षा विहीन कर्तव्य दायित्व वहन, तन मन धन अर्पण (अध्याय: , पृष्ठ नंबर: 23)
  • साथी सहयोगी के साथ विश्वास  निर्वाह की निरंतरता
स्नेह, ममता, दया, सहज निष्ठा, उदारता, दायित्व का कर्तव्य सहित वस्तु व सेवा प्रदान करने के रूप में। (अध्याय: , पृष्ठ नंबर: 24)
  • अस्तित्वमूलक मानव केंद्रित चिंतन पूर्वक सहअस्तित्ववादी व्यवस्था विधि से मोहल्ला, ग्राम, परिवार सभा 
दस परिवार समूह सभा में से निर्वाचित प्रतिनिधि
दस जन प्रतिनिधि परिवार सभा से मनोनीत पाँच समितियाँ, यथा -
i) मानवीय शिक्षा-संस्कार समिति
ii) मानवीय न्याय-सुरक्षा समिति
iii) मानवीय उत्पादन-कार्य समिति
iv) मानवीय विनिमय-कोष समिति
v) मानवीय स्वास्थ्य-संयम समिति
मोहल्ला, ग्राम परिवार सभा सहज प्रयोजनों के अर्थ में - और दस परिवार समूह सहज आवश्यकता के अनुसार समिति में कार्यरत व्यक्ति का दायित्व निश्चयन रहेगा (अध्याय: , पृष्ठ नंबर: 24, 30, 31, 34, 35, 36)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी 

Thursday 11 January 2018

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : मानव व्यवहार दर्शन

मानव व्यवहार दर्शन (संस्करण: 2011, मुद्रण- 2015)
  • सामाजिकता का निर्वाह कर्त्तव्य एवं निष्ठा से है, जिससे अखंडता- सार्वभौमता रूप में सामाजिकता का विकास तथा अन्यथा से ह्रास है.
निर्वाह: - समाधान, समृद्धि सहित उपयोग, सदुपयोग व प्रयोजनों को प्रमाणित करना अथवा परस्पर पूरक सिद्ध होना।
कर्त्तव्य: - मानवीयता पूर्ण विधि से करने योग्य कार्य-व्यवहार एवं मूल्य-निर्वाह क्रिया ही कर्त्तव्य है.
निष्ठा: - कर्त्तव्य एवं दायित्व के निर्वाह की निरंतरता ही निष्ठा है. (अध्याय: 4, पृष्ठ नंबर:20)
  • मानव द्वारा प्राप्त कर्तव्यों का, सुख के पोषणवादी रीति व नीति का पालन करना ही धर्म नीति है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर: 53) 
  • परिवार, समाज तथा व्यवस्था दत्त भेद से कर्त्तव्य को स्वीकारने तथा इसे निष्ठा, नियम एवं सत्यतापूर्वक पालन करने पर ही मानव में विशेष प्रतिभा का विकास हर स्तर पर है अर्थात पारिवारिक, सामाजिक तथा व्यवस्था के साथ सफलताएं इसके विपरीत स्थिति में प्राप्त प्रतिभा तथा सफलता भी निरस्त होती है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर: 53)
  • कर्ता द्वारा कार्य का संपादन आवश्यकता की पूर्ति हेतु अथवा कर्त्तव्य के पालन हेतु किया जाता है. (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर: 56)
  • मानव द्वारा मानवीयता के प्रति कर्त्तव्य-बुद्धि को अपनाए बिना जागृति, जागृति के बिना समाधान- समृद्धि, समाधान-समृद्धि के बिना मानवत्व- समत्व,मानवत्व- समत्व के बिना पूर्ण फल, पूर्ण फल के बिना परंपरा में स्फुरण या प्रेरणा और स्फुरण या प्रेरणा के बिना कर्त्तव्य बुद्धि प्राप्त नहीं होती है. (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर: 57)
  • मानवीयतापूर्ण बुद्धि द्वारा निश्चित कर्त्तव्य के परिपालन से मानव सफल एवं सुखी हुआ है. (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 57)
  • कर्त्तव्य की ओर अग्रेषित संवेग को स्फुरण तथा प्रेरणा एवं विवशता पूर्वक प्राप्त बौद्धिक प्रयास एवं शारीरिक चेष्टा को प्रतिक्रांति की संज्ञा है.  श्रेष्ठता की ओर  क्रांति और नेष्ठता की ओर प्रतिक्रांति संज्ञा है.(अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 60)
  • मानव की परस्परता में जो संपर्क एवं सम्बन्ध है वह निर्वाह के लिए, विकास (जागृति) के लिए, तथा भोग के भेद से है। जागृति के लिए जो संपर्क एवं सम्बन्ध का प्रयास है, वह सामाजिकता के लिए है.  निर्वाह के लिए जो संपर्क एवं सम्बन्ध का प्रयास है, वह कर्त्तव्य पालन करते हुए वर्तमान को संतुलित रखने के लिए और भोगेच्छा से जो संपर्क एवं सम्बन्ध का प्रयास है, वह मात्र इन्द्रिय लिप्सा एवं शोषण के कारण है. जिससे असंतुलन और समस्या वश पीड़ा होता है. (अध्याय:7 , पृष्ठ नंबर: 61)
  • जागृति के लिए किये गए व्यवहार को पुरुषार्थ, निर्वाह के लिए किये गए प्रयास को कर्त्तव्य तथा भोग के लिए किये गए व्यवहार को विवशता के नाम से जाना गया है. (अध्याय:7 , पृष्ठ नंबर: 61)
  • कर्त्तव्य व आवश्यकता का भाव मानव में है.
कर्त्तव्य: - संबंधों की पहचान सहित निर्वाह क्रिया, जिससे निष्ठा का बोध होता है.
दायित्व: - संबंधों की पहचान सहित मूल्यों का निर्वाह सहित मूल्यांकन क्रिया जिससे तृप्ति का बोध होता है. (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 61)
  • कर्त्तव्य की पूर्ति है, भोग रुपी आवश्यकता की पूर्ति नहीं है. (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर:61)
  • कर्त्तव्य की पूर्ति इसलिए संभव है कि वह निश्चित व सीमित है. (अध्याय:7 , पृष्ठ नंबर:61)
  • भोग रुपी आवश्यकताएं (सुविधा संग्रह) की पूर्ति इसलिए संभव नहीं है क्योंकि वह अनिश्चित व असीमित है. 
यही कारण है कि कर्त्तव्यवादी प्रगति शान्ति की ओर तथा भोगवादी प्रवृत्ति अशांति की ओर उन्मुख है. (अध्याय:7 , पृष्ठ नंबर: 62)
  • समस्त कर्त्तव्य सम्बन्ध एवं संपर्क की सीमा तक ही हैं. (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 62)
  • कर्त्तव्य की पूर्ति के बिना मानव का जीवन सफल नहीं है. (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर:62)
  • सह-अस्तित्व में विरोध का विजय अथवा शमन, विरोध शमन से जागृति, जागृति से सहज जीवन, सहज जीवन से स्वर्गीयता, स्वर्गीयता से सह-अस्तित्व में अनुभव, अनुभव से कर्त्तव्य -निष्ठा, कर्त्तव्य निष्ठा से सफलता, सफलता से विज्ञान एवं विवेक, विज्ञान एवं विवेक से स्वयंस्फूर्त जीवन, और स्वयंस्फूर्त जीवन से ही सह-अस्तित्व प्रमाणित होता है. (अध्याय:12 , पृष्ठ नंबर: 86)
  • जन्म-सिद्ध अधिकार, प्रदत्त अधिकार तथा समयोचित अधिकार भेद से मानव कर्त्तव्य-पालन के लिए अधिकार प्राप्त करता है.  (अध्याय:14 , पृष्ठ नंबर: 92)
  • प्रदत्त अधिकार कुटुंब, समाज, तथा व्यवस्था-दत्त भेद से हैं. 
कुटुंब-दत्त अधिकार कुटुंब में कर्तव्यों-दायित्वों के पालन, चरित्र-संरक्षण, प्राण-पोषण व अर्थोपार्जन के लक्ष्य भेद से है. (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 92-93)
समाज-दत्त अधिकार समाज-दत्त कर्तव्यों के पालन, गरिमापूर्ण व्यक्तित्व एवं सार्थक शास्त्र प्रचार तथा सिद्धांतों के शोध के आशय भेद से है. (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 93)
व्यवस्था-दत्त अधिकार व्यवस्था-दत्त कर्तव्यों के पालन, शास्त्र सिद्धांतों का कुशलता, निपुणता, पांडित्य पूर्वक अध्ययन, व्यवहार व कर्माभ्यास में परिपूर्णता और अधिकार पूर्ण व्यक्तित्व पर निर्भर करता है, जिससे सफलता है, अन्यथा में असफलता है. (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 93)
  • प्राप्त कर्त्तव्य वांछित, प्रेरित व सूचित भेद से हैं.  (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 94)
  • प्राप्त कर्त्तव्य का निश्चयपूर्वक किया गया मनन, चिंतन, विचार, चेष्टा, प्रयोग, प्रयास, व्यवसाय, व अनुसंधान क्रिया ही ‘निष्ठा’ है.  अन्य शब्दों में निश्चित क्रिया की पूर्णता के लिए पाए जाने वाले वैचारिक व शारीरिक योग की निरंतरता ही निष्ठा है. (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 94)
  • प्रतिक्रांति से भ्रान्ति तथा कर्त्तव्य से शान्ति है. (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 103)
  • न्याय से पद, उदारता से धन, दया पूर्वक बल, सच्चरित्रता से रूप, विज्ञान व विवेक से बुद्धि, निष्ठा से अध्ययन, कर्त्तव्य से सेवा, संतोष से तप, स्नेह से लोक, प्रेम से लोकेश, आज्ञा पालन से रोगी एवं बालक की सफलता एवं कल्याण सिद्ध है. (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 103)
  • अवसरवादी मानव प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ से ग्रसित तथा व्यवहार में दिखावा करते हैं.  जिनसे असंतुष्टि, व्याकुलता, व अनिश्चयता की पीड़ा ही उपलब्ध होती है, क्योंकि अज्ञान की मान्यताएं शीघ्र परिवर्तनशील हैं.  अवसरवादी मानव के कर्त्तव्य का लक्ष्य भी सुख है, पर वह इस प्रणाली से सफल नहीं होता. (अध्याय: 15, पृष्ठ नंबर: 104)
  • भ्रान्ति के विपरीत में निर्भ्रमता है.  निर्भ्रमता ही न्याय का कारण है.  निर्भ्रमता के फलस्वरूप समाधान, मनोबल, सुख, कर्त्तव्य में निष्ठा, स्नेह, अनुराग, शान्ति, संतोष, प्रेम, सहजता, सरलता, उत्साह, आह्लाद तथा आनंद सहज उपलब्धि है.  यह सब अनन्य रूप में संबद्ध हैं। 
समाधान: - क्यों, कैसे की पूर्ति अथवा क्रिया से अधिक ज्ञान की ‘समाधान’ संज्ञा है.
मनोबल: - केंद्रीकृत मन:स्थिति अर्थात समझदारी को प्रमाणित करने में मनोयोग स्थिति की     ‘मनोबल’ संज्ञा है.
सुख: - न्याय में दृढ़ता की सुख संज्ञा है.
कर्त्तव्य में निष्ठा: - उत्तरदायित्व का वहन ही कर्त्तव्य में निष्ठा है.
स्नेह: - न्याय, धर्म एवं सत्य की निर्विरोधता ही ‘स्नेह’ है.
अनुराग: - निर्भ्रमता से प्राप्त आप्लावन की ‘अनुराग’ संज्ञा है.
शान्ति: - वेदना विहीन जागृत वैचारिक स्थिति.
संतोष: - अभाव का अभाव (समृद्धि, समाधान) अथवा अभाव से अभावित चित्रण विचार सम्पन्नता.
प्रेम: - दिव्य-मानव, देव मानव सान्निध्यता, सामीप्यता, सारूप्यता तथा सालोक्यता प्राप्त करने हेतु अंतिम संकल्प की ‘प्रेम’ संज्ञा है.  दया, कृपा, करुणा की संयुक्त अभिव्यक्ति ही प्रेम है.
सहजता: - जागृति सहज मानसिक, वैचारिक, चिंतन स्थिति में संगीत है, उसकी ‘सहजता’ संज्ञा है.
               :- रहस्यता से रहित जो मानसिक स्थिति है उसकी ‘सहजता’ संज्ञा है।
सरलता: - जागृति सहज स्वभावपूर्ण व्यवहार की ‘सरलता’ संज्ञा है.  कायिक, वाचिक, मानसिक रूप में नियमों को वचन पूर्वक प्रमाणित करना.
आनंद: - सह-अस्तित्व में अनुभूति की आनंद संज्ञा है.
पूर्णता: - सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्नता ही ‘पूर्णता’ है.
निर्भ्रमता: - न्याय, धर्म, एवं सत्यतापूर्ण व्यवहार, भाषा, भाव, बोध, संकल्प व अनुभूति की ‘निर्भ्रमता’ संज्ञा है.
* विचार का प्रतिरूप ही भाव, भाषा, एवं व्यवहार के रूप में परिलक्षित होता है.
* न्याय, धर्म, एवं सत्यानुभूति योग्य क्षमता से व्यवहार, भाव, व भाषा संयमित और परिमार्जित होता है. (अध्याय:15 , पृष्ठ नंबर:111-112)
  • पवित्र विचार ही मनोबल( अर्थात पवित्र विचारों का व्यवहार में प्रमाणित होना), मनोबल ही कर्त्तव्य निष्ठा, कर्त्तव्य निष्ठा ही समाधान-समृद्धि, समाधान-समृद्धि ही सह-अस्तित्व तथा सह-अस्तित्व ही पवित्र विचार है, जिससे न्यायवादी व्यवहार प्रतिष्ठित और अवसरवादी व्यवहार अप्रतिष्ठित है. (अध्याय:15 , पृष्ठ नंबर:112)
  • संबंध एवं संपर्क के विषय में एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है। इन दोनों में दायित्व का निर्वाह आदान प्रदान के आधार पर होता है परंतु दोनों में भेद यह है कि संबंध की परस्परता में प्रत्याशाएं पूर्व निश्चित रहती है तथा इसके अनुरूप ही आदान व प्रदान होता है। संपर्क में आदान एवं प्रदान परस्परता में पूर्व निश्चित नहीं रहता। इसलिए संपर्क में आदान व प्रदान क्रियाएँ एच्छिक रूप में अवस्थित है। संबंध दायित्व प्रधान एवं संपर्क कर्तव्य प्रधान है। संपर्क में परस्परता में स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष दयापूर्ण कार्य व्यवहार की अपेक्षा रहती है। मानव अथवा इससे विकसित तक ही संबंध है जबकि समस्त इकाइयाँ परस्पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क में है ही। (अध्याय: 16, पृष्ठ नंबर:116)     
  • सम्पूर्ण  संबंधों के मूल में मूल्यांकन आवश्यक है। मूल्यांकन मौलिकता का ही  होता है। मौलिकता के आधार पर ही कर्तव्य का निर्धारण तथा निर्वाह होताहै। दायित्वों का निर्वाह जिस इकाई के प्रति होना है उस इकाई के प्रति न होने से उसका पोषण अवरूद्ध होता है अथवा शोषण है साथ ही जिस इकाई द्वारा दायित्व का निर्वाह  होना है उसे, न होने की स्थिति में प्रतिफल के रूप में अविश्वास ही मिलेगा । अविश्वास ही द्रोह, विद्रोह तथा आतंक का कारण बनता है जो शोषण की ओर प्रेरित करता है।  (अध्याय:16 , पृष्ठ नंबर:117)
  • मानव के लिए पोषण युक्त संपर्कात्मक एवं संबंधात्मक विचार एवं तदनुसार व्यवहार से ही मानवीयता की स्थापना संभव है, अन्यथा, शोषण और अमानवीयता की ही पीड़ा है ।
शोषण एवं पोषण कुल तीन ही प्रकार से होता है :-
* दायित्व का निर्वाह करने से पोषण अन्यथा शोषण है। प्राप्त दायित्वों में नियोजित होने वाली सेवा को नियोजित न करते हुए मात्र स्वार्थ के लिए जो प्रयत्न है एवं दायित्व को अस्वीकारने की जो प्रवृत्ति है, उसको दायित्व का निर्वाह न करना कहते हैं।
* दायित्व को निर्वाह न करने पर स्वयम् का विकास, जिसके साथ निर्वाह करना है, उसका विकास तथा इन दोनों के विकास से जिन तीसरे पक्ष का विकास हो सकता है वह सभी अवरुद्घ हो जाते हैं।  विकास को अवरुद्ध करना ही शोषण है।
* दायित्व का अपव्यय अथवा सद्व्यय करना :- दायित्व के निर्वाह में आलस्य एवं प्रमाद-पूर्वक प्राप्त प्रतिभा और वर्चस्व  का न्यून मूल्य में उपयोग करना ही दायित्व का अपव्यय है।
* दायित्व का विरोध करना अथवा पालन करना:- मौलिक मान्यताएँ, जो संबंध एवं संपर्क में निहित हैं उसके विरोध में ह्रास के योग्य मान्यता को प्रचारित एवं प्रोत्साहित करना ही दायित्व का विरोध करना है । दायित्वों का विरोध अभिमानवश या अज्ञानवश किया जाता है।(अध्याय: 16, पृष्ठ नंबर:117-118)
          • माता पिता की पहचान हर मानव संतान किया ही करता है.  शिशुकाल की स्वस्थता का यह पहचान भी है।  अतएव माता-पिता जिन मूल्यों के साथ प्रस्तुत होते हैं, वह ममता और वात्सल्य है.  ममता मूल्य के रूप में पोषण प्रधान क्रिया होने के रूप में या कर्त्तव्य होने के रूप में स्पष्ट है.  इसलिए माँ की भूमिका ममता प्रधान वात्सल्य के रूप में समझ आती है.  ममता मूल्य के धारक-वाहक ही स्वयं में माँ है तथा पिता वात्सल्य प्रधान ममता के रूप में समझ में आता है। (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर:122)
          • माता एवं पिता हर संतान से उनकी अवस्था के अनुरूप प्रत्याशा रखते हैं.  उदाहरणार्थ शैशव-अवस्था में केवल बालक का लालन-पालन ही माता-पिता का पुत्र-पुत्री के प्रति कर्त्तव्य एवं उद्देश्य होता है तथा इस कर्त्तव्य के निर्वाह के फलस्वरूप वह मात्र शिशु की मुस्कुराहट की ही अपेक्षा रखते हैं।  कौमार्यावस्था में किंचित शिक्षा एवं भाषा का परिमार्जन चाहते हैं.  इसी अवस्था में आज्ञापालन प्रवृत्ति, अनुशासन, शुचिता, संस्कृति का अनुकरण, परंपरा के गौरव का पालन करने की अपेक्षा होती है। कौमार्यावस्था के अनंतर संतान में उत्पादन सहित उत्तम सभ्यता की कामना करते हैं.  सभ्यता के मूल में हर माता-पिता अपने संतान से कृतज्ञता (गौरवता) पाना चाहते हैं तथा केवल इस एक अमूल्य निधि को पाने के लिए तन, मन एवं धन से संतान की सेवा किया करते हैं.  संतान के लिए हर माता-पिता अपने मन में अभ्युदय, समृद्धि की ही कामना रखते हैं, इन सबके मूल में कृतज्ञता की वांछा रहती है.  जो संतान माता-पिता एवं गुरु के कृतज्ञ नहीं होते हैं, उनका कृतघ्न होना अनिवार्य है, जिससे वह स्वयं क्लेश परंपरा को प्राप्त करते हैं और दूसरों को भी क्लेशित करते हैं। (अध्याय:16-(i) , पृष्ठ नंबर: 122)
          • साथी-सहयोगी सम्बन्ध: -एक दूसरे के लिए पूरक विधि से सार्थक होना पाया जाता है.  यह सम्बन्ध सहयोगी की कर्त्तव्य निष्ठा से व साथी के दायित्व निष्ठा से सार्थक होना पाया जाता है.  यह परस्पर पूरक सम्बन्ध है.  इनमे मूल मुद्दा दायित्व को निर्वाह करना, कर्तव्यों को पूरा करने में ही परस्परता में संगीत होना पाया जाता है.  यह जागृत परंपरा की देन है.  इसमें मुख्यतः विश्वास मूल्य रहता ही है.  गौरव, सम्मान, स्नेह मूल्य अर्पित रहता है.  सहयोगी के प्रति सम्मान मूल्य विश्वास के साथ अर्पित रहता है। इस विधि से मंगल मैत्री होना स्वाभाविक है. (अध्याय:16-(i) , पृष्ठ नंबर:126)
          • विकास के लिए जो मान्यताएं हैं वे अंतरंग में अभ्यास एवं जागृति के लिए प्रेरणा स्त्रोत तथा बहिरंग में समाजिकता तथा व्यवसाय के लिए प्रेरणा स्त्रोत है। सामाजिक दायित्व का प्रमाण हर समझदार परिवार में समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने में प्रमाणित होता है.  यह क्रमशः सम्पूर्ण मानव का एक इकाई के रूप में पहचान पाना बन जाता है.  पहचानने के फलन में निर्वाह करना बनता ही है.  ऐसी निर्वाह विधि स्वाभाविक रूप में मूल्यों से अनुबंधित रहता ही है। यही व्यवस्था में भागीदारी की स्थिति में परिवार-व्यवस्था से अंतर्राष्ट्रीय या विश्व-परिवार व्यवस्था तक स्थितियों में भागीदारी की आवश्यकता रहता ही है।  ऐसे भागीदारी के क्रम में मानव अपने में, से समझदारी विधि से प्रस्तुत होना बनता है।  समझदारी विधि से ही हर नर-नारी व्यवस्था में भागीदारी करना सुलभ सहज और आवश्यक है।  इसी क्रम से मानव लक्ष्य प्रमाणित होते हैं जो समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व के रूप में पहचाना गया है, इसे प्रमाणित करना ही मानवीयता पूर्ण व्यवस्था है। (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर: 126-127)
          • सहयोगी कर्त्तव्य पूर्वक सुखी होता है. (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर:128)
          • साथी दायित्व पूर्वक सुखी होता है. (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर:128)
          • सहयोगी का जीवन कर्त्तव्य को निर्वाह करने से सफल है. (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर:129)
          • साथी का जीवन दायित्वों को निर्वाह करने से सफल है. (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर:129)
          • भाई या बहन का जीवन एक दूसरे के अनन्य जागृति की आशा से तथा स्नेह सहित दायित्व वहन करने से है. (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर:129)
          • अध्ययन को सफल बनाने का दायित्व अध्यापक, अध्यापन, तथा शिक्षा-वस्तु और प्रणाली पर है, क्योंकि यह चारों परस्पर पूरक हैं। (अध्याय: 16-(ii), पृष्ठ नंबर: 136)
          • अतः परस्परता में जो व्यतिरेक है उसके उन्मूलन के लिए तथा परस्परता में विश्वास को उत्पन्न करने के लिए, जो जागृति के लिए प्रथम सोपान है, मानवीयतापूर्ण आचरण व सामाजिकता, न्यायपूर्ण व्यवस्था, सत्य प्रतिष्ठित शिक्षा, एवं इसमें विश्वासपूर्वक व्यक्तिगत निष्ठा उत्पन्न करना सबका सम्मिलित दायित्व सिद्ध होता है। (अध्याय: 17, पृष्ठ नंबर: 148)
          • भौतिक, रासायनिक वस्तु व सेवा में आसक्ति से संग्रह, लोभ व कामुकता; प्राण तत्व में आसक्ति से द्वेष, मोह, मद, क्रोध, दर्प; जीवत्व (जीने की आशा) में आसक्ति से अभिमान, अज्ञान, ईर्ष्या, और मत्सर यह अजागृत मानव की प्रवृत्तियां हैं।  सत्य के प्रति निष्ठा से कर्त्तव्य में दृढ़ता, असंग्रह, सरलता तथा अभयता व प्रेमपूर्ण मूल प्रवृत्तियां सक्रिय होती हैं. (अध्याय:17 , पृष्ठ नंबर:152)
          • व्यवहार का ईष्ट-अनिष्ट, उत्थान-पतन, विकास-ह्रास, उचित-अनुचित, लाभ-हानि, न्याय-अन्याय, पुण्य-पाप, विधि-निषेध, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, समाधान-समस्या, आवश्यक-अनावश्यक, भेद-प्रभेद से तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है.  व्यक्ति का मूल्यांकन उसके चैतन्य पक्ष की प्रतिभा का ही मूल्यांकन है, क्योंकि चैतन्य इकाई द्वारा ही जड़ पक्ष का चालन, संचालन, प्रतिचालन, प्रतिपालन, परिपालन, परिपोषण, मूल्यांकन, परिवर्धन व परिवर्तन की क्रिया का संपादन हुआ है, जो उसी की इच्छा व विचार का पूर्व रूप है. (अध्याय: 18, पृष्ठ नंबर:157)
          • कर्त्तव्य: - प्रत्येक स्तर पर प्राप्त सम्बन्ध एवं संपर्क के मध्य निहित मानवीयतापूर्ण आशा व प्रत्याशा पूर्वक व्यवहार। सम्बन्धों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह।  (अध्याय: 18, पृष्ठ नंबर: 158)
          • सुसंस्कार के लिए वातावरण एवं अध्ययन ही प्रधान कारण है एवं सहायक भी है.  इसको सुरक्षित तथा परिमार्जित करने का दायित्व मनीषियों पर निर्भर है.  न्यायपूर्ण व्यवहार तथा अखंड सामाजिकता की प्रेरणा सुसंस्कारों के वर्धन में सहायक है। (अध्याय: 18, पृष्ठ नंबर: 160)
          • साथी, दायित्व
          (११) साथी: - सर्वतोमुखी समाधान प्राप्त व्यक्ति।:- स्वयं स्फूर्त विधि से दृष्टा पद में हों।:- स्वयं को जानकर, मानकर, पहचान कर, निर्वाह करने के क्रम में साथी कहलाता है।(१२) दायित्व: - परस्पर व्यवहार, व्यवसाय एवं व्यवस्थात्मक संबंधों में निहित, मूल्यानुभूति सहित, शिष्टतापूर्ण व्यवहार। (अध्याय: 18, पृष्ठ नंबर: 174-175)
          • सहयोगी, कर्त्तव्य
          सहयोगी: - प्रणेता अथवा अभ्युदय के अर्थ में मार्गदर्शक अथवा प्रेरक के साथ-साथ अनुगमन करना, स्वीकार पूर्वक गतित होना.  उत्पादन में सहयोगी होना.
          कर्त्तव्य: - प्रत्येक स्तर में प्राप्त संबंधों एवं संपर्कों और उसमे निहित मूल्यों का निर्वाह (अध्याय:18, पृष्ठ नंबर: 175)

          स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
          प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

          दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : मानव कर्म दर्शन

          मानव कर्म दर्शन (संस्करण:2010, मुद्रण:2017)
          • मानव के लिये अशेष परिस्थितियाँ उनसे सम्पादित कर्म, उपासना, ज्ञान-योग्य-क्षमता से ही निर्मित होती हैं। यही परिस्थितियाँ  उचित अनुचित वातावरण का रूप धारण करती हैं। 
          जागृत-मानव का आचरण एवं व्यवहार ही व्यवस्था है जो शांति का कारण है।
          जहाँ तक मानव का सम्पर्क है वहाँ तक दायित्व का अभाव नहीं है।
          संबंध में दायित्व का निर्वाह होता ही है।
          संबंध में दायित्व प्रधान कर्त्तव्य और संपर्क में कर्त्तव्य प्रधान दायित्व वर्तमान है। यही सामाजिकता है। (अध्याय: 1, पृष्ठ नंबर: 12)
          • मानवीयता पूर्ण व्यवहार सहज ‘‘नियम-त्रय’’ का आचरण ही व्यक्तित्व है। ऐसे व्यक्तित्व के निर्माण में सक्रिय योगदान ही कर्त्तव्य है। यही पुरूषार्थ है। यही प्रबुद्घता है। (अध्याय:2 , पृष्ठ नंबर:46)
          • उपासना व्यक्ति में व्यक्तित्व तथा कर्त्तव्य का प्रत्यक्ष रूप प्रदान करती है क्योंकि उपासना स्वयं में शिक्षा एवं व्यवस्था है। इसलिये यही प्रबुद्घता है। प्रबुद्घता ही मानव की सीमा में शिक्षा एवं व्यवस्था है। (अध्याय:2 , पृष्ठ नंबर:46)
          • ऐसी स्थिति में ब्रह्माण्डीय किरण जो पानी बनने के लिए संयोजक रहा है, ऐसे प्रदूषण के संयोजन वश इसके विपरीत घटना का कारण (पानी के विघटन का कारण) बन सकता है। ऐसी स्थिति में मानव का क्या हाल होगा? इस भीषण दुर्घटना का धरती के छाती पर हम जितने भी विज्ञानी, ज्ञानी,अज्ञानी  कहलाते हैं, प्रौद्योगिकी संसार के कर्णधार कहलाते हैं, क्या इनके पास इसका कोई उत्तर है। इस बात का उत्तर देने वाला कोई दिखता नहीं। क्योंकि, जिम्मेदारी कोई स्वीकारता नहीं। यही इसका गवाही है। जिम्मेदारी स्वीकारने में परेशानी है, क्योंकि व्यक्ति प्रायश्चित के लिए उत्तर दायी हो जाता है। इसलिए इसके सुधार के लिए प्रयास ही एकमात्र कर्त्तव्य लगता है। इसकी औचित्यता अधिकाधिक लोगों को स्वीकार होता है।(अध्याय: 3-7, पृष्ठ नंबर: 88-89)
          • चौथी विपदा धरती के ताप ग्रस्त होने के आधार पर धरती के चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र का विचलित होना भी एक संभवना है। इस धरती में उत्तर और दक्षिणी ध्रुव के बीच, स्वयं स्फूर्त विधि से चुम्बकीय धारा अथवा चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र बना हुआ है। इस बात को भी स्वीकारा गया है। इसी आधार पर दिशा सूचक यंत्र तंत्र बनाकर प्रयोग कर चुके हैं। इस विधि से जो ध्रुव से ध्रुव अपने संबद्घता को बनाये रखा है, इसके आधार पर ही धरती के ठोस होने का अविरल कार्य संपादित होता रहा। इससे धरती के परत से परत ऊष्मा संग्रहण, पाचन, संतुलनीकरण संपादित होती रही। इससे धरती का स्वास्थ्य, ताप के रूप में संतुलित रहने की व्यवस्था बनी रही है। अभी धरती के असंतुलित होने की घोषणा तो मानव करता है, किन्तु उसके दायित्व को स्वीकारता नहीं, इसलिए उपायों को खोजना बनता नहीं, फलस्वरूप निराकरण होना बनता नहीं। इस क्रम में आगे और धरती में ताप बढ़ने की संभावना को स्वीकारा जा रहा है यह इस बात के लिए आगाह करता है - ध्रुव से ध्रुव तक संबद्घ चुम्बकीय धारा, किसी ताप तक पहुँचने के बाद, विचलित हो सकती है, इससे यह धरती अपने आप में ठोस होने के स्थान पर बिखरने लग जाना स्वभाविक है। यह बिखर जाने के बाद धूल के रूप में मानव की कल्पना में आता है। इसके उपरान्त मानव कहाँ रहेगा, जीव जानवर कहाँ रहेंगे, हरियाली कहाँ रहेगी, पानी कहाँ रहेगा, पानी की आवर्तनशीलता की व्यवस्था कहाँ रहेगा। ये सब विलोम घटनायें मानव के मानस को काफी घायल करने के स्थिति में तो हैं। (अध्याय: 3-7, पृष्ठ नंबर: 89)
          • इसके उपचार का उपक्रम यही है कि कोयले और खनिज तेल से जो-जो काम होना है, उसका विकल्प पहचानना होगा। कोयला और खनिज तेल के प्रयोग को रोक देना ही एकमात्र उपाय है। इसी के साथ विकिरणीय ईंधन प्रणाली भी धरती और धरती के वातावरण के लिए घातक होना, हम स्वीकार चुके हैं। विकिरण विधि से ईंधन घातक है, कोयला, खनिज विधि से ईंधन भी घातक है। इनके उपयोग को रोक देना मानव का पहला कर्त्तव्य है। दूसरा कर्त्तव्य है मानव सुविधा को बनाये रखने के लिए ईंधन व्यवस्था के विकल्प को प्राप्त कर लेना।...  (अध्याय: 3-7, पृष्ठ नंबर:89-90)
          • मानव कुल में से ज्ञान विज्ञान विवेक प्रमाणित होता है। यही निर्विवाद स्वत्व का स्वरुप है। ऐसे स्वत्व परावर्तन में सार्थकता का आंकलन और स्वीकृति के आधार पर ही स्वत्व में आंकलन बनता ही रहता है, निरंतर श्रेष्ठता की ओर हम अपने में से प्रमाणित होना बनता ही है। एक बार प्रमाणित होने के बाद प्रमाण विधि में श्रेष्ठता की श्रृंखला बन जाती है। यह प्रत्यावर्तन में दृढ़ता का सूत्र बनता है। मानव में प्रमाण विधि से ही सार्थक पूंजी, प्रत्यावर्तन विधि से निरंतर प्रखर और वृद्घि होते ही जाता है। वृद्घि मतलब आज एक मुद्दे में प्रमाणित हुए, कल दो मुद्दे में, परसों तीन मुद्दे में प्रमाणित होने की स्वीकृति समाहित होती जाती है। यह प्रत्यावर्तन क्रिया बोध और अनुभव में समाहित होते रहने से है अर्थात् स्वीकृति रहने में है, यही पुन:श्च परावर्तन के लिए पूंजी बना रहता है। ऐसे अनुभव ही बोध में समाधान के रुप में अवस्थित रहता है। फलस्वरूप परावर्तन में हम समाधान को प्रमाणित कर पाते हैं। इस विधि से परावर्तन क्रिया अनुभव के लिए नित्य स्रोत होना प्रत्यावर्तन विधि से स्पष्ट होता है। जागृति को प्रमाणित करने के लिए यही सूत्र और व्याख्या है। हर प्रत्यावर्तन अनुभव सूत्र है। हर परावर्तन अनुभव सूत्र की व्याख्या है। इस विधि से मानव के स्वरुप का प्रमाण प्रत्यावर्तन में ज्ञान विज्ञान विवेक के रुप में, परावर्तन में कार्य व्यवहार व्यवस्था में भागीदारी के रुप में प्रमाणित होता है। यही जागृत परंपरा है। पीढ़ी से पीढ़ी इसको बनाये रखना हर मानव का कर्त्तव्य और दायित्व है। (अध्याय: 3-12, पृष्ठ नंबर: 126)
          • समझदारी के साथ मानव का स्वास्थ्य संयम विधा में भागीदारी करना एक स्वभाविक प्रक्रिया है। इसके साथ ही शिक्षा संस्कार, न्याय सुरक्षा, उत्पादन कार्य, विनिमय कार्यों में भागीदारी करना सभी समझदार मानव का कर्त्तव्य एवं दायित्व हो पाता है। समझदारी के साथ कर्त्तव्य और दायित्व स्वीकृति सहज रूप में प्रमाणित हो जाता है। समझदारी के अनन्तर अर्थात् सहअस्तित्ववादी ज्ञान, विज्ञान, विवेक संपन्नता के उपरान्त दायित्व और कर्त्तव्य को स्वीकारने में देरी होती ही नहीं, यह स्वयं स्फूर्त विधि से प्रमाणित होती, प्रगट होती है। इन सबको भली प्रकार से परीक्षण, निरीक्षण कर निश्चित किया गया है। हर नर-नारी इसको परीक्षण पूर्वक सत्यापित कर सकते हैं, यह मानव परम्परा के लिए महत्वपूर्ण प्रेरणा रही है। (अध्याय: 16, पृष्ठ नंबर: 158)
          • साथ में जीने के क्रम में, सर्वप्रथम मानव ही सामने दिखाई पड़ता है। ऐसे मानव किसी न किसी सम्बन्ध में ही स्वीकृत रहता है। सर्वप्रथम मानव, माँ के रूप में और तुरंत बाद पिता के रूप में, इसके अनन्तर भाई-बहन, मित्र, गुरु, आचार्य, बुजुर्ग उन्हीं के सदृश्य और अड़ोस-पड़ोस में और भी समान संबंध परंपरा में है हीं। जीने के क्रम में, संबंध के अलावा दूसरा कोई चीज स्पष्ट नहीं हो पाता है। संबंधों के आधार पर ही परस्परता, प्रयोजनों के अर्थ में पहचान, निर्वाह होना पाया जाता है। इस विधि से पहचानने के बिना निर्वाह, निर्वाह के बिना पहचानना संभव ही नहीं है। इसमें यह पता लगता है कि प्रयोजन हमारी वांछित उपलब्धि है। प्रयोजनों के लिए संबंध और निर्वाह करना एक अवश्यंभावी स्थिति है, इसी को हम दायित्व, कर्त्तव्य नाम दिया। सम्बन्धों के साथ दायित्व और कर्त्तव्य अपने आप से स्वयं स्फूर्त होना सहज है। कर्त्तव्य का तात्पर्य क्या, कैसा करना, इसका सुनिश्चियन होना कर्त्तव्य है। क्या पाना है, कैसे पाना है, इसका सुनिश्चियन और उसमें प्रवृत्ति होना दायित्व कहलाता है। हर संबंधों में पाने का तथ्य सुनिश्चित होना और पाने के लिए कैसा, क्या करना है, यह सुनिश्चित करना, ये एक दूसरे से जुड़ी हुई कड़ी है। ये स्वयं स्फूर्त विधि से, सर्वाधिक संबंधों में निर्वाह करना बनता है। जागृति के अनन्तर ही ऐसा चरितार्थ होना स्पष्ट होता है। भ्रमित अवस्था में संबंधों का प्रयोजन, लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता है। भ्रमित परम्परा में सर्वाधिक रूप में संवेदनशील प्रवृत्तियों के आधार पर, सुविधा संग्रह के आधार पर और संघर्ष के आधार पर संबंधों को पहचानना होता है। सुदूर विगत से इन्हीं नजरियों को झेला हुआ मानव परम्परा मन: स्वस्थता के पक्ष में वीरान निकल गया। जबकि सहअस्तित्व वादी विधि से मन:स्वस्थता की संभावना, सर्वमानव के लिए समीचीन, सुलभ होना पाया जाता है। इसी तारतम्य में हम सभी संबंधों को सार्थकता के अर्थ में, प्रयोजनों के अर्थ में और संज्ञानीयता पूर्ण प्रयोजन के अर्थ में पहचान पाते हैं। इसका स्पष्ट रूप सार्वभौम व्यवस्था अखण्ड समाज के रूप में, इसका स्पष्ट रूप मानवाकाँक्षा; जीवनाकाँक्षा प्रमाणों के अर्थ में स्वीकार सहित और मूल्यांकन सहित कार्य व्यवहार और व्यवस्था और आचरणों को परिवर्तन कर लेना ही सहअस्तित्व वादी ज्ञान, विज्ञान और विवेक का फलन होना पाया जाता है।
          मानवाकांक्षा- समाधान, समृद्धि, अभय सह-अस्तित्व सहज प्रमाण।
          जीवनाकांक्षा- सुख, शांति, संतोष आनंद के रूप में गण्य है। (अध्याय:17, पृष्ठ नंबर: 168-169)

          स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
          प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

          दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : मानव अभ्यास दर्शन

          मानव अभ्यास दर्शन (संस्करण: द्वितीय, मुद्रण: 2010)
          • प्रत्येक मानव के लिए स्थापित संबंध समान हैं। संबंधों में निहित मूल्य नित्य हैं। किसी का सान्निध्य दूर होने मात्र से, उस संबंध में निहित मूल्य का परिवर्तन नहीं है, इसी प्रकार वियोग में भी। वियोग शरीर का है न कि मूल्यों का, जो प्रत्यक्ष है। जैसे माता-पिता से वियोग। जीवन कालीन वियोग में भी पिता के प्रति जो मूल्य है, उसका परिवर्तन नहीं है।
          प्रत्येक परस्परता में दायित्व समाया हुआ है। यही स्थापित मूल्यों में वस्तु व सेवा को अर्पित करता है। सभी अर्पण, मूल्यों के प्रति समर्पण है। यही अपर्ण प्रक्रिया ही कर्त्तव्य है। व्यवहारपूर्वक यह प्रमाणित होता है कि ऐसा कोई संबंध नहीं है, जिसमें मूल्य न हो और जिसके प्रति दायित्व व कर्त्तव्य न हो। (अध्याय:2 , पृष्ठ नंबर: 26)
          • प्रत्येक मानव में सीमित शक्ति, निश्चित दायित्व - कर्त्तव्य एवं स्थापित संबंध पाये जाते हैं, जिनकी एकसूत्रता ‘‘नियम त्रय’’ एवं मानवीयता पूर्ण पद्घति से प्रमाणित होती है। यही गुणात्मक परिवर्तन का औचित्य और मानव की आचार संहिता है। (अध्याय: 2, पृष्ठ नंबर: 27)
          • संस्कृति को आचरण में लाना ही सभ्यता है। दायित्व व कर्त्तव्य निर्वाह ही उसका प्रत्यक्ष रूप है। (अध्याय: 4, पृष्ठ नंबर: 51)
          • व्यक्तित्व व उत्पादन क्षमता सम्पन्न करने का दायित्व शिक्षा व्यवस्था एवं नीति पर आधारित पाया जाता है। यही व्यवस्था का प्रत्यक्ष स्त्रोत है। प्रचार, प्रकाशन, प्रदर्शनपूर्वक उसे प्रोत्साहित करने का दायित्व विद्वता, कला, कविता सम्पन्न समाज का है जिनसे ही सामान्य जन जाति प्रेरणा पाती है, जो तथ्य है। परस्पर राष्ट्रों में संतुलन सामंजस्य एवं एकसूत्रता को पाने के लिये प्रत्येक राष्ट्र को मानवीयता पूर्वक ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन करने के लिए उन्मुख होना ही होगा। सार्वभौमिकता ही सभी राष्ट्रों के अनुमोदन के लिये आधार रहेगा। सामाजिक सार्वभौमिकता अर्थात् अखंडता ही सभी राष्ट्रों का मूल आशय है। उसकी स्पष्ट सफलता न होने का कारण मात्र वर्गीयता है या वर्गीयता का प्रोत्साहन एवं संरक्षण है। यह सभी वर्गीयताएं मानवीयता में ही विलीन होती है न कि अमानवीयता में। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मानवीयतापूर्ण जीवन परम्परा ही एकमात्र शरण है। इसी का दश सोपानीय व्यवस्था में निर्वाह करना ही एकसूत्रता, अखंडता एवं समाधान सार्वभौमता है। प्रत्येक संतान को उत्पादन एवं व्यवहार एवं व्यवस्था में भागीदारी करने योग्य बनाने का दायित्व अभिभावकों में भी अनिवार्य रूप में रहता है क्योंकि प्रथम शिक्षा माता-पिता से, द्वितीय परिवार से, तृतीय परिवार के सम्पर्क सीमा से, चतुर्थ शिक्षण संस्थान से, पंचम वातावरण से अर्थात् प्रधानत: प्रचार-प्रकाशन-प्रदर्शन से तथा प्राकृतिक प्रेरणा से अर्थात् भौगोलिक एवं शीत, उष्ण, वर्षामान से प्राप्त होती है। (अध्याय: 4, पृष्ठ नंबर: 57)
          • वाद-त्रय संयुक्त कार्यक्रम ही अभ्युदय है। प्रत्येक व्यक्ति एवं संस्थायें दश सोपनीय व्यवस्था में अभ्युदयार्थ भागीदार होना जागृति हैं। साथ ही उन्हीं स्थितियों में वह ‘‘में, से, के लिये’’दायित्व व कर्त्तव्य निर्वाह करना सहज है। संस्था ही व्यवस्था है, व्यवस्था ही प्रबुद्घता है, प्रबुद्घता ही विधि-नीति व पद्घति है, विधि-नीति व पद्घति ही संस्था है। संस्था की प्रथमावस्था परिवार सभा, द्वितीयावस्था परिवार समूह सभा, तृतीय ग्राम मोहल्ला परिवार सभा, चतुर्थ ग्राम मोहल्ला समूह परिवार सभा, पाँचवाँ क्षेत्र परिवार सभा, छठा मंडल परिवार सभा, सातवाँ मडंल समूह परिवार सभा, आठवाँ मुख्य राज्य परिवार सभा, नवाँ प्रधान राज्य परिवार सभा, दसवाँ विश्व परिवार राज्य परिवार सभा, यही अखण्ड समाज व्यवस्था की दश सोपानीय व्यवस्था स्वरूप है। अखंडता ही समाज का प्रधान लक्षण है। (अध्याय:4 , पृष्ठ नंबर: 62)
          • मानव में स्वभाव और धर्म ही मौलिकता, मौलिकता ही मानव का अर्थ, अर्थ ही प्रकटन, प्रकटन ही स्वभाव है। मानव की मौलिकता ही मानव मूल्य है। मूल्य-सिद्घि मूल्याँकन पूर्वक होती है। मूल्य चतुष्टय ही आद्यान्त प्रकटन है। यही अभ्युदय की  समग्रता है। प्रत्येक व्यक्ति अभ्युदय पूर्ण होना चाहता है। अभ्युदयकारी कार्यक्रम से सम्पन्न होने में जो अंतर्विरोध है (चारों आयामों तथा पाँचों स्थितियों में परस्पर विरोध) वही संपूर्ण समस्यायें है। इसके निराकरण का एकमात्र उपाय मानवीयतापूर्ण पद्घति से ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन ही है। यही पाँचों स्थितियों का दायित्व है। अमानवीयतापूर्वक ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन सम्भव नहीं है। अमानवीयता हीनता, दीनता और क्रूरता से मुक्त नहीं है। इसी कारणवश अपराध, प्रतिकार, द्रोह, विद्रोह, हिंसा-प्रतिहिंसा, भय-आतंक प्रसिद्घ है।  ये सब मानव के लिये अवांछित घटनायें हैं। यही सत्यता मानवीयतापूर्ण जीवन के लिये बाध्यता है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर: 73)
          • प्रत्येक व्यक्ति परस्परता में कर्तव्य एवं दायित्व निर्वाह की अपेक्षा करता है और स्वीकारता है। (अध्याय:5, पृष्ठ नंबर: 78)
          • ‘‘जागृति सहज अनुमान क्षमता मानव की विशालता को और अनुभव ही पूर्णता को स्पष्ट करता है।’’ सतर्कता एवं सजगता मानव-जीवन में प्रकट होने वाली क्रिया पूर्णताएं है। चैतन्य क्रिया अग्रिम रूप में क्रिया पूर्णता एवं आचरण पूर्णता के लिये तृषित एवं जिज्ञासापूर्वक अपनी विशालता को अनुमान के रूप में प्रकट करती है। ज्ञानावस्था की इकाई का मूल लक्ष्य ही पूर्णता है। पूर्णता के बिना ज्ञानावस्था की इकाईयाँ आश्वस्त एवं विश्वस्त नहीं है। उत्पादन एवं व्यवहार में ही क्रमश: समाधान एवं अनुभव चरितार्थ हुआ है। प्रयोग एवं उत्पादन में ही समस्या एवं समाधान है। व्यवहार एवं आचरण में ही सामाजिक मूल्यों का अनुभव होने का परिचय सिद्घ होता है। आशा, विचार, इच्छा समाधान के लिए ही प्रयोग व उत्पादन-विनिमयशील है। इच्छा एवं संकल्प अनुमानपूर्वक अनुभव के लिए आचरणशील है। आचरण के मूल में मूल्यों का होना पाया जाता है। स्वभाव ही आचरण में अभिव्यक्त होता है। मानवीय स्वभाव धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करूणा ही है। अनुभव आत्मा में  अनुभवमूलक व्यवहार एवं आचरण आत्मानुशासित होता है, आत्मानुभूति ही प्रमाण और वर्तमान है। आत्मानुभूति मूलक व्यवहार समाधान सम्पन्न होता है। तभी परावर्तन एवं प्रत्यावर्तन में संतुलन सिद्घ होता है। अनुभूति आत्मानुषंगी एवं अपरिवर्तनीय है। पूर्णता सहज व्यवहार आत्मानुषंगी एवं अपरिवर्तनीय है यही पूर्णता है। यही पूर्ण सजगता है, पूर्ण सजगता ही सहजता है। समाधान एवं अनुभूति की निरंतरता ही सामाजिक अखण्डता एवं अक्षुण्णता है। अनुभव एवं समाधान के बिना जीवन चरितार्थ नहीं है। चरित्रपूर्वक अर्थ निस्सरण ही चरितार्थता है। आचरण ही स्वभाव के रूप में प्रकट होता है। यही स्वभाव ‘‘तात्रय’’ में स्पष्ट है। आवश्यकता से अधिक उत्पादन के रूप में प्रयोग पूर्वक किया गया उत्पादन-विनिमय में सफल हुआ है। व्यवहार एवं उत्पादन का योगफल ही सह-अस्तित्व है। उनमें निर्विषमता ही जागृति है। उसकी निरंतरता ही सामाजिकता की अक्षुण्णता है, जिसके दायित्व का निर्वहन, शिक्षा एवं व्यवस्था करती है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 87)
          • सामाजिकता का अनुसरण आचरण तब तक संभव नहीं है जब तक मानवीयतापूर्ण जीवन सर्वसुलभ न हो जाय। ऐसी सर्वसुलभता के लिए शिक्षा और व्यवस्था ही एकमात्र दायी है, जिसके लिये मानव अनादिकाल से प्रयासशील है। प्रत्येक मानव को सतर्कता एवं सजगता से परिपूर्ण होने का अवसर है, जिसको सफल बनाने का दायित्व शिक्षा एवं व्यवस्था का ही है। सफलता और अवसर का स्पष्ट विश्लेषण ही शिक्षा है। प्रत्येक मानव सही करना चाहता है और न्याय पाना चाहता है। साथ ही सत्यवक्ता है। ये तीनों यथार्थ प्रत्येक मानव में जन्म से ही स्पष्ट होते हैं। यही अवसर का तात्पर्य है। इन तीनों के योगफल में भौतिक समृद्घि एवं बौद्घिक समाधान की कामना स्पष्ट है। यह भी एक अवसर है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अवसर का सुलभ हो जाना ही व्यवस्था की गरिमा है। न्याय प्रदान करने की क्षमता एवं सही करने की योग्यता की स्थापना ही शिक्षा की महिमा है।  (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 93)
          • परम्परा की स्वीकृति ही प्रतिबद्घता है। मानवीयतापूर्ण परम्परा ही सामाजिक एवं स्वस्थ परंपरा होती है। वर्गीय एवं परिवारीय व व्यक्तिवादी परंपरा संघर्ष से मुक्त नहीं है फलत: सामाजिक नहीं है। सामाजिकता सीमा नहीं अपितु अखंडता है। प्रतिबद्घताएं संकल्प पूर्ण प्रवृतियों के रूप में प्रकट होती है जो उनके आहार, विहार, आचरण, व्यवहार, उत्पादन, उपभोग, वितरण और दायित्व, कर्त्तव्य, निर्वाह के रूप में प्रत्यक्ष होती है। संकल्प में परिवर्तित होना ना होना ही अवधारणा है। ऐसी अवधारणा भास, आभास पूर्वक ही होती है जबकि धारणा संक्रमण ज्ञानपूर्वक स्वीकृति है। जिसे शिक्षा ही स्थापित करती है। प्रथम शिक्षा माता-पिता, द्वितीय शिक्षा परिवार, तृतीय शिक्षा केन्द्र, चतुर्थ शिक्षा व्यवस्था सहज वातावरण है जिसमें प्रचार, प्रदर्शन, प्रकाशन प्रक्रिया भी हैं। यही शिक्षा मानव में अवधारणा स्थापित करती है। फलत: मानव ‘‘ता-त्रय’’ के रूप में अपने आचरण को प्रस्तुत करता है। यही मानवीयता, देव मानवीयता, दिव्य मानवीयता है। (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर: 95-96)
          • ‘‘विवाह मानव के लिए अवांछित घटना नहीं है।’’ विधिवत् वहन करने के लिए की गई प्रतिज्ञा ही विवाह है। मानवीयता में ही विधिवत् जीवन का विश्लेषण हुआ है, जिसमें विवेक-विज्ञान सम्पन्न जीवन सुसम्बद्घ होता है। जिसका प्रत्यक्ष रूप कायिक-वाचिक-मानसिक, कृत-कारित-अनुमोदित भेद से किए सभी क्रियाकलापों में अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा ही है। यही वैध सीमा की सीमा है। विवाह घटना में दो जागृत मानव द्वारा समान संकल्प के क्रियान्वयन की प्रतिज्ञा है। यह समाज गठन का भी एक प्रारूप है। विवाह गठन में निर्भय जीवन की कामना व प्रमाण समायी रहती है। सामाजिकता का अंगभूत जीवन क्रियाकलाप के प्रति प्रतिज्ञा ही विवाह में उत्तम संस्कार को प्रदान करती है। मानवीयतापूर्ण जीवन, व्यवस्था क्रम एवं जीवन के कार्यक्रम में संकल्प ही दृढ़ता को प्रदान करता है। यही विवाह-संस्कार की प्रधान धर्मीयता है। इस उत्सव को शुभ कामनाओं सहित बन्धु परिवार समेत सम्पन्न किया जाता है। इस घटना में वधू एवं वर का संगठन होता है। इन दोनों में संस्कृति की साम्यता ही सफलता का आधार है। मानव में संस्कृति साम्य मानवीयता में सुलभ होता है। विवाह संस्कार प्रधानत: परस्पर दायित्व वहन के लिए घोषणा है। यह घोषणा मानवीयता सहज रूप में सफल होती है। विवाह संयोग संस्कृति एवं सभ्यता को साकार रूप देने के लिए प्रतिज्ञा है जो मानवीयता पूर्ण विधि से होती है। विवाह उत्पादन, उपयोग एवं वितरण के  स्पष्ट कार्यक्रम को आरंभ करने के लिए बाध्य करता है। यही आवश्यकता से अधिक उत्पादन की आवश्यकता को जन्म देता है। यह मात्र मानवीयता पूर्वक सफल होता है। विवाहित जीवन व्यवस्था में, से, के लिए बाध्य होता है। अविवाहित जीवन में भी वैधता सहज व्यवस्था की अनिवार्यता स्वीकार्य होती है। मानवीयता पूर्वक ही पुरूषों में यतित्व अर्थात् देव मानव एवं दिव्य मानवीयता की ओर गतिशीलता एवं नारियों में सतीत्व उसी अर्थ में स्पष्ट होता है। जो आर्थिक एवं सामाजिक संतुलनकारी मूल तत्व है। अस्तु, विवाह-संस्कार का आद्यान्त अर्थ निष्पत्ति मानवीयतापूर्ण आचरण एवं मानव कुल का संरक्षण है। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर:105 -106)
          • उत्पादन में अप्रवृत्ति एवं व्यवहार में दायित्व वहन में विमुखता एवं अतिभोग में तीव्र इच्छा ही लोक वंचना, प्रवंचना एवं द्रोह का प्रधान कारण है। (अध्याय: 10, पृष्ठ नंबर: 136)
          • ...गुणात्मक परिवर्तन के संदर्भ में, से, के लिए ही दायित्व एवं कर्त्तव्य प्रमाणित होते हैं। अनुभवमय क्षमता से संपन्न होने पर्यन्त दायित्व एवं कर्तव्य का अभाव नहीं है। उसके अनन्तर वह स्वभावगत होता है। अमानवीयता से मानवीयता में अनुगमन करने के लिए नियमत्रय पूर्वक दायित्व एवं कर्त्तव्य प्रमाणित होता है। मानवीयता से अतिमानवीयता में अनुगमन करने के लिए छ: स्वभाव कर्त्तव्य एवं दायित्व को प्रमाणित करते हैं। धीरता से परिपूर्ण होना ही वीरता का होना, वीरता से परिपूर्ण होना ही उदारता का होना, उदारता से परिपूर्ण होना ही दया का होना, दया से परिपूर्ण होना ही कृपा का होना तथा कृपा से परिपूर्ण होना ही करूणा का होना प्रमाणित है। (अध्याय: 13, पृष्ठ नंबर: 157-158)
          • विश्वास विहीन प्रत्येक संबंध एवं संपर्क में दायित्व एवं कर्तव्य वहन सिद्घ नहीं होता है। दायित्व एवं कर्तव्य वहन की उपेक्षा अथवा तिरस्कारपूर्वक समाज संरचना नहीं होती है और न सामाजिकता ही सिद्घ होती है। (अध्याय: 15, पृष्ठ नंबर: 167)
          • ‘‘आयोजनात्मक, प्रयोजनात्मक एवं योजनात्मक कार्यक्रम प्रसिद्घ हैं।’’ आत्मीयतापूर्ण अर्थात् न्याय सम्मत पद्घति से किया गया सम्मेलनात्मक योजना ही आयोजन है। पूर्णता की अपेक्षा में या पूर्णतया परस्पर मिलन ही सम्मेलन है। आयोजनात्मक कार्यक्रम ही सामाजिक कार्यक्रम है। सामाजिक कार्यक्रम प्रधानत: संवेदनशीलता व संज्ञानीयता की अभिव्यक्ति है, यही प्रयोजन है। संज्ञानीयता ही आयोजन का प्रधान कारण है। संज्ञानीयता के अभाव में आयोजनात्मक कार्यक्रम सफल नहीं है। आयोजनात्मक कार्यक्रम ही सामाजिकता को स्पष्ट करता है। आयोजन मानव के चारों आयामों एवं पाँचों स्थितियों के अर्थ में चरितार्थ होती है। यही प्रमाण मूलक दश सोपानीय परिवार सभा व्यवस्था होने से परंपरा है। प्रमाण मूलक न होने से वर्ग भावना की अभिव्यक्ति है। परम्परा में प्रमाण मूलक चिन्तन का होना अनिवार्य है। यही सफलता का द्योतक है। इसके अभाव में आयोजन नहीं है। आयोजन में व्यवहारिकता का निर्धारण होना ही प्रधान तत्व है। व्यवहारिकता अनुभवमूलक होने से ही सफल होता है। फलत: समाज संरचना स्पष्ट होता है अर्थात् संबंध एवं संपर्क के प्रति दायित्व एवं कर्तव्य निर्वाह होता है। फलत: समाज की अखण्डता एवं अक्षुण्णता सिद्घ होता है। आयोजन की चरितार्थता अखण्डता में ही है न कि विघटन में। संपूर्ण आयोजनायें धर्मीयता को प्रसारित करने के लिए बाध्य है। मानव धर्मीयता सार्वभौमिक है। मानव संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था के रूप में ही मानव धर्मीयता प्रसारित होता है।  (अध्याय: 15, पृष्ठ नंबर: 167)


          स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
          प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

          दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : मानव अनुभव दर्शन

          मानव अनुभव दर्शन (अध्याय:3,  संस्करण: 2011, मुद्रण: 2016 , पृष्ठ नंबर: 22)
          • कृतज्ञता, अस्तेय, अपरिग्रह, सत्यभाषण, स्वनारी-स्वपुरूष गमन, सरलता, दया, स्नेह पूर्वक विश्वासपालन, यथार्थ वर्णन, कर्त्तव्यों व दायित्वों का वहन, अधिक उत्पादन कम उपभोग, उत्साह एवं चेष्टा, रहस्यहीनता, सहजता एवं निर्बैरता सुसंस्कारों के लक्षण हैं। लक्षणों के आधार पर ही स्वभाव, तदनुसार ही मूल्यांकन क्रिया है। लक्षण विहीन मानव नहीं है।


          स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
          प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

          दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : समाधानात्मक भौतिकवाद

          समाधानात्मक भौतिकवाद (संस्करण:2009)
          • शिक्षा-संस्कार ही बोध और अवधारणा का एकमात्र स्रोत है। ऐसे स्रोत को सार्थक रूप देने, उसमें प्रामाणिकता और समाधान की निरन्तरता को बनाये रखना चैतन्य-प्रकृति में, से ज्ञानावस्था की इकाई का दायित्व और वैभव होता हैं। जड़ प्रकृति में अंशों का आदान-प्रदान होता हैं। परमाणुओं के स्तर में जिसमें प्रस्थापन होता है वह पहले से ही सामान्य गति में रहता है, जिसमें विस्थापन होता हैं उसके अनन्तर वह भी सामान्य गति में होना पाया जाता है। सामान्य गति में होने के लिए निरन्तर मध्यस्थ क्रिया में बल समाहित रहता हैं जिसे हम छिपी हुई ऊर्जा कहते है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर: 86)
          • मानव के बहुआयामी इतिहास में उन सभी आयामों के लिए पूरक होने के प्रमाण को मानव अपने कुल के लिए समर्पित नहीं कर पाया। इसी कारण अब प्रबुद्घ मानवों का यह दायित्व होता है कि सभी आयामों में जो रिक्त और अपेक्षित भाग है उसकी भरपाई कर देवें। उसमें से प्रथम और प्रमुख आयाम यही देखने को मिला-व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी। मानव जागृतिपूर्वक ही इसकी भरपाई कर पायेगा। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 124)
          • मानव समझदारी से व्यवस्था में प्रमाणित होता है, जो अस्तित्व सहज ही होती है:- अस्तित्व सहज व्यवस्था वर्तमान सहज प्रमाण के रूप में वैभव हैं। जब-जब मानव व्यवस्था का अनुभव करता है, तब-तब वर्तमान में विश्वास, भविष्य के प्रति आश्वासन होना पाया जाता है। भविष्य के प्रति आश्वस्त होने का तात्पर्य विधिवत् योजना और कार्य योजना होने से है। वर्तमान में विश्वास का तात्पर्य समझदारी सहित दायित्वों, कर्तव्यों का निर्वाह हैं। जिसे भले प्रकार से कर चुके हैं, कर रहे हैं और करने में निष्ठा हैं। समझदारी का स्वरूप जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में, से, के लिए जागृति है। जागृति का तात्पर्य जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने से है। इस प्रकार जागृति ही वर्तमान हैं, वर्तमान ही जागृति का सम्पूर्ण रूप है। (अध्याय: 9(4), पृष्ठ नंबर: 237)
          • जागृत मानव, अभिव्यक्ति सहज रूप में, मानव सहज व्यवहार में सफल हो जाता हैं। यह संबंधों, मूल्यों, मूल्यांकनों, दायित्वों, कर्तव्यों को निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होता है। इसलिए समाधानित होता है। (अध्याय: 9(5), पृष्ठ नंबर: 257)
          • उत्पादन और संतुलन सहज वैभव का मूल सूत्र विकल्प के रूप में होना समझ में आता है कि:-1. भय और प्रलोभन के स्थान पर मूल्यों की पहचान, निर्वाह और मूल्यांकन करने का दायित्व। (अध्याय: 9(10), पृष्ठ नंबर: 305)
          • जागृत मानव अपने तन, मन, धन रूपी अर्थ को आगे पीढ़ी, पीछे पीढ़ी के साथ वर्तमान दायित्व एवं कर्तव्य पूर्वक अर्पित, समर्पित कर सदुपयोग पूर्वक सुख को पा लेता हैं। फलस्वरूप उस-उस की सुरक्षा होना प्रमाणित होता है। (अध्याय: 9(10), पृष्ठ नंबर: 314)
          • तन, मन, धन रूपी अर्थ के सदुपयोग, सुरक्षा क्रम में ही मानव व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी हैं और अखण्ड समाज रचना, रचना कार्य और उसमें भागीदारी का निर्वाह करता हैं, यही जागृत पंरपरा का दायित्व हैं। (अध्याय: 9(10), पृष्ठ नंबर: 315)
          • प्रयोजनशीलता:- जागृतिपूर्ण विधि से प्रमाणित करने में नियोजित किया गया तन, मन, धन रूपी अर्थ।
          सदुपयोग पूर्वक सुख उनको मिलता हैं जो अपने तन, मन, धन को विकास और जागृति, कर्तव्य और दायित्वों के लिए अर्पित करते हैं जिसके लिए अर्पित हुआ, उसकी सुरक्षा, जागृति और विकास के अर्थ मंय संपन्न हुई। यही पूरकता विधि हैं। (अध्याय: 9 (10), पृष्ठ नंबर: 315)
          • मानव जागृत परंपरा सहज रूप में जीने के क्रम में शरीर को निरोग रखना भी एक कार्य है। इस क्रम में जो संक्रामक, आक्रामक विधियों से जो कुछ भी परेशानियाँ देखने को मिलती हैं, उसके निवारण के लिए सर्वत्र सहज रूप में पाई जाने वाली जड़ी-बूटी आदि घरेलू वस्तुओं से बहुत सारे रोगों को ठीक करने का अधिकार हर परिवार में स्थापित कर लेना सहज है। क्योंकि परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था क्रम में स्वास्थ्य-संयम कार्यक्रम प्रत्येक परिवार का एक दायित्व हैं। इस क्रम में पवित्र आहार पद्घति एक प्रमुख कार्यक्रम रहेगा। इसे ध्यान में रखकर कृषि कार्य के लिए जो समझदारी चाहिए उसको भी स्वीकृति करना आवश्यक हो जाता हैं। इस क्रम में धरती का उर्वरक संतुलन को बनाए रखना एक आवश्यकता है। इसमें मानव का दायित्व भी बनता हैं। धरती, अनाज उत्पादन-कार्य, उर्वरकता का संतुलन स्वाभाविक रूप में एक-दूसरे से आवर्तनशील कार्य हैं। इस आवर्तनशीलता में पहले भी संतुलन का जिक्र किया जा चुका है। इसमें मुख्य बात यही है कि धरती में उपजी हुई संपूर्ण हरियाली, दाना को निकालने के उपरान्त सभी घास, भूसी, जानवर खाकर गोबर गैस के अनंतर खाद बनकर खेतों में समाने की विधि को अपनाना चाहिए। अन्यथा घास, भूसी ज्यादा होने की स्थिति में अच्छी तरह से सड़ाकर खाद बनाना चाहिए। यह खेतों में डालना चाहिए। यह विधि सर्वाधिक कास्तकारों के यहाँ प्रचलन में हैं ही। इसकी तादाद बढ़ाने की आवश्यकता है। जैसे-जैसे खेत अधिक होता हैं वैसे-वैसे खाद की मात्रा भी अधिक होना आवश्यक है। कीटनाशक या कीट नियंत्रक कार्यों को भी कास्तकारों को अपने हाथों में बनाए रखना चाहिए जिससे पराधीनता की नौबत न आए। (अध्याय: 9(10), पृष्ठ नंबर: 330) 
          • प्रत्येक मानव मूलत: सुख धर्मी है ही। आशा के रूप में यह मानव में प्रमाणित होता है अथवा इच्छा के रूप में यह पाया जाता है। इसकी सफलता की निरंतरता नियति सहज व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का फलन हैं। सम्पूर्ण परंपराएँ व्यवस्था के संबंध में भ्रमित होने के फलस्वरूप, प्रत्येक मानव अपने में कल्पनाशील होने के कारण रुचि मूलक विधि से मानसिकता में आना एक बाध्यता बन गई। इतिहास के अनुसार भी, स्वर्ग की परिकल्पना भी रुचि के अनुकूल वर्णन हैं। रुचि सहज कल्पनाएँ इंद्रिय सन्निकर्ष के आधार पर हैं। इंद्रिय सन्निकर्ष शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के रूप में होना पाया जाता है। इसी का रुचिकर होना, अरुचिकर होना देखा जाता है। रूचि की एकरूपता का, सार्वभौमिकता का कोई नियम नहीं होता। रुचि मूलक मानसिकता को हटाने के लिए अथवा परिवर्तन करने के लिए एक मात्र प्रस्ताव उपदेश के रूप में मोक्ष को बताया गया। उसके लिए विरक्तिवादी चरित्र, साधना और उसके क्रम का प्रस्ताव भी मानव के सम्मुख प्रस्तुत है। यह भी देखने को मिला कि विरक्ति में मानव ने अपने को अर्पित भी किया। यह सब होने के उपरान्त भी, किसी भी परपंरा में सार्वभौम व्यवस्था निखरकर, उभरकर जनमानस में नहीं आया। अथवा इस रिक्तता के चलते सामान्य मानव के लिए रुचि मूलक प्रणाली से कल्पनाओं को दौड़ाना सहज हो गया। फलत: अव्यवस्था के अनंतर पुन: अव्यवस्था हाथ लगते आया। मूल मुद्दा भक्ति, विरक्ति, भोग और संग्रह क्रम में अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या और कार्यक्रम लोक विदित नहीं हो पाई। अभ्यास में आना तो दूर ही रहा। आज की स्थिति में सर्वाधिक संग्रह, भोग की मानसिकता अथवा लोक मानसिकता को देखते हुए व्यवस्था को पहचानना एक अनिवार्य स्थिति निर्मित हो चुकी है। इसके पक्ष में अर्थात् सार्वभौम व्यवस्था को पहचानने के पक्ष में सर्वमानव में सुखापेक्षा (सुख की अपेक्षा) एक मात्र सूत्र हैं। सुख सहज सूत्र व्याख्या ही भरोसा करने और प्रयोग कर, अभ्यास कर, प्रमाणित कर, लोक व्यापीकरण करने योग्य कार्यक्रम दिखाई पड़ता है। इसका मूल ध्रुव जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन तथा मानवीयतापूर्ण आचरण का समीकरण ही हैं। इसके लिए अस्तित्व सहज सूत्र, सह-अस्तित्व सहज व्याख्या, अध्ययन सुलभ हो चुका है। अस्तु, मानवीयतापूर्ण विधि और व्यवस्था को पहचानना सुलभ हुआ। इसको व्यवहार रूप देना ही इसका लोक व्यापीकरण ही हमारी निष्ठा और कर्तव्य हैं। इसी विधि से पाई जाने वाली सुखाकांक्षा, व्यवहार और कार्यक्रम सहज सुलभ होने की संभावना आ चुकी हैं। इसी संभावना के आधार पर प्रत्येक मानव मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करने के कार्यक्रम को परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था क्रम में पहचान कर निर्वाह कर सकते हैं। इससे ही प्रत्येक मानव सुख, समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व को अनुभव करेगा।  (अध्याय: 9 (11), पृष्ठ नंबर: 355-357)

          स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
          प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी 

          दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : व्यवहारात्मक जनवाद

          व्यवहारात्मक जनवाद (संस्करण: 2009, मुद्रण: 2017)
          • मानव के हर रंग रूप संबंध में समानता संवाद का दूसरा मुद्दा बनता है हर मानव अपने पहचान को बनाए रखने के लिए बाल्यकाल से ही प्रयत्नशील है पहचान प्रस्तुत करने की प्रवृतियां विभिन्न तरीके से प्रस्तुत होती हुई आंकलित होती है परिस्थितियां भिन्न-भिन्न रहते हुए प्रवृत्तियों में समानता होती ही है इसी के साथ बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक संरक्षण में पोषण में भरोसा रखने वाली प्रवृत्ति मिलती है संरक्षण पोषण के क्रम में न्याया की अपेक्षा प्रस्फुटित होती हुई देखने को मिलती है। किशोर अवस्था तक सही कार्य व्यवहार करने की इच्छाएँ आज्ञापालन, अनुसरण सहयोग के अनुकरण के रूप में प्रवृत्तियों को देखा जाता है यह बहुत अच्छे ढंग से समझ में आता है यह जन चर्चा का विषय है। संवाद के लिए यह दोनों मुद्दों अच्छे ढंग से सोचने, परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण करने व्यवहार विधि से विचारों को संबंध करने में काफी उपकारी हो सकते हैं। तीसरा मुद्दा देखने को मिलता है कि हर मानव संतान शिशुकाल से ही जब से बोलना जानता है तब से जो भी देखा सुना रहता है उसी को बोलने में अभ्यस्त रहता है। इस ढंग से हर मानव संतान बाल्यकाल से ही सत्य वक्ता होना आकलित होता है। जबकि सत्यबोध उसमें रहता नहीं है। शब्दों को बोलना ही बना रहता है। इससे यह भी पता लगता है मानव परंपरा का दायित्व है कि मानव संतान को सत्य बोध कराएं। इसी के साथ सही कार्य, व्यवहार का प्रयोजन बोध सहित  पारंगत बनाने की आवश्यकता है। न्याय बोध हर संतान को कराने का दायित्व परंपरा के पक्ष में ही जाता है। इस ढंग से बच्चों के लिए प्रेरक साहित्यों, कविताओं की रचना करने के लिए ये तीनों सार्थक प्रवृत्तियाँ है मानव में प्रवृतियां प्रयोग और परिक्षण बहुआयामों में होना देखा गया है। ये सब जन चर्चा के लिए बिन्दुएँ हैं। (अध्याय: 3, पृष्ठ नंबर: 38)
          • सुलझन ही सदा सदा से मानव की अपेक्षा है। सारे अड़चनों का  कारण नासमझी है, समस्या है। सम्पूर्ण समस्याएँ मानव की सुविधा, संग्रह, भोग, अतिभोग प्रवृति की उपज है। इन सारी स्थितियों को देखने पर पता चलता है समझदारी ही मानव का समाधान और समृद्घि का निर्वाध गति है, अथवा अक्षुण्ण गति है अथवा निरन्तर गति है। गति सदा सदा से मानव परम्परा के रूप में ही होना सम्भावित है। समझदारी पूर्ण परम्परा ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का एक मात्र उपाय है। दूसरी किसी विधि से व्यवस्था की सार्वभौमता और समाज की अखंडता को अभी तक स्पष्ट नहीं कर पाये। मानव में समझदारी का स्रोत सर्वसुलभ होना ही है। ऐसे कार्य में आप हम सभी को भागीदार होने की आशा अपेक्षा और कर्तव्य है। इसी आशय को सार्थक संवाद में, अवगाहन में लाने का यह प्रयास है। (अध्याय:3, पृष्ठ नंबर: 54)
          • शिक्षा-संस्कार विधा में सहअस्तित्व और प्रमाणों को प्रस्तुत करना ही कार्यक्रम है। इसे क्रमिक विधि से प्रस्तुत किया जाना मानव सहज कर्तव्य के रूप में, दायित्व के रूप में स्वीकार होता है। मानवीय शिक्षा में जीवन एवं शरीर का बोध और इसकी संयुक्त रूप में अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन और दिशा बोध होना ही प्रधान मुद्दा है। इन दोनो मुद्दों पर संवाद होना आवश्यक है। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर: 68)
          • इस तथ्य को भली प्रकार से देखा गया है, समझा गया है, कि हर मानव तृप्ति पूर्वक ही जीने  का इच्छुक है। ऐसी तृप्ति, सुख ,शांति, संतोष, आनंद के रूप में पहचान में आती है। ऐसी पहचान, जानने,  मानने, पहचानने, निर्वाह करने के फलस्वरूप प्रमाणित होना पायी गयी। सुख, शांति, संतोष, आनंद अनुभूतियाँ समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व का, प्रमाण के रूप में परस्परता में बोध और प्रमाण हो जाता है। ऐसी बोध विधि का नाम ही है शिक्षा संस्कार।  शिक्षा का तात्पर्य शिष्टता पूर्ण अभिव्यक्ति से है। ऐसी शिष्टता अर्थात मानवीय पूर्ण शिष्टता समझदारी पूर्वक ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। इसकी आवश्यकता के लिए जनचर्चा भी एक अवशम्भावी क्रियाकलाप है। जनसंवाद अर्थात मानव में परस्पर संवाद प्रसिद्ध है।  संवाद के अनन्तर संवेदनशीलता का ध्रुवीकरण एक  स्वाभाविक प्रक्रिया रही है।  ये प्रक्रियाएं क्रम से तृप्ति की अपेक्षा में ही संजोया हुआ पाया जाता है। सभी मानव संवेदनशीलता से परिचित है ही, संज्ञानशीलता की आवश्यकता शेष रही ही है।  समस्या समाधान के क्रम में प्रदूषण के संबंध में सोचना और निष्कर्ष निकालना हर मानव का कर्तव्य बन गया है क्योंकि इससे उत्पन्न विपदाएं हर मानव के लिए त्रासदी का कारण बन चुकी है। इससे मुक्ति पाना हर मानव के लिए आवश्यक है वन, खनिज, औषधि संपदाए समृद्ध रहने की स्थिति में ऋतु संतुलन, वन वनस्पति औषधियों के अनुकूल रूप में मानव का अवतरण धरती पर आरंभ हुआ है।  और मानव अपने तरीके से सोचते समझते मनाकार को साकार करने के क्रम में वन, खनिज, औषधि, जलवायु संपदा को उपयोग, प्रयोग, परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक इनके साथ अपनी अनुकूलता के लिए प्रयोग करता ही आया। इस क्रम में सर्वाधिक वनों का विध्वंस और खनिजों का शोषण हो ना पाया गया। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर:70)
          • ...क्योंकि परिवार में सीमित संख्या में सदस्यों का होना और उन सबके शरीर पोषण संरक्षण और समाज गति के पक्ष में वस्तुओं की आवश्यकता होना पाया जाता है। ऐसे निश्चयन के आधार पर आवश्यकता से अधिक उत्पादन प्रवृत्ति का होना तदनुसार फलपरिणाम होना पाया जाता है। इस विधि से अर्थात जागृति पूर्ण परंपरा विधि से हर मानव परिवार समाधान समृद्धि को अनुभव करना सहज है। इसकी अपेक्षा सुदूर विगत से ही मानव आकांक्षा के रूप में विद्यमान है ही और विद्यमान रहेगा ही। इस मुद्दे पर परामर्श संवाद हर मानव परिवार में और योग संयोग होने वाले छोटे बड़े समाजों में चर्चित होना निष्कर्ष का पाना मानव का ही कर्तव्य है चर्चा की प्रवृत्ति मानव में निहीत है ही। सारे मानव अपने में स्वस्थ सुंदर समाधान समृद्धि का धारक वाहक होना चाहता ही है। समाधान संपन्न मानसिकता और रोग मुक्त शरीर होना तो उसे बनाए रखना ही मानव में स्वस्थता का तात्पर्य है इसमें शरीर में निरोगिता को स्वास्थ्य कहा जाता है ऐसे निरोगिता  की पहचान सप्त धातुओं के संतुलन में होना पाया जाता है। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर:74)
          • दृष्टापद प्रतिष्ठा के रूप में अनुभूति जीवन में, से, के लिए जीवन ज्ञान सम्पन्न होना ही है। सह अस्तित्व दर्शन ज्ञान का मतलब यही है। इसी के क्रियान्वयन विधि से अखंडता सार्वभौमता का अनुभव होना समाधान है और समाधान का अनुभव होता है, यही सुख है यही मानव धर्म है। मानव धर्म विधि से जीता हुआ परिवार से विश्व परिवार तक जीवनाकांक्षा मानवाकांक्षा सहज रुप में ही सबके लिए सुलभ रहती है। इसी आशा में मानवकुल प्रतीक्षारत है तथा इसे सफल बनाना मानव का ही कर्तव्य दायित्व है। इस जिम्मेदारी को स्वीकार करने के लिए लक्ष्य सम्मत परिवार जनचर्चा हर मानव परिवारों में, समुदायों में, सभाओं में आवश्यक है। चर्चा अपने में लक्ष्य के लिए आवश्यक प्रक्रिया, प्रणाली और नीतिगत स्पष्टता के लिए होना सार्थक है। प्रक्रिया का तात्पर्य निपुणता, कुशलता, पांडित्य पूर्वक  किए जाने वाली कृतकारित अनुमोदित कार्यों से है। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर: 74-75)
          • प्रदूषण से  प्राण वायु का शोषण बढ़ता जा रहा है। और प्राण वायु की सृजनशीलता घटती जा रही है। इससे  मानव कितने खतरे में आ रहा है इसे समझना आवश्यक है। यदि प्राण वायु इतना घट जाये, हमारे श्वॉस में प्राण वायु आवश्यकता से कम हो जाये तो क्या स्थिति रहेगी। मानव शरीर में प्राण वायु का सेवन होता है। अपान वायु का विसर्जन होता है। वनस्पति संसार में अपानवायु का सेवन होता है प्राणवायु का विसर्जन होता है। इस ढंग से प्राणावस्था, जीव और मानव शरीर के लिए पूरक होना और जीव एवं मानव वनस्पति संसार के लिए पूरक होना पाया जाता है। इस प्रकार मानव अपनी स्वस्थ मानसिकता के साथ परिशीलन करने पर पता चलता है कि इसके संतुलन को बनाए रखना अतिआवश्यक है। सन्तुलन बनाए रखने का दायित्व मानव के माथे पर टिकता है। इस दायित्व को स्वीकारने के उपरान्त ही उपर कही गयी दुर्घटनाओं का उन्मूलन होगा। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 80)
          • सम्पूर्ण मानव शिक्षा-संस्कार पूर्वक ही अपनी दिशा, उद्देश्य और कर्तव्यों को निर्धारित कर पाता है। मानव की दिशा लक्ष्य निर्धारित हो पाना जागृति का प्रथम सोपान है। इसके आगे अपने आप में कार्यक्रम और कार्यव्यवहार सम्पादित होना स्वाभाविक है। जिसके फलन में समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व प्रमाणित होना है जिसके लिए हर मानव नित्य प्रतीक्षा में है और उपलब्धि ही गम्यस्थली है। उसकी निरन्तरता ही परम्परा है। ऐसी लक्ष्य संगत परम्परा ही  जागृत परम्परा है। इसी क्रम में संज्ञानशीलता प्रमाणित होना, संवेदनाएँ नियंत्रित होना पाया जाता है। संवेदनाओ के नियंत्रण को अपने आप में मर्यादा के सम्मान के रूप में पहचाना गया है। मर्यादाएँ  परस्परता में अति आवश्यक स्वीकृतियाँ है। इन स्वीकृतियों के आधार पर किये जाने वाली कृतियाँ अर्थात कार्य और व्यवहार से मानव परम्परा में हर मानव सुखी होना स्वाभाविक है। (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर: 82)
          • मानव में परस्परताएँ में भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, माता-पिता, पति-पत्नि, चाचा-चाची, मामा-मामी आदि से सम्बोधन किये जाते है। ये परिवार सम्बोधन कहलाते है। इन सम्बोधन के साथ प्रयोजनो को (सम्बंध का अर्थ रूपी प्रयोजनो को) पहचानते हुए निर्वाह करने के क्रम में हम जागृत मानव कहलाते है। भ्रमित मानव भी सम्बोधनो को प्रयोग करता ही है। सम्पूर्ण प्रयोजन सम्बन्धो की पहचान और निर्वाह जैसे गुरू के साथ श्रद्घा-विश्वास, माता-पिता के साथ श्रद्घा-विश्वास, भाई-बहन के साथ स्नेह और विश्वास, मित्र के साथ स्नेह-विश्वास, पुत्र पुत्री के साथ वात्सल्य, ममता, विश्वास, इसकी निरन्तरता में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित करते है। इन सभी सम्बंधो का निर्वाह करने के साथ दायित्व और कर्तव्य अपने आप स्वीकृत होते है। (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर:82)
          • दायित्व कर्तव्यों का निर्वाह होना अपने आप में विश्वास का आधार बनता है यही व्यवहार सूत्र कहलाता है। जहाँ भी कर्तव्य दायित्वो का निर्वाह नहीं कर पाते वहाँ विश्वास नहीं हो पाता है। भ्रमित मानव परम्परा में दायित्व कर्तव्य का बोध नहीं हो पाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है व्यवहार तंत्र का आधार सम्बंध ही है। इसका निर्वाह और निरंतरता ही परिवार और समाज की व्याख्या बन जाती है। इन दोनो प्रकार की व्याख्या  से पारंगत होने के फलन में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी होना स्वाभाविक है। व्यवस्था में सार्वभौमता स्वभाविक है। व्यवस्था को हर व्यक्ति बरता ही है अखण्ड समाज व्यवस्था ही व्यवस्था हो पाती है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:82-83)
          • व्यवहार व्यवस्था का तात्पर्य अथवा समाज व्यवस्था का तात्पर्य मानव में, से, के लिए लक्ष्य समेत जीने की विधि, विधान, कार्य और व्यवहार ही है। व्यवहार विधि संबंधो के आधार पर मूल्यों के निर्वाह करने के दायित्व पर निर्भर किया जाता है। इसके लिए जो क्रमबद्घता अर्थात निर्वाह के लिए जो क्रम बद्घता होती है यही विधान है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 83)
          • दसों परिवार संस्कृति सभ्यता में एक रूपता को बनाए रखेंगे। कला और उत्पादन क्रियाओ के प्रोत्साहन से अपनी अपनी पहचान बनाए रखने में सतत स्वयं स्फूर्त विधि से सम्पन्न होते जायेंगे। इस स्वायत्ता को पहचानने के उपरान्त सम्मिलित व्यवस्था दस परिवार में समाधान, समृद्घि का अनुभव होना, प्रमाणित होना, गवाहित होना बन जाता है। यही परिवार समूह सभा का वैभव होना पाया जाता है। इस वैभव के साथ यह भी स्वयं स्फूर्त होता है इसकी विशालता की आवश्यकता है। जैसे परिवार में परिवार समूह व्यवस्था की प्रवृति स्वयं स्फूर्त होती है। इसी प्रकार परिवार समूह सभा ग्राम परिवार की विशालता दस के गुणन में होते हुए ग्राम सौभाग्य को प्रमाणित करने का उद्देश्य बन जाता है। क्योकि समूचे ग्राम में कम से कम 10 परिवार समूह सभा से निर्वाचित सदस्य होगी। दस परिवार सभा अपना सौभाग्य प्रमाणित किये रहना स्वाभाविक रहता है। इन आधारो पर हर परिवार समूह सभा से एक एक व्यक्ति का निर्वाचन होना सहज हो जाता है। इस स्वयं स्फूर्त निर्वाचन से जन प्रतिनिधि अपने दायित्व, कर्तव्य से सम्पन्न, सजग प्रमाणित रहता ही है क्योंकि समझदार परिवार से ही जन प्रतिनिधि की उपलब्धि होना पाया जाता है। इसके हर परिवार के समझदार होने की व्यवस्था, लोक शिक्षा और शिक्षा विधि से, मानवीय शिक्षा का बोध कराने की व्यवस्था सुचालित रहेगी ही। इस प्रकार से तीसरे सोपान के लिए दस जनप्रतिनिधि परिवार समूह सभा से निर्वाचित होकर ग्राम सभा के लिए उपलब्ध रहेंगे। इसके निर्वाचन की कालावधि को हर ग्राम सभा अपनी अनुकूलता के आधार पर अथवा सबकी अनुकूलता के आधार पर निर्णय लेगी। उस कालावधि तक मूलत: परिवार से निर्वाचित होकर परिवार समूह से निर्वाचित होकर ग्राम परिवार सभा कार्यक्रम में भागीदारी करने के लिए पहुँचे रहते है। इनके लिए कोई मानदेय या वेतन स्वीकार नहीं होता है क्योंकि हर परिवार समृद्घ रहता ही है। समाधान समद्घि के आधार पर ही जनप्रतिनिधि निर्वाचन होना पाया जाता है। जब दसो जनप्रतिनिधि एकत्रित होते है ये सभी प्रतिनिधि हर कार्य करने योग्य रहते हैं। व्यवस्था कार्य में ऐसा कोई भाग नहीं रहेगा जिसे यह कर नहीं पायेगे। दूसरा हर कार्य के लिए समय और प्रक्रिया को निर्धारित करने में समर्थ रहेंगे। इस शोध के आधार पर मानवीय शिक्षा- संस्कार में पारंगत जैसे एक गॉव में प्राथमिक शिक्षा का आवश्यकता तो रहता ही है उसमें पारंगत रहेंगे। न्याय-सुरक्षा कार्य में पारंगत रहेंगे। उत्पादन-कार्य में पारंगत रहेंगे। विनिमय कार्य में पारंगत रहेंगे। स्वास्थ्य संयम कार्य में भी पारंगत रहेंगे। प्राथमिक स्वास्थ्य विधा में सभी पारंगत रहेंगे। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर:112-113)
          • व्यवस्था की दूसरी कड़ी में सुरक्षा कार्य सम्पन्न होगे। इसमें ग्राम परिवार सभा के लिए निर्वाचित दसो सदस्य सुस्पष्ट ज्ञान सम्पन्न, विवेचना, विश्लेषण में पारंगत रहेंगे। हर परिवार समझदार परिवार होने के आधार पर गलती और अपराध की कोई संभावना नहीं रहती। फिर भी ऐसी कोई प्रवृत्ति उदय होने से घटना तक पहुंचने के पहले सुधार होने की व्यवस्था रहेगी। ऐसी व्यवस्था का प्रभावशीलन परिवार से ही आरम्भ होकर परिवार समूह, ग्राम परिवार सभा में कार्यरत निष्णात व्यक्तिगण सुधार के दायी रहेंगे। जो अनुचित है अनावश्यक है अथवा गलती अपराध है ऐसी मानसिकता को पहचानने का दायित्व सर्वप्रथम परिवार में उसके अनन्तर परिवार समूह सभा में और ग्राम परिवार में रहेगी। ग्राम के सम्पूर्ण सौ परिवार  दायी रहेंगे। जैसे ही ऐसी मानसिकता देखने मिले तुरन्त सुधारने का कार्य करेंगे। और पूरा गाँव के सौ परिवारो का मूल्यांकन, वर्ष में एक बार अथवा छ: महीने में एक बार, आवश्यकता पड़ने से महीने में एक बार होना स्वाभाविक रहेगी। इसकी सुगमता हर दस परिवार के प्रतिनिधि करेंगे। हर परिवार अपना मूल्यांकन स्वयं करेगा। इन दोनो आधार पर ग्राम सभा अपना ध्यान देकर मूल्यांकन की घोषणा करेगा। इनमें से कोई भी परिवार में श्रेष्ठता की आवश्यकता होने पर अथवा परिवार समूह में श्रेष्ठता की आवश्यकता होने पर ग्राम सभा उसकी भरपाई करने का कार्य करेंगे।  मूल्यांकन का ध्रुव बिन्दु समाधान, समृद्घि सम्पन्नता होगा। तीसरा बिन्दु उपकार कार्य में प्रवर्तन समाज गति के रूप में मूल्यांकित होगी। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 114)
          • मंडल समूह परिवार सभा दस मंडल परिवार सभा में से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित होकर मंडल समूह परिवार सभा के कर्णधार रहेंगे। इसी क्रम में सभी प्रकार के कार्यकलापो को तथा पाँचों कड़ियो के कार्यक्रमों को इस सातवीं सोपान में प्रमाणित करने का दायित्व रहेगा इसमें सम्पूर्ण मानव प्रयोजनो को स्पष्ट रूप से प्रमाणित किया जाना कार्यक्रम रहेगा। ऐसे मानव अधिकार परिवार सभा से ही प्रमाणरूप में वैभवित होते हुए शनै: शनै: पुष्ट होते हुए मंडल समूह परिवार सभा में मानव अधिकार का सम्पूर्ण वैभव स्पष्ट होने की व्यवस्था रहेगी। समान्यत: मानव अर्थात समझदार मानव शनै: शनै: दायित्व के साथ अपनी अर्हता की विशालता को प्रमाणित करता ही जाता है। अपनी पहचान का आधार होना हर व्यक्ति  पहचाने ही रहता है। समूचे अनुबंध समझदारी से व्यवस्था तक को प्रमाणित करने तक जुड़ा ही रहता है। प्रबंधन इन्हीं तथ्यो में, से, के लिए होना स्वाभाविक है। समझदारी में परिपक्व व्यक्तियों का समावेश मंडल समूह सभा में होना स्वाभाविक है। ऐसे देव मानव दिव्य मानवता को प्रमाणित करते हुए दृढ़ता सम्पन्न विधि से शिक्षा विधा में शिक्षा-संस्कार कार्य को सम्पादित करते है। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 121)
          • इस सभा की दूसरी कड़ी न्याय- सुरक्षा कार्य रहेगी  इसे पड़ोंसी राज्यों में अर्थात परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को पड़ोंसी राज्यों में प्रवाहित करने के लिए सभी उपायों का प्रयोग करेगी। इस विधि से लोकव्यापीकरण प्रवृत्ति का प्रमाण प्रधान राज्य सभा के दायित्व में रहेगी। 
          इस सभा की तीसरी कड़ी उत्पादन कार्य रहेगी जो आकाश गमन आदि यंत्रो को तैयार करने की प्रौद्योगिकी बनाये रखेगी। साथ में  जलप्रवाह बल से विद्युत उपार्जन कार्य सम्पादित करने की व्यवस्था और दायित्व रहेगी। इसी के साथ साथ वायु प्रवाह, समुद्र तरंग विधियों से भी विद्युत उपार्जन करने के उपक्रम समावेशित रहेंगे। इसी प्रौद्योगिकी कार्यक्रम के साथ और श्रेष्ठतर उपलब्धियो के लिए प्रयोगशील रहने के अधिकार समावेशित रहेंगे जिससे ऊर्जा संतुलन सुलभ हो। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 125)


          स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
          प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज

          दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : अनुभवात्मक अध्यात्मवाद

          अनुभवात्मक अध्यात्मवाद (संस्करण:2009)
          • अनुभव का आधार मूलत: सह-अस्तित्व होना देखा गया है । सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान है । अस्तित्व न घटता है न बढ़ता है । अस्तित्व स्वयं ही सह-अस्तित्व है । अस्तित्व में, से, के लिए सह-अस्तित्व विधि से परमाणु में विकास, पूरकता विधि से होना देखा गया । इस विकासक्रम में जितने भी परमाणुएँ है वह सब भौतिक और रासायनिक कार्यकलापों में भागीदारी करता हुआ देखा गया है । परमाणु विकास पूर्वक गठनपूर्ण होना चैतन्य पद में संक्रमित होना पाया जाता है । यही चैतन्य इकाई ‘‘जीवन’’ आशा, विचार, इच्छापूर्वक कार्यरत है। हर मानव, जीवन एवं शरीर का संयुक्त रूप है । देखने का तात्पर्य समझना, समझने का तात्पर्य अनुभवमूलक विधि से संप्रेषित करना है। भौतिक-रासायनिक क्रियाकलापों में अनेक परमाणुओं से अणु रचना, अनेक अणुओं से छोटे-बड़े पिण्ड रचना का होना दिखाई पड़ता है । ऐसे पिण्डों के स्वरूप ग्रह, गोल, नक्षत्रादि वस्तुओं के रूप में प्रकाशमान है और इस धरती पर रासायनिक क्रियाकलापों अथवा रासायनिक उर्मि के आधार पर अनेक प्रजाति की वनस्पतियाँ, अनेकानेक नस्ल की जीव संसार दिखाई पड़ते है । इन सबके मूल में परमाणु ही नित्य क्रियाशील वस्तु के रूप में देखने को मिलता है । परमाणु में ही विकास होने का तथ्य हर परमाणु में विभिन्न संख्यात्मक परमाणु अंशों का होना ही आधार के रूप में देखा गया है । ऐसे परमाणु विकासक्रम से गुजरते हुए अस्तित्व में रासायनिक-भौतिक कार्यकलापों को निश्चित व्यवस्था के रूप में सम्पन्न करते हुए प्रकाशमान रहता हुआ मानव देख पाता है । प्रत्येक मानव इसे आंशिक रूप में देखा ही रहता है साथ ही सम्पूर्ण रूप में देखने की आवश्यकता बनी रहती है सम्भावना समीचीन रहती है । समझने के अर्थ में अर्थात अनुभवमूलक विधि से संप्रेषित, प्रकाशित, अभिव्यक्त होने के विधि से सम्पूर्ण वस्तु को मानव समझना सहज है । इस क्रम में मानव का मूल अथवा सार्वभौम उद्देश्य समझदारी के साथ जीने की स्वीकृति आवश्यक है । इसी विधि से हर मानव में निष्ठा और जिम्मेदारी आवश्यक है। जिम्मेदारी का तात्पर्य दायित्व और कर्तव्यों को स्वयं स्फूर्त विधि से निर्वाह करने से है और निष्ठा का तात्पर्य है उसकी निरंतरता को बनाये रखने वाली समझदारी से जुड़ी हुई सूत्र से है। ऐसे सूत्र अनुभव से ही जुड़ा हुआ देखा गया है । इस प्रकार अनुभवमूलक अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन विधि से सर्वमानव में निहित संपूर्णता को समझने, कल्पना, विचार और इच्छाओं का गम्य स्थली दिखाई पड़ती है ।  (अध्याय:2, पृष्ठ नंबर: 9-10)
          • अनुभव, व्यवहार और प्रयोग इन तीनों प्रकार से मानव सहज विधि से प्रमाणों की आवश्यकता, सदा-सदा ही बनी रहती है । यही निरन्तर मानव कुल में अपेक्षा, प्रयास और प्रमाणों के स्थितियों में देखने में आता है । आदि काल से समाधान की अपेक्षा रही है । इस शताब्दी के उत्तरार्ध के तीन दशक में मानव में समाधान सहज अपेक्षा बलवती हुई । यह मानवाधिकार रूपी आवाज से आरंभ हुआ । यही अपेक्षा से पीड़ा तक पहुँचने का साक्ष्य देखने को मिला । मानवाधिकार, अपने विचार के अनुसार हर व्यक्ति को सामान्य सुविधा पहुँचना चाहिये, विपदाओं में सहायता और रक्षा होना चाहिये जैसे - भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल से पीड़ित लोगों को राहत पहुँचाना चाहिये । दण्ड के रूप में बहुत सारे दण्ड प्रणालियों को बंद करना चाहिये । दण्ड विधि में सुधार होना चाहिये । युद्घ मानसिकता को बदलना चाहिये । ये सब आवाज के रूप में होना देखा जाता है । कार्यरूप में बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक आवश्यकता के अनुसार रोगग्रस्त स्थिति में दवाई, विपदाग्रस्त स्थिति में खाना-कपड़ा-सुरक्षित स्थान यही सब प्रधानत: सहायता के अर्थ में सुलभ करने के कार्य को किया जाना देखा गया । यद्यपि सुदूर विगत से हर राजगद्दी विपदाओं में ग्रसित लोगों को राहत देने के हित कोष और कार्यों को बनाए रखते रहे हैं । इनमें नया क्या हुआ पूछा जाय तो - इतना ही अंतर है कि राजदरबार की सभी सहायताएँ राजा के कृपावश होता था । मानवाधिकार संस्था का इस विधा में परिवर्तन स्वयं-स्फूर्त विधि से प्रस्तुत है । इनके कार्यकलापों का मूल्यांकन कर्तव्यों, दायित्वों के रूप में मूल्यांकित किया जाता है । इसलिये इसे मानवाधिकार विचारों का धारक-वाहक मानवों में विपदाग्रसित व्यक्ति  पीड़ित होकर ही ऐसे संस्था को संचालित किया गया है, कहा गया है । इसके बावजूद इसमें शुभ का भाग अर्थात् सहायता भाग ही सार्थकता है। (अध्याय:3 , पृष्ठ नंबर: 70-71)
          • दयापूर्ण कार्य-व्यवहार का स्वरूप आवश्यकतानुसार (अपने-पराये के दीवाल विहीन विधि से) अर्थ का सदुपयोग कार्य ही है । यह विशेष कर कर्तव्य और दया सूत्र सम्पन्न परिवार संबंधों में जुड़े होते हैं । जागृति सम्पन्न सर्व परिवार, सर्व मानव के साथ दया का प्रभाव क्षेत्र बना रहता है । हर परिवार समृद्घ होने और समाधानित रहने के आधार पर दयापूर्ण कार्य-व्यवहार सार्थक होना देखा गया है । दयापूर्ण कार्य-व्यवहार की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति समग्र व्यवस्था में भागीदारी का ही स्वरूप है। इतना ही नहीं व्यवस्था स्रोत सहित व्यवस्था में भागीदारी का स्वरूप है । इस प्रकार दयापूर्ण कार्य-व्यवहार का कार्य सार्थकता और उसकी अनिवार्यता स्पष्ट होती है । मूलत: यह सब अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के लक्ष्य में प्रतिपादित और प्रवर्तित है । इसका दृष्टफल मानवापेक्षा रूपी समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व है । यह अनुभव मूलक प्रणाली से ही हर मानव में सार्थक होना पाया जाता है । अस्तु, मानवीयतापूर्ण आचरण सह-अस्तित्व में अनुभव मूलक विधि से और जीवन ज्ञान सहित ही अखण्ड समाज-सार्वभौम व्यवस्था सम्पन्न होना देखा गया है जो स्वयं में स्रोत के रूप में होना पाया जाता है । परिवार मानव पद में ही मानवीयतापूर्ण आचरण सार्थक हो पाता है । परिवार में न्याय सार्थकता प्रमाणित रहता ही है । इसी आधार पर अर्थात् परिवार मानव ही व्यवस्था मानव होने के आधार पर बंधनमुक्ति के प्रमाण स्पष्ट हो जाते है । न्याय सुलभता से स्वाभाविक रूप में भ्रमित आशा, विचार, इच्छा बन्धन से मुक्ति स्वाभाविक है । इससे पता चलता है न्याय प्रदायी योग्यता का विकसित होना ही बन्धन से मुक्ति का गवाही है । शरीर या मोह से ही मानव संपूर्ण प्रकार के अन्याय और कुकर्म करता है। इसे हर मानव, हर स्थिति में आंकलित कर सकता है। परिवार मानव विधि से हर काल, हर परिस्थिति में (मानवीयता पूर्ण परिस्थिति मे) न्याय प्रदायी योग्यता और क्षमता को प्रमाणित करना सहज है। यही प्रधान रूप में मुक्ति का प्रमाण है। ऐसी परिवार मानव के रूप में जीने की सम्पूर्ण चित्रण स्वयं में समाज रचना का चित्रण है । (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर:162-163)
          • प्रमाणों के मुद्दों पर अध्यात्मवाद सर्वप्रथम शब्द को प्रमाण मान लिया गया । तदनन्तर, पुनर्विचार पूर्वक आप्त वाक्यों को प्रमाण माना गया । तीसरा प्रत्यक्ष, आगम, अनुमान को प्रमाण माना गया । ये सभी अर्थात् तीनों प्रकार के प्रमाणों के आधार पर अध्ययनगम्य होने वाले तथ्य मानव परंपरा में शामिल नहीं हो पाये । इसी घटनावश इसकी भी समीक्षा यही हो पाती है यह सब कल्पना का उपज है । शब्द को प्रमाण समझ कर कोई यथार्थ वस्तु लाभ होता नहीं । कोई शब्द यथार्थ वस्तु का नाम हो सकता है । वस्तु को पहचानने के उपरान्त ही नाम का प्रयोग सार्थक होना पाया गया है । इसी विधि से शब्द प्रमाण का आशय निरर्थक होता है । ‘‘आप्त वाक्यं प्रामाण्यम् ।’’ आप्त वाक्यों के अनुसार कोई सच्चाई निर्देशित होता हो उसे मान लेने में कोई विपदा नहीं है। जबकि चार महावाक्य के कौन से चार महावाक्य रूप में जो कुछ भी नाम और शब्द के रूप में सुनने में मिलता है उससे इंगित वस्तु अभी तक अध्ययन परंपरा में आया नहीं है । आप्त वाक्य जब अध्ययनगम्य नहीं है, मान्यता के आधार पर ही है, तर्क तात्विकता की कड़ी है, अध्ययन तर्क संगत होना आवश्यक है। ऐसे में आप्त पुरूषों को भी कैसे पहचाना जाय? यह प्रश्न चिन्हाधीन रह गया । कोई भी सामान्य व्यक्ति भय, प्रलोभन और संघर्ष से त्रस्त होकर किसी को आप्त पुरूष मान लेते हैं तब उन्हीं के साथ यह दायित्व स्थापित हो जाता है आपने कैसे मान लिया। इसके उत्तर में बहुत सारे लोग मानते रहे, अथवा मैं अपने ही खुशी से मान लिया हूँ-यही सकारात्मक उत्तर मिलता है । ऐसा बिना जाने ही मान लेने के साथ ही सम्पूर्ण प्रकार से कल्याण होने का आश्वासन भी देते हैं साथ ही सारे मनोरथ या मनोकामना पूरा होने का आश्वासन देते हैं । ऐसा आश्वासन स्थली, आश्वासन देने वाला व्यक्ति के संयोग से आस्थावादी माहौल (भीड़) का होना देखा गया है । ऐसे भीड़ से कोई एक अथवा सम्पूर्ण भीड़ के द्वारा जीवन अपेक्षा, मानवापेक्षा फलीभूत होता हुआ इस सदी के अंतिम दशक तक देखने को नहीं मिला । (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 205)
          • अभ्यास को हम इस तथ्य के रूप में देख पाये हैं कि साधना से जो जागृति बिन्दु हमें प्राप्त हुई और समृद्घ हुए उसे अभ्युदय (सर्वतोमुखी समाधान) के रूप में वयवहृत करने के रूप में सार्थकता को देखा गया । इसी के साथ-साथ नि:श्रेयष (निरंतर श्रेय) को जागृति पूर्णता के रूप में देखा गया । देखने का तात्पर्य समझने से ही है । समझने का तात्पर्य जानने-मानने-पहचानने से ही है । श्रेय के स्वरूप को जागृति और उसकी निरंतरता में ही होना देखा गया है । हर मानव, हर परिवार, हर समुदाय, हर पंथ-सम्प्रदाय सब जागृति को स्वीकारते ही हैं । इसे निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक हर मानव देख सकता है । इससे यह स्पष्ट हो जाती है हर देश काल में हर मानव श्रेय अपेक्षी है ही । इसे सार्थक रूप देने के लिये परंपरा सहज कर्तव्य स्वीकृति आवश्यक है । इस क्रम में यह भी स्पष्ट हो गया है कि साधना सहज क्रम में जागृति, जागृति विधि में व्यवस्था होना, नित्य अभ्यास एवं प्रमाण है । (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:228)

          स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
          प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज

          दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : व्यवहारवादी समाजशास्त्र

          व्यवहारवादी समाजशास्त्र (संस्करण : 2009)
          • हर मुद्दे पर आवश्यक और अनावश्यकता का निर्णय हम इस विधि से पाते हैं कि निश्चित लक्ष्यगामी स्थिति-गति के लिए प्रेरक, सहायक होने के सभी तथ्यों को आवश्यकता के अर्थ में और इसके विपरीत अर्थात् लक्ष्य के विपरीत सभी प्रकार की देशकाल में हुई घटनाएँ मानव परंपरा के लिये अनावश्यक है। सम्पूर्ण मानव का मूल लक्ष्य इसकी अक्षुण्णता, अखण्डता सार्वभौमता ही है। इसका प्रमाण स्वरूप समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व है। यह दायित्व, कर्तव्य, संज्ञानशीलता, संवेदनशीलता पूर्वक हर मानव में, से, के लिये समान रूप में आवश्यक और समीचीन होना और सार्थकता का मूल्यांकन होना तथा नित्य उत्सव होना पाया जाता है। इसी अर्थ में आवश्यकता और अनावश्यकता का वर्गीकरण हो पाता है। लक्ष्य और प्रमाण के सार्थकता, सामरस्यता सहज सभी श्रुति-स्मृति, साक्षात्कार, अनुभव ज्ञान, दर्शन, व्यवहार, व्यवस्थाएँ, नित्यगति रूप में सार्थक होना पाया जाता है। इसी क्रम में जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था, परिवार मानव, स्वायत्त मानव, संयोजन, योजन कार्यविधि से मानव परंपरा युगों-युगों तक सफल होने का मार्ग प्रशस्त है। (अध्याय: 4, पृष्ठ नंबर: 103-104)
          • जागृति और उसका प्रमाण सहज रूप में ही जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सहित परिवारमूलक व्यवस्था विधि से सफल होना पाया जाता है, सार्थक होना पाया जाता है। सफल होने का तात्पर्य मानव स्वयं-स्फूर्त विधि से व्यवस्था के रूप में प्रमाणित हो जाने से है। सार्थकता का तात्पर्य समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने से है। अस्तित्व सहज रूप में ही मानव अपने त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने योग्य इकाई है। यही मानव जागृति को निरीक्षण-परीक्षण पूर्वक प्रमाणित होने, करने का एवं करने के लिये मत देने का सूत्र है। इस विधि से सार्वभौम लक्ष्य रूपी जागृति और जागृति प्रमाण, मानवीयतापूर्ण आचरण स्वयं कर्त्तव्यों, दायित्वों,  प्रेरकताओं और सम्पूर्ण कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत-कारित, अनुमोदित विधियों से मानव परंपरा में स्पष्ट हो जाता है। यही प्रधान रूप में संविधान की मंशा है। (अध्याय: 4, पृष्ठ नंबर: 124) 
          • लक्ष्य सहज प्रमाणों का
          मूल्यांकन विधि - 1. स्वयं में, एक दूसरे के परस्परता में यथा प्रत्येक मनुष्य अपने में, परस्पर मानव संबंधों में और नैसर्गिक संबंधों में। 2. समझदारी, समझदारी के अनुरूप निष्ठा (कर्तव्य, दायित्व के रूप में किया गया निर्वहन और उसका फल-परिणाम) सहज विधि। (अध्याय: 4, पृष्ठ नंबर: 125-126)
          • संतुलन ही हर व्यक्ति में दायित्व और कर्तव्य के रूप में नियंत्रित रहना पाया जाता है। यही संपूर्ण कार्यों में नियमित रहना होता है। इस प्रकार मानव अपने परिभाषा के अनुरूप अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान को स्वीकृति के रूप में स्वानुशासन के रूप में स्वतंत्रता को; समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में स्वराज्य व्यवस्था को प्रमाणित करता है। यही मानव सहज परिभाषा का सार्थकता, उपकार, तृप्ति और उसकी निरंतरता है। अस्तु, मानव अपने परिभाषा सहज सार्थकता को प्रमाणित करना ही मौलिक अधिकार है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 148)
          • ऊपर कहे प्रतिज्ञा कार्यों में यह तथ्य उद्घाटित हुआ ही है कि स्वायत्त मानवाधिकारोपरान्त ही विवाह घटना का उपयोगी और सार्थक होना पाया जाता है। स्वायत्त मानव का पहचान स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक और व्यवसाय में स्वावलंबन सहज प्रमाण के आधार पर सम्पन्न होना व्यवहारिक है। ऐसी अर्हता को शिक्षा-संस्कार परंपरा में प्रावधानित रहना मानव सहज वैभव में से एक प्रधान आयाम है। इस प्रकार चेतना विकास मूल्य शिक्षा सम्पन्न शिक्षित व्यक्ति ही अध्ययनपूर्वक अपने में स्वायत्तता का अनुभव करने और सत्यापित करता है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा, मानवीयतापूर्ण ज्ञान, दर्शन और आचरण सम्पूर्ण अध्ययनोपरांत किये जाने वाले हर सत्यापन को वाचिक प्रमाण के रूप में स्वीकारना नैसर्गिक व्यवहारिक आवश्यक मानव परंपरा में से प्रयोजनशील होना देखा गया है क्योंकि परस्पर सम्बोधन सत्यापन के साथ ही सम्बंध, कर्तव्य व दायित्वों की अपेक्षाएँ और प्रवृत्तियाँ परस्परता में अथवा हरेक पक्ष में स्वयं स्फूर्त होना पाया जाता है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 153)
          • स्वायत्त मानवाधिकार के लिए 18 वर्ष की आयु तक सम्पन्न होने की व्यवस्था है। इसके उपरान्त परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होने के लिए चार वर्ष न्यूनतम रूप में होना आवश्यक है। इसमें हर अभिभावक, आचार्य, भाई-बहन, मित्र सबको प्रमाण देखने को मिलेंगे। इस अवधि के उपरान्त प्रधानत: अभिभावक, प्रौढ़, भाई-बहन, मित्रों की सम्मति विवाह में प्रयोजित होने वाले नर-नारी की प्रवृत्तियों का संगीत अथवा एक मानसिकता के आधार पर आचार्यों की सम्मति सहित विवाह संस्कार सम्पन्न होगा। यही मानव परंपरा में मानवीयतापूर्ण पद्घत्ति से मानव संचेतना सहित सम्पन्न होने वाला विवाह संस्कार उत्सव है। इसके लिये आयु विचार स्पष्ट हो गया। बाईस वर्ष के उपरान्त ही विवाह सम्पन्न होना अध्ययन विधि से स्पष्ट हो चुका है। इसी अवधि के साथ दायित्व, कर्त्तव्य और परिवार मानव का सम्पूर्ण प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता और अवधियाँ स्पष्ट हो चुकी है। दूसरी विधि से स्वास्थ्य संबंध में सोचने पर भी शरीर-अंग-अवयव पुष्टि भी इसी आयु तक सहज ही सम्पन्न होना देखा गया है। (अध्याय:6, पृष्ठ नंबर: 154)
          • मानवीयतापूर्ण मानव परंपरा में मानव कुल के रूप में शरीर निर्माण गर्भाशय में होने एवं उसका पोषण-सरंक्षण-संवर्धन एक आवश्यकीय भूमिका है। इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए ही विवाह सम्बन्ध का सर्वोपरि प्रयोजन है। इसी के साथ-साथ यौवन और यौन विचार संयोग की आपूर्ति स्वाभाविक रूप में होना पाया जाता है। इसमें यह भी देखा गया है मानवीयतापूर्ण मानसिकता, विचार, चिन्तन (मानवीयता के प्रति दायित्व-कर्तव्य मानसिकता की सुदृढ़ता) समुन्नत और परिष्कृत होते-होते यौन-यौवन संबंधी आकर्षण अथवा सम्मोहन क्षय होता है। यह भी मानवीयता के प्रति निष्ठान्वित हर नर-नारी में परीक्षण और सत्यापन संगीत का पाया जाना नैसर्गिक है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:156)
          • तथ्य :- मानवीयतापूर्ण विधि से अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी का होना प्रधान लक्ष्य है। इसी विधि में मौलिक अधिकार और इसी क्रम में मौलिक अधिकार का स्पष्टीकरण एक दूसरे को इंगित होता है, स्वीकृत होता है, जाँचने की विधि स्वयं स्फूर्त होता है। इसी क्रम में स्वायत्त मानव के वैभवों का परीक्षण जैसा- (1) स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करने का अधिकार, प्रक्रिया और प्रमाण, (2) प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलनाधिकार प्रक्रिया और प्रमाण और (3) व्यवहार में सामाजिक एवं व्यवसाय में स्वावलंबनाधिकार, प्रक्रिया और प्रमाण एक दूसरे को समझ में आता है। समझ में आने का तात्पर्य जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने से है। ऐसे मनुष्य ही परिवार मानव और व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होना सहज है। यही सम्पूर्ण स्वत्व स्वतंत्रता और अधिकारों का वैभव और विस्तार है। इस प्रकार कर्तव्य दायित्व ही समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी के रूप में अधिकार है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 160-161)
          • हर परिवार मानव में जागृति का प्रभाव, जागृति का वैभव मुखरित रहता ही है। इसी आधार पर हर अभिभावक शिशुकाल से ही जागृतिकारी संस्कारों को स्थापित करने में सफल होते ही हैं। यह हर जागृत नर-नारी का कर्तव्य भी है, दायित्व भी है। इससे यह स्पष्ट है हर मनुष्य अभिभावक पद को पाने से पहले एक अनिवार्यता है, स्वायत्तपूर्ण रहना एक आवश्यकता है और परिवार मानव के रूप में प्रमाणित रहना सर्वोपरि अनिवार्यता है ही। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 181-182)
          • परिवार क्रम में
          सम्बोधन                         प्रयोजन
          6. स्वामी (साथी) - दायित्व
          7. सेवक (सहयोगी) - कर्तव्य
          (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर: 185)
          • ...अखंड समाज सूत्र परिवार विधि से सार्थक होना पाया जाता है। परिवारों का स्वरूप और विशालता को दस सोपानों में स्पष्ट किया गया है। इसी के साथ-साथ दस सोपानों में सभा-स्वरूप व्यवस्था कार्य, कर्तव्य, दायित्व को स्पष्ट किया है। परिवार क्रम में मूल्य, चरित्र, नैतिकता अविभाज्यता को सहज ही स्पष्ट किया जा चुका है। दस सोपानीय समाज रचना और व्यवस्था गति अपने-आप में एक दूसरे को संतुलित करने के अर्थ से हम अभिहित होते हैं। जैसा:- परिवार- जिसका सूत्र सम्बन्ध मूल्य, मूल्यांकन, उभय-तृप्ति और परिवारगत उत्पादन-कार्य में पूरकता फलस्वरूप परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन है। परस्पर परिवार व्यवस्था में विनिमय एक अनिवार्य कार्य है। इसी के साथ सीखा हुआ को सिखाने, किया हुआ को कराने, समझा हुआ को समझाने का कार्य प्रणाली सदा-सदा जागृत मानव पंरपरा में वर्तमान रहता ही है। इसी क्रम में सर्वमानव सुख, सर्वमानव शुभ और सर्वमानव समाधान सर्वसुलभ होता ही रहता है। इस स्थिति को पाना सर्वमानव का अभीप्सा है। अतएव सुलभ होने का मार्ग सुस्पष्ट है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:198-199)
          • मित्र सम्बन्ध - जीवन ज्ञान सम्पन्नता के अनन्तर सुस्पष्ट हो जाता है कि सभी सम्बन्ध जीवन जागृति और उसका प्रमाणीकरण प्रणाली का ही पहचान है। जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान सम्पन्न होने के उपरान्त सम्पूर्ण प्रकार के सम्बन्धों, मूल्यों, मूल्यांकनों और उभयतृप्ति का पहचान, स्वीकृति मानसिकता, गति, प्रयोजन पुन: पहचान, मूल्यांकन क्रम आवर्तित रहता ही है। यह अनुस्यूत प्रक्रिया है। जीवन ही दृष्टा-कर्ता-भोक्ता होने का तथ्य जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान में पारंगत होने के फलन में सह-अस्तित्व में वर्तमानित रहता है। इसी आधार पर मित्र सम्बन्ध परस्पर अभ्युदय के लिये कामना, कार्य, मूल्यांकन करने में समर्थ रहता ही है। मित्र सम्बन्ध में भाई-भाई, बहन-बहन सम्बन्ध के सदृश जाँच, पड़ताल, विश्लेषण, निष्कर्ष, मूल्यांकन सहायक होना पाया जाता है। दूसरे भाषा में सहायक होना ही सार्थकता है। हर सम्बन्ध कम से कम दो व्यक्तियों के बीच होना पाया जाता है। भाई और मित्र सम्बन्ध में समानता है। इसको आमूलत: विश्लेषण करने पर लड़कों के साथ लड़कों की मित्रता, लड़कियों की मित्रता लड़कियों से हो पाता है। क्योंकि आशय बहिन-बहिन और भाई-भाई का ही सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध का पावन रूप उभय जागृति, कर्तव्य, दायित्व उसकी गति प्रयोजन और उसका मूल्यांकन विधि से ही मित्रता और भाई-बहन सम्बन्ध सदा-सदा ही मानव परंपरा में पावन रूप में उपकार विधि और उसका शोध, निष्कर्ष को प्रस्तुत करते ही रहेंगे। पावन का तात्पर्य व्यवस्था के अर्थ में है। यही उपकार का स्वरूप है। यद्यपि सभी सम्बन्धों में आशित, इच्छित, लक्षित और वांछित तथ्य समाधान, समृद्घि अभय, सह-अस्तित्व ही है। इस आशय अथवा आवश्यकता की आपूर्ति और इसके सर्वसुलभ होने के लिये समझना-समझाना, करना-कराना, सीखना-सीखाना स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसी क्रम में समाज गति, व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी, स्वाभाविक रूप में मूल्यांकित होता है। ऐसी मूल्यांकन प्रणाली से ही मानव परंपरा में मानवीयतापूर्ण प्रणाली, पद्घति, नीति का दृढ़ता सुख, सुन्दर, समाधान, समृद्घिपूर्वक प्रमाणित होना नित्य समीचीन रहता है। ऐसे सर्ववांछित उपलब्धि के लिये मित्र संबंध अतिवांछनीय होना पाया जाता है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:213-215)
          • शिक्षा-संस्कार में अथ से इति तक मानव का अध्ययन प्रधान विधि से अध्यापन कार्य सम्पन्न होना सहज है। अध्ययन मनुष्य का, मानव में, से, के लिये ही होना दृढ़ता से स्वीकार रहेगा। प्रत्येक मनुष्य के अध्ययन में शरीर और जीवन का सुस्पष्ट बोध सुलभ होना पाया गया है। जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन निबद्घ विधि से अध्ययन सुलभ होने के कारण अस्तित्व मूलक मानव का पहचान, मानवीयतापूर्ण पद्घति, प्रणाली, नीति समेत पारंगत होने की विधि रहेगी। इसी विधि से हर आचार्य विद्यार्थियों को शिक्षण-शिक्षा पूर्वक अध्ययन कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ रहते हैं। जिसमें उनका कर्तव्य और दायित्व प्रभावशील रहना स्वाभाविक है। क्योंकि हर आचार्य शिक्षा, शिक्षण, अध्ययन का प्रमाण स्वरूप में स्वयं प्रस्तुत रहते हैं इसलिये यह सार्थक होने की संभावना अथवा निश्चित संभावना समीचीन रहता है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:216)
          • अध्ययन संस्थाओं की अभीप्सा, स्वरूप, लक्ष्य, सामान्य क्रिया प्रणाली स्पष्ट हो चुकी है। मानव कुल में समर्पित संतानों को शिक्षा-संस्कार की अनिवार्यता होना पहले से स्पष्ट है। इसे सार्थक और सुलभ बनाने के क्रम में परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को दस सोपानों में स्पष्ट किया जा चुका है। व्यवस्था की निरंतरता में प्रधान आयाम मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार, पद्घति, प्रणाली, नीति ही है। शिक्षित हर व्यक्ति स्वायत्त होना सहज है। स्वायत्तता ही शिक्षित और संस्कारित व्यक्ति का प्रमाण है। ऐसी स्वायत्तता सर्वमानव स्वीकृत तथ्य है। इसलिये सार्वभौम नाम प्रदान किये हैं। सार्वभौम का तात्पर्य सर्वमानव स्वीकृत है, स्वीकृति योग्य है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार पूर्वक स्वायत्त मानव का स्वीकृति परिवार और व्यवस्था में भागीदारी करने के लक्ष्य से स्वीकृत होता ही है। ऐसे सार्वभौम रूप में स्वीकृत मनुष्य ही मौलिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए अपने को समाधानित और वातावरण को समाधानित करने में निष्ठान्वित रहना स्वाभाविक है। उसके लिये दायित्व और कर्तव्यशील रहना स्वाभाविक है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर हर परिवार में समाधान, समृद्घि, अभय और सह-अस्तित्व वर्तमान में प्रमाणित होता है। व्यवस्था, परिवार और समाज सदा ही वर्तमान में, से, के लिये अपने त्व सहित वैभवित होना है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:218-219)
          • शिक्षा-संस्कार सम्पन्न होने के उपरान्त हर व्यक्ति को स्वायत्त और परिवार मानव के रूप में पहचानना स्वाभाविक होता है। परिवार मानव के रूप में ही हर सम्बन्धों का निर्वाह होना, प्रमाणित होना और प्रयोजित होना मूल्यांकित होता है। इसी आधार पर मौलिक अधिकारों को कार्य, व्यवहार, आचरण रूप में प्रमाणित करना ही परिवार मानव सहज सार्थकता है। परिवार मानव संबंधों में, से एक विवाह सम्बन्ध एक पत्नी, एक पति संबंध है। परिवार मानव का कार्य रूप अपने आप में व्यवस्था में जीना ही है। दूसरी भाषा में मानवीयतापूर्ण परिवार में ही व्यवस्था का प्रमाण सदा-सदा के लिये वर्तमानित रहता है। यही जागृत मानव परंपरा का भी साक्ष्य है। परम्परा में प्रधान आयाम परिवार और व्यवस्था का नित्य प्रेरणा स्रोत शिक्षा-संस्कार ही होना पाया जाता है। अतएव स्रोत और प्रमाण के संयुक्त रूप में ही अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र प्रतिपादित होता है। निष्कर्ष यही है परिवार में ही समाज सूत्र और व्यवस्था सूत्र कार्य, व्यवहार, आचरण रूप में प्रमाणित होना ही मानव परंपरा का वैभव है। यही मानवीयता पूर्ण परिवार का तात्पर्य है। इसी में समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व का प्रमाण प्रसवित होता है। इस क्रम में हर परिवार में समाधान और समृद्घि का दायित्व, कर्तव्य, आवश्यकता और प्रयोजन परिवार के सभी सदस्यों में स्वीकृत होना और प्रभावशील रहना ही अथवा प्रमाणित रहना ही परिवार की महिमा और गरिमा है। मानवीयता पूर्ण परिवार का अपने परिभाषा में भी यही तथ्य इंगित होता है जैसा परिवार में भागीदारी निर्वाह करता हुआ हर सदस्य एक दूसरे के संबंधों को पहचानते हैं; मूल्यों का निर्वाह करते हैं और मूल्यांकन करते हैं। फलस्वरूप उभयतृप्ति एक दूसरे के साथ विश्वास के रूप में जानने, मानने, पहचानने और निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होता है। यही परिवार सहज गतिविधि का प्रधान आयाम है। इसी के साथ दूसरा आयाम परिवार में भागीदारी निर्वाह करता हुआ हर सदस्य परिवार गत उत्पादन-कार्य में भागीदारी का निर्वाह करते हैं। फलस्वरूप परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन होना पाया जाता है। जिससे समृद्घि का स्वरूप सदा-सदा परिवार में बना ही रहता है। इसीलिये परिवार और ग्राम परिवार, परिवार समूह और परिवार के रूप में जीने की कला अपने आप में प्रसवित होती है। समृद्घि समाधान, सम्बन्धों, मूल्य, मूल्यांकन के आधार पर बनी ही रहती है। समाधान और समृद्घि सूत्र परिवार में विश्वास के रूप में प्रमाणित होता ही है। इसी आधार पर विशालता की ओर विश्वास के फैलाव की आवश्यकता निर्मित होता है। यही सह-अस्तित्व के लिये सूत्र है। इस प्रकार से परिवार और व्यवस्था का दूसरे भाषा में परिवार मूलक विधि से व्यवस्था का संप्रेषणा, प्रकाशन सर्वसुलभ हो जाता है। ऐसी सर्वसुलभता मानवीय शिक्षा-संस्कार स्वरूप से ही हो पाता है। यही शुभ, सुंदर, समाधानपूर्ण परिवार विधि है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:230-231)
          • विवाह संबंध को स्वीकारा गया और प्रतिबद्घता पूर्वक अर्थात् संकल्प पूर्वक निर्वाह करने के लिये मानसिक तैयारी सहित घोषणा और सत्यापन कार्यक्रम विवाहोत्सव का स्वरूप है। इसी आशय को गाकर व्यक्त किया जाता है। सम्भाषण, संबोधन और सम्मति व्यक्त करने के रूप में उत्सव सम्पन्न होता है। इसी के साथ-साथ दांपत्य संबंध के साथ-साथ एक परिवार मानव सहज दायित्वों, कर्तव्यों सहित मानव सहज उद्देश्य, जीवन सहज उद्देश्य के लिये अर्हिनिशी समझने, सोचने, करने, कराने के लिये मत देने के लिये संकल्प किया जाता है। विवाहोत्सव में भागीदारी निर्वाह करता हुआ हर व्यक्ति दांपत्य जीवन सफल होने की कामना सहित सम्मतियों को व्यक्त करने के रूप में प्रस्तुत होना सहज होता है। दाम्पत्य संबंध में सत्यापित व्यक्ति से कम अवस्था वाले जो भागीदारी निर्वाह किये रहते हैं वे सब नव दंपतियों के जीने की कला, विचार शैली और अनुभवों से सदा-सदा प्रेरणा पाने के लिये कामना व्यक्त करने के रूप में उत्सव में भागीदारी को निर्वाह करना सहज है। इस प्रकार उत्सव में सम्मिलित सभी आयु वर्ग के व्यक्तियों की भागीदारी अपने आप स्पष्ट होती है। यही विवाहोत्सव का तात्पर्य है। (अध्याय:6, पृष्ठ नंबर: 231)
          • ...उक्त चारों मौलिक अधिकार सूत्र में इंगित किया गया आशय तथ्य और प्रयोजन एक पाँचवे सूत्र के व्याप्ति में ही स्पष्ट हो चुका है। मौलिक अधिकार का प्रयोग जागृत मानव ही उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशील बना पाता है; अतएव मानव अपने अखण्डता, सार्वभौमता और अक्षुण्णता को बनाये रखने का दायित्व और कर्तव्य मानव में ही मानव में, से, के लिये सन्निहित है। इन सबका अथवा सभी प्रकार की सफलता जीवन जागृति ही है और जागृति पूर्णता ही है। जागृति और जागृति पूर्णता के अनन्तर ही मानव अपने अखण्डता, सार्वभौमता, अक्षुण्णता को सहज ही पहचानता है। फलत: निर्वाह करना स्वाभाविक हो जाता है। मनुष्य में ही जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने का वैभव प्रमाणित होता है। यह जागृति व जागृति पूर्णता का ही द्योतक है। संपूर्ण आयाम, कोण, दिशा परिप्रेक्ष्यों में जानने, मानने का प्रमाणों में दायित्व पहचानने, मानने, निर्वाह करने का वैभव प्रमाणित होता है। यह जागृति पूर्णता का ही द्योतक है। संपूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्यों में जानने, मानने का प्रमाणों में दायित्व पहचानने और निर्वाह करने के रूप में कर्तव्य करते हुए स्वयं स्फूर्त होता है। कर्तव्य से समृद्घि, दायित्व से समाधान निष्पन्न एवं प्रमाणित होता है। जानने, मानने के फलन में नियम और न्याय का संतुलन होना पाया जाता है। फलस्वरूप नित्य समाधान होता है। समाधान व्यवस्था का सूत्र है। इसका व्याख्या उक्त सभी मौलिक अधिकारों में व्याख्यायित हुई है। समस्या पूर्वक कोई मौलिक अधिकार वर्तमान होता ही नहीं है। इसी कारणवश हर व्यक्ति को जागृत होने की आवश्यकता बनी है। सभी विधाओं में मानव अपने को संतुलन बनाये रखने का न्याय और नियम में सामरस्यता ही है। फलस्वरूप समाधान, व्यवस्था उसकी अक्षुण्णता स्वाभाविक रूप में प्रमाणित होना सहज है। इसमें हर व्यक्ति अपना भागीदारी करना स्वाभाविक है; चाहत हर व्यक्ति में है ही। इसे सर्व-सुलभ बनाने के लिये मानवीयकृत शिक्षा योजना, जीवन विद्या योजना, परिवार मूलक स्वराज्य योजना सहज विधियों से सर्वमानव जागृत होना सदा-सदा बना रहेगा। इस प्रकार जागृति और जागृति पूर्णता को कार्य-व्यवहार, व्यवस्था के रूप में सतत् बनाये रखना ही अक्षुण्णता का तात्पर्य है। संपूर्ण मानव को मानवत्व के आधार पर समानता का अनुभव करना अखण्डता का तात्पर्य है। हर जागृत मनुष्य हर जागृत मनुष्य के साथ जो कुछ भी मैं समझता हूँ उसे सभी मानव समझा है या समझ सकता है; मैं जो कुछ सोचता हूँ, जो कुछ भी समाधान के रूप में सोचता हूँ ऐसा सर्वमानव सोचता है; समाधान और प्रामाणिकता के पक्ष में मैं जो कुछ भी बोल पाता हूँ और बोलता हूँ इसे सर्वमानव बोल सकता है अथवा बोलता है; जो कुछ भी मैं पाया हूँ उसे सर्वमानव पा सकता है, जो कुछ भी हम करते हैं उसे सर्वमानव कर सकता है। जितना भी हम जीने देकर जिया हूँ हर व्यक्ति जीने देकर जी सकता है; मैं व्यवस्था में जीता हूँ सर्वमानव व्यवस्था में जी सकता है या जियेगा। मैं समाधान सहज निरंतरता में सुखी हूँ। हर व्यक्ति समाधान सहज विधि से सुखी है या सुखी हो सकता है। मैं न्याय और नियमपूर्वक हर कार्य-व्यवहार को निश्चय करता हूँ और क्रियान्वयन करता हूँ वैसे ही हर व्यक्ति निश्चयन करता है और निश्चयन कर सकेगा। मैं प्रमाणिक हूँ हर व्यक्ति इस धरती पर प्रमाणिक होगा और प्रमाणिक हो सकता है। इस विधि से मानसिकता, विचार और समझदारी संपन्न होना है। ऐसा जीना ही मानव का परिभाषा मानवीयतापूर्ण आचरण सार्वभौम व्यवस्था व अखण्ड समाज और समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व का नित्य वैभव है। यही जागृत मानव समाज का स्वरूप कार्य-विचार और नजरिया है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 254-255)
          • दायित्व और कर्तव्य (अध्याय 8)
          जागृत मानव सहज रूप में समझदारी के आधार पर ही सम्पूर्ण प्रकार के विचार करता हुआ, विचारों के आधार पर अथवा विचार शैली के आधार पर ही जीने की कला अथवा जीवन शैली ही सम्पूर्ण कार्यकलाप होना पाया जाता है। मूल समझ का स्वरूप अस्तित्व रूपी सह-अस्तित्व ही होना स्पष्ट हो चुका है। ऐसा समझ जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में संचेतना स्वरूप मानव में वर्तमान होना प्रमाणित है। यही मानव सहज जागृति का द्योतक है। प्रत्येक जागृत मानव संचेतनापूर्ण अथवा संचेतनशील रहता ही है। पूर्ण होने का तात्पर्य दिव्य मानव पद में सार्थक और प्रमाणित होता है और मानव तथा देव मानव परिष्कृत संचेतनशील रहता है। भ्रमित मानव अपरिष्कृत संवेदनशील रहता ही है। इसी कारणवश मानव में पाँच कोटियाँ सुस्पष्ट हो चुकी हैं। जागृति पूर्ण मानव पंरपरा मानव संतानों में ही देखने को मिलेगी। युवा-प्रौढ़ व्यक्तियों में भ्रम का सम्भावना ही समाप्त हो जाता हैं। परिष्कृत और परिष्कृतपूर्ण संचेतन सम्पन्न मानव परंपरा में दायित्व और कर्तव्य बोध होना स्वाभाविक है। संचेतना का तात्पर्य पूर्णता के अर्थ में चेतना है। चेतना का तात्पर्य ज्ञान और ज्ञान के स्वरूप में जानने-मानने-पहचानने एवं निर्वाह करने का प्रमाण है।
          सम्पूर्ण प्रमाण वर्तमान में ही वैभवित होना देखा गया। संचेतना सहज विधि से जीवन शक्ति और बल को पूरक विधि से देने योग्य स्वरूप स्वयं में दायित्व है। व्यवहार और उत्पादन कार्यों में जीवन शक्तियों और बलों को अर्पित करना ही देने का तात्पर्य है। ऐसा दायित्व, कर्तव्यों के साथ ही अर्थात् व्यवहार, उत्पादन, व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी के साथ ही प्रमाणित होता है। यही कर्तव्य का स्वरूप और महिमा है। ऐसे कर्तव्य और दायित्व हर व्यक्ति में चेतना विकास पूर्वक स्वीकृत हैं। इसलिये जागृति के उपरान्त प्रमाणित होना सहज है। जागृत मानव में दायित्व और कर्तव्य पूरक विधि से सम्पन्न होता ही रहता है। 
          मनुष्येत्तर तीनों प्रकृति में भी पूरकता नियम से सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न होता हुआ देखने को मिलता है। इनमें लक्ष्य तीनों अवस्थाओं में तीन स्वरूप में होना देखा गया है। पदार्थावस्था में परिणामानुषंगी सूत्र और व्याख्या है। यही प्राणावस्था में परिणाम सहित पुष्टि धर्म निहित रहना पाया जाता है। जीवावस्था में अस्तित्व, पुष्टि सहित जीने की आशा धर्म विद्यमान होना देखा गया है। इसलिये सम्पूर्ण जीवावस्था जीवनीक्रम सहित परिणाम, पुष्टि सहित जीने की आशा सहज लक्ष्य रूप में होना पाया जाता है। इसलिये जीवावस्था में जीने की आशा, लक्ष्य, सूत्र और व्याख्या प्रमाणित है। मानव में अस्तित्व, पुष्टि, जीने की आशा सहित सुख धर्मीयता स्पष्ट है। इसी के साथ अपरिष्कृत, परिष्कृतपूर्ण संचेतन सहज कार्यकलाप का वर्गीकरण भ्रम व जागृति रूप में करता हुआ मानव अपने-आप में स्पष्ट है। ऐसे मानव में स्वाभाविक रूप में सुख-लक्ष्य, सूत्र-व्याख्या का होना स्वाभाविक रहा है। ऐसी सुख लक्ष्य परिष्कृत संचेतना अथवा परिष्कृत पूर्ण संचेतना सहज विधि से समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाण सहित प्रमाणित होना पाया जाता है। मानव अपने आप में सुख धर्मी होने के आधार पर ही मानव संचेतना सहज अर्थात् जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने सहज विधि से समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाण रूप में दायित्व और कर्तव्यों का निर्वाह होना सहज है। इसी क्रम में जागृति सहज विधि से ही दायित्व और कर्तव्यों को सम्पन्न करना स्वत्व व स्वतंत्रता का द्योतक है। क्योंकि मानव का मानवीयतापूर्ण आचरण मानव में, से, के लिये स्वतंत्रता का प्रमाण है।
          प्रमाण सहित ही हर मानव का सुखी होना सतत समीचीन है। सम्पूर्ण मानव में, से, के लिये प्रामाणिकता और प्रमाण ही सुख का स्रोत, सूत्र और व्याख्या है। जीवन ही जागृति पूर्वक मानव परंपरा में सुख का स्रोत होना पहले से स्पष्ट हो चुकी है। जागृति के पहले जीवन भ्रमित रहता है। भ्रमवश ही मानव जीवन बंधन में होता है। ऐसा बंधन भ्रमित आशा, विचार, इच्छा के रूप में होना सर्वेक्षित है। न्याय, धर्म (सर्वतोमुखी समाधान), सत्य (अस्तित्व में अनुभव) सहज विधि से प्रमाणित पूर्वक ही जागृत होना देखा गया है। जागृति पूर्वक ही हर मनुष्य दायित्व और कर्तव्य को निर्वाह कर पाता है और सुखी होता है। मौलिक अधिकार का प्रयोग अपने-आप में जागृति पूर्वक ही सम्पन्न होता है। हर मानव जागृति के लिये पात्र है। जागृति को परंपरा के रूप में स्थापित करना मानवीय शिक्षा-संस्कार-पूर्वक सहज है। इस विधि से हर मनुष्य जागृत होने का स्रोत जागृत मानव परंपरा ही है। यह स्पष्ट होता है। 
          जागृति सहज कार्यक्रम दायित्व और कर्तव्य के आधार पर ही सुयोजित हो पाता है। ऐसे सुयोजन परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के रूप में सर्वसुलभ होता है। जागृति पूर्वक जीने की कला ही सुयोजना का साक्ष्य है। परिवार मूलक स्वराज्य-व्यवस्था में व्यवस्थापूर्वक ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी सम्पन्न होना पाया जाता है। इसी सत्यवश, यही सत्यता मानव परंपरा में सर्वतोमुखी समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व के रूप में प्रमाणित होता है; जिसका अक्षुण्णता सहज होना पाया जाता है। मानव का अभीष्ट सदा-सदा से ही और सदा-सदा के लिये शुभ ही शुभ होना देखा गया है। ऐसा सार्वभौम शुभ अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था रूपी कार्यक्रम ही है। ऐसा कार्यक्रम स्वाभाविक रूप में ही जागृति सहज शिक्षा-संस्कार विधि से स्पष्ट हो जाती है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार अपने-आप में अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन, मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) के रूप में स्पष्ट हो जाती है। यही सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सम्पन्नता सहित होने वाले अध्ययन, अवधारणा, अनुभव है। सह-अस्तित्व में अनुभव के आधार पर ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का प्रमाण मानव परंपरा में ही प्रमाणित होना समीचीन है। यही जागृति का द्योतक है। मानवीयतापूर्ण परंपरा का प्रमाण मानवीय शिक्षा-संस्कार सुलभता, न्याय-सुरक्षा सुलभता, विनिमय-कोष सुलभता, उत्पादन-कार्य सुलभता और स्वास्थ्य-संयम सुलभता ही है। इन्हीं पाँच आयामों के योगफल में संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था अपने-आप प्रमाणित होता है और अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का स्वरूप और उसकी निरंतरता बना ही रहता है। ऐसे भागीदारी में दायित्व, कर्तव्य का प्रमाण हर मानव में, से, के लिए सहज सुलभ होता है।
          दायित्व बोध और उसके अनुरूप कार्य प्रणालियाँ; सम्बन्ध, मूल्य-मूल्यांकन, उभयतृप्ति, संतुलन और उसकी निरंतरता के रूप में वर्तमान होना पाया जाता है। इसी के साथ तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग, सुरक्षा भी दायित्वों में समाहित रहता ही है। कर्तव्य का स्वरूप आवश्यकता से अधिक उत्पादन, लाभ-हानि मुक्त विनिमय कार्यों में भागीदारी के रूप में सम्पन्न होना देखा गया है। दायित्वों और कर्तव्यों को निर्वाह करने के क्रम में स्वास्थ्य-संयम एक अनिवार्य क्रियाकलाप है जिसको आगे अध्याय में स्पष्ट किया गया है ।इस प्रकार दायित्व बोध के लिये जानना, मानना और कर्तव्य बोध के लिये पहचानना, निर्वाह करना एक अनिवार्य स्थिति है। इस स्थिति में कार्यरत, व्यवहाररत रहना ही जागृत परंपरा सहज महिमा है। परंपरा सहज महिमा ही मानव संतान में, से, के लिये अत्यधिक प्रभावशाली होता है।
          मानव परंपरा अपने में बहुआयामी अभिव्यक्ति होना सुदूर विगत से अभी तक और अभी से सुदूर आगत तक होना दिखाई पड़ता है। मानव परंपरा में शिक्षा-संस्कारादि पाँचो आयाम सहित ही स्वस्थ परंपरा होना स्पष्ट हो चुका है। इन्हीं पाँचों आयामों में हर व्यक्ति कार्यरत होना ही बहुआयामी अभिव्यक्ति का तात्पर्य है। इसी क्रम में विभिन्न दृष्टिकोणों, निश्चित दिशाओं और हर देशकाल में प्रमाणित होने योग्य इकाई मानव है अर्थात् सभी आयामों में प्रमाणित होने योग्य इकाई मानव है। ऐसे प्रमाणित होने के क्रम में मौलिक रूप में अधिकार स्वत्व स्वतंत्रता पूर्वक अर्थात् स्वयं स्फूर्त विधि से प्रयोग करना स्वाभाविक रहता ही है। साथ ही जागृति व जागृतिपूर्ण परंपरा में ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होता है।
          जागृति ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सहज परंपरा रूप में मानव संतानों को सुलभ हो जाती है। शिक्षा-स्वरूप में सह-अस्तित्व विधि से प्रयोजन कार्य-विश्लेषण विधि को अपनाना सहज है। सह-अस्तित्व विधि से विज्ञान विधियाँ सकारात्मक होना पाया जाता है। अन्यथा नकारात्मक होती है। सकारात्मक का आधार सह-अस्तित्व और व्यवस्था है। इसी आधार पर होने वाली स्पष्ट अवधारणाएँ निष्ठा का सूत्र होना देखा गया। निष्ठा का तात्पर्य वर्तमान में विश्वासपूर्वक किये जाने वाले क्रियाकलाप हैं। सभी क्रियाकलाप व्यवहार, व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज प्रमाण है। इन्हीं व्यवहार वैभव मानव में स्वत्व स्वतंत्रता अधिकार ही स्वराज्य व्यवस्था कहलाता है। मूलत: स्वराज्य व्यवस्था मानव का समझ प्रक्रिया का संयुक्त वैभव ही है - वह भी जागृति पूर्ण वैभव है। अतएव हम जागृतिपूर्वक मानव लक्ष्य एवं जीवन लक्ष्यों को सफल बनाते हैं। जो दायित्व और कर्तव्य पूर्वक ही सफल होता है। इसलिये न्यायपूर्ण व्यवहार कार्यों में दायित्व और कर्तव्य मूल्यांकित होता है। इसी के साथ जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना सुलभ होता है। इसी विधि से न्याय सुलभता का मार्ग प्रशस्त होता है। न्याय सुलभता सर्व स्वीकृति तथ्य है। न्यायिक विधि से अखण्ड समाज, पाँचों आयामों में स्वराज्य विधि से सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होना स्वाभाविक है। हर मानव अपने को जागृतिपूर्वक इन दोनों मुद्दे में अपने उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता को मूल्यांकित करता है। यही स्वस्थ सामाजिक मानव और व्यक्तित्व का तात्पर्य है। यह हर मानव की आवश्यकता है। इस विधि से सम्पूर्ण दायित्वों, कर्तव्यों को उसके प्रयोजन सहित प्रमाणित करना, मूल्यांकित करना सहज है। (अध्याय: 8, पृष्ठ नंबर: 262-269)
          • मानव संबंधों को सात प्रकार से नाम सहित प्रयोजनों को इंगित कराया है। संबंध क्रम से पोषण, संरक्षण, अभ्युदय, जागृति, प्रामाणिकता, जिज्ञासा, यतित्व, सतीत्व, विकास-प्रगति, दायित्व-कर्तव्य प्रयोजनों का स्वरूप है। इन प्रयोजनों के अर्थ में हर संबंधों का कार्यकलाप साक्षित होना ही विधि है। दायित्व और कर्तव्य के सम्बन्ध में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी, परिवार और समाज में भागीदारी एक आवश्यकीय स्थिति और गति होना स्पष्ट किया जा चुका है। यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि दायित्व और कर्तव्यों के साथ ही मौलिक अधिकारों का प्रयोग सार्थक होता है। जितने भी प्रयोजन है वह सब मानव कुल में ही प्रमाणित होता है। वह 1. माता - पिता, 2. भाई - बहन, 3. गुरू - शिष्य,       4. मित्र, 5. पति - पत्नी, 6. स्वामी (साथी) - सेवक (सहयोगी), 7. पुत्र - पुत्री। इस प्रकार से 7 संबंध। इसमें से पति-पत्नी संबंधों को छोड़कर बाकी सभी सम्बन्ध पुत्र-पुत्रीवत्, माता-पितावत्, गुरूवत्, शिष्यवत्, मित्रवत्, भाई-बहिनवत्, स्वामी-सेवकवत् के रूप में पहचाना जाना सहज है। इसमें सर्वाधिक अथवा विशाल रूप में होने वाले प्रतिष्ठा को मित्र के रूप में पहचाना जाना स्वाभाविक है। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 271)
          • इन सभी सम्बन्धों के साथ सार्थकता अथवा प्रयोजनों की अपेक्षा परस्पर स्वीकृत रहा करता है जैसा - माता-पिता से अपेक्षा जागृति, प्रामाणिकता सहित समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व का होना प्रत्येक संतानों में अपेक्षित-प्रतीक्षित रूप में मिलता है। हर संतान के साथ माता-पिता की अपेक्षा जागृति, प्रामाणिकता सहित समाधान, कर्तव्य और दायित्व सहज निष्ठा का अपेक्षा, प्रतीक्षा, आवश्यकता के रूप में सर्वेक्षित होता है। हर शिष्य अपने गुरू से प्रामाणिकता, समाधान और वात्सल्य की अपेक्षा रखता है। हर विद्यार्थी से गुरू की अपेक्षाएं तीव्र जिज्ञासा, ग्राह्यता सहित अवधारणाओं के रूप में देखना बना ही रहता है। (अध्याय:9 , पृष्ठ नंबर:271-272)
          • पति-पत्नी सम्बन्धों में परस्पर व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी परिवार मानव का सम्पूर्ण दायित्व-कर्तव्य, अपेक्षा, प्रतीक्षा बना ही रहता है। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 272)
          • स्वामी (साथी)-सेवक (सहयोगी) सम्बन्ध में स्वयं स्वीकृत प्रणाली, स्वयं स्वीकृत विधि से व्यवस्था में भागीदारी निर्वहन के आधार पर घोषणा कार्यप्रणाली है। इस क्रम में भाई सम्बोधन या बहन सम्बोधन समुचित रहता है। इसी की आवश्यकता है। व्यवस्था सम्बन्ध में परिवार सभा से विश्व परिवार सभा तक की समान सम्बोधन होना और कार्यों की समानता भी प्रमाणित होना पाया जाता है। यह स्वाभाविक विधि है हर सभा में एक प्रधान व्यक्ति को निर्वाचित कर लेना, पहचानना, अधिकार सम्पन्न रहना एक आवश्यकता बनी रहती है। यह जनतांत्रिक प्रणाली, पद्घति, नीतियों को प्रमाणित करने का गठन कार्य है। अतएव सभा प्रणाली में भाई-बहन-मित्र सम्बोधन में समानता, दायित्वों, कर्तव्यों का वहन करने में स्वयं स्फूर्त स्वीकृत विधि से सम्पादित होता है। यही जनतांत्रिकता का तात्पर्य है। इसी विधि से विरोध विहीन, विवाद विहीन, सामरस्यता और समाधान पूर्ण अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में कार्यरत रहना पाया जाता है। इसकी आवश्यकता सर्वमानव में होना पाया जाता है। इसकी नित्य समीचीनता जागृति विधि पूर्वक स्पष्ट हुआ है। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 272-273)
          • सम्बन्ध का तात्पर्य स्वयं में पूर्णता सहित हर मानव में पूर्णता के अर्थ में अनुबंधित रहना स्वाभाविक है। यह मानव में ही प्रमाणित होने वाला मौलिक अभिव्यक्ति है। यही ज्ञानावस्था का परिचायक है। इसी के साथ मानव को, इसकी अपेक्षा, आवश्यकता नियति सहज विधि से देखने को मिलता है। अर्थात् मानव संबंध के अनुरूप प्रयोजनों को प्रमाणित करने में निष्ठा स्वयं स्फूर्त होता है। अपेक्षाओं के अनुसार सार्थक होना, चरितार्थ होना ही सम्बन्धों का सम्पूर्ण प्रयोजन है। प्रयोजनों का सूत्र अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था, परिवार मानव और स्वायत्त मानव रूप में ही मानव परंपरा में देखने को मिलता है। यही प्रयोजनों का मूल रूप है। इसे ज्ञानावस्था का स्वरूप भी कहा जा सकता है। जागृत मानव परंपरा में यह सार्थकता का स्वरूप शिक्षा-संस्कारपूर्वक परंपरा में स्थापित होता ही रहेगा। जागृत शिक्षा-संस्कार के सम्बन्ध में स्पष्ट किया जा चुका है। जागृतिपूर्ण परंपरा अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व विधि से अनुप्राणित रहने के आधार पर ही जागृत मानव परंपरा का अक्षुण्णता समीचीन रहना पाया जाता है। अतएव सम्पूर्ण सम्बन्ध और उसका सम्बोधन निश्चित प्रयोजन के अर्थ में अपेक्षित रहना ही सम्बोधन का तात्पर्य है। इसमें हर व्यक्ति जागृत रहना यह प्राथमिक दायित्व है। इन्हीं दायित्वों, मौलिक अधिकारों का प्रयोजन सहज ही सफल हो पाता है। फलस्वरूप मानव परंपरा में जीने की कला विधि के रूप में प्रमाणित होता है। विधि का प्रमाण स्वयं सम्बन्ध-मूल्य-मूल्यांकन-उभयतृप्ति, मानव परिभाषा के अनुरूप हर मानव अपने मौलिक अधिकार रूपी स्वतंत्रता का प्रयोग करना, तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा करना और स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य-व्यवहार में निष्ठान्वित रहना विधि है। यही सम्पूर्ण उत्सवों का आधार होना पाया जाता है। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 274)
          • जन्मदिनोत्सव संस्कार - जन्मदिनोत्सव को सम्पादित करने की उमंग, उमंग का तात्पर्य उत्साह और प्रसन्नता सहित आशय को व्यक्त करने से है। आशय जन्म दिवस का स्मरण बीते हुए वर्षों की गणना से सम्बन्धित रहता है। यह सर्वविदित है। इस क्रम में शैशवावस्था तक जीवन जागृति कामना सहित मानवीयतापूर्ण आचरण सम्पन्न होने, जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान में पारंगत होने के कामनाओं सहित चर्चा, वार्तालाप, कामना गीत के साथ गायन, नृत्य, वाद्य के साथ उत्सव सम्पन्न करने का कार्यक्रम हर शैशवावस्था तक उत्सव में भाग लेने वाले हर व्यक्ति से हर व्यक्ति को सम्मान व्यक्त करता हुआ शिशु और आशय आकांक्षा सहित आशीषों को प्रस्तुत करने वाले हर व्यक्ति उत्सव में भागीदारी के रूप में देखने को मिलता है। ऐसे उत्सव मानव सहज जागृति परंपरा का ही पुनर्उद्गार ही रहता है। ऐसी जन्मदिनोत्सव को जैसा ही शैशवावस्था से कौमार्य अवस्था आता है अथवा जिस जन्मदिनोत्सव तक अपने मूल्यांकन करने में सक्षम हो जाते हैं, जिसको अभिभावक भले प्रकार से मूल्यांकन कर सकते हैं। इसी जन्मदिवस से हर मानव संतान से अपना मूल्यांकन  कराने और सत्यापित करने की विधि अपनाना आवश्यक रहता ही है। ऐसा सत्यापन सहज अभिव्यक्ति की पुष्टि में उत्साह और प्रसन्नता को व्यक्त करने का समारोह बंधु-बांधव और अभिभावक मित्रों के साथ-साथ अनुभव करना बनता है। ऐसी सम्पूर्ण अनुभूति का आधार का मापदण्ड जीवन जागृति, मानवीयतापूर्ण आचरण शैशवावस्था  से किया गया आज्ञापालन, सहयोगवादी कार्यकलाप, अनुसरण किया गया कार्यकलाप अर्थात् अभिभावक एवं आचार्यों के साथ किया गया अनुसरण क्रियाकलाप और उसके प्रयोजनों के साथ उन-उनके सभी अभिमत किशोरावस्था से ही व्यक्त होना स्वाभाविक रहता ही है। स्वयं स्फूर्त आशा, आकांक्षा के संदर्भ में भी प्रोत्साहनपूर्वक संप्रेषित करने का अवसर प्रदान करना उत्सव समारोह का एक कर्तव्य के रूप में होना पाया जाता है। मुख्य रूप में जिनका जन्मदिनोत्सव मनाया जाता है उनका उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजन सम्बन्धी मूल्यांकन पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान आकर्षित करने का कार्यक्रम जन्मदिनोत्सव का प्रधान उद्देश्य और कार्यक्रम है। इस प्रकार जन्मदिनोत्सव के सम्पूर्ण अवयव स्पष्ट हो जाता हैं। इसी के साथ यह भी परस्पर प्रेरणा का आधार होता है कि जन्मदिनोत्सव जिनका मनाया जाता है उस समय उनका साथी, मित्र, भाई सब अपने-अपने सत्यापन विधि को अपनाना मानव परंपरा के लिये आवश्यकीय मौलिक प्रयोजन सिद्घ होना सहज है। (अध्याय:9 , पृष्ठ नंबर:280-281)
          • जिस समय में शिक्षा-संस्कार सम्पन्न हो जाते हैं उस समय में जागृति का प्रमाण सभा, उत्सव सभा के बीच हर पारंगत नर-नारी अपने को स्वायत्त मानव के रूप में सत्यापित करने, परिवार मानव के रूप में कर्तव्य और दायित्वशील होने और अखण्ड समाज-सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने में अपने निष्ठा को सत्यापित करने के रूप में उत्सव समारोह को सम्पन्न किया रहना मानव परंपरा में एक आवश्यकता है। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 285)
          • ...इसके उपरान्त विवाहोत्सव के मार्गदर्शक व्यक्ति के अनुसार सुखासन पर बैठे हुए वधु-वर दोनों पारी-पारी से बैठे हुए स्वयं को स्वायत्त मानव के रूप में होने का सत्यापन करेंगे और परिवार मानव के रूप में जीने के संकल्प को दृढ़ता से घोषित करेंगे। इसके उपरान्त
          1. दोनों अपने-अपने माता-पिता का नाम सहित व्यवस्था मानव के रूप में जीने का संकल्प लेगें।
          2. परिवार मानव के रूप में जीने का संकल्प करेंगे।
          3. दोनों बारी-बारी से कायिक-वाचिक-मानसिक, कृत कारित, अनुमोदित सभी कार्य-व्यवहार विचारों में एक दूसरे के पूरक होने का संकल्प करेंगे।
          4. परिवार तथा अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी का दायित्व कर्तव्यों को निर्वाह करने का संकल्प करेंगे।
          5. तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा करने का संकल्प करेंगे।
          6. सम्बन्ध-मूल्य-मूल्यांकन-उभयतृप्ति को प्रमाणित करने का संकल्प करेंगे।
          7. मानवीयतापूर्ण आचरण में पूर्ण निष्ठा बरतने का संकल्प करेंगे। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 291-292)
          • ग्राम-मुहल्ला सभा से मनोनीत-अनुशासित पाँच समितियों का कार्यरत रहना स्वराज्य व्यवस्था का वैभव है। इन वैभव के सफलताओं को देखने सुनने के लिये पूरे ग्राम मुहल्लावासी को उत्सुक रहना आवश्यक है। ग्राम सभा से निश्चित नियंत्रित विधि से एक-एक समिति का मूल्यांकन कार्यक्रम का तौर-तरीका जो अपनाये गये थे उसके आधार पर सफलता का समारोह सम्पन्न करना आवश्यक रहता ही है। इसका समयावधि ग्राम सभा के समयानुसार सम्पन्न होना व्यवहारिक है। इसी के अनुसार न्याय-सुरक्षा समिति के सफलताओं को समीक्षा कर पूरा ग्रामवासियों को अवगाहन कराने का कार्य सम्पन्न किये जाने के रूप में देखने को मिलता है। इससे सम्पूर्ण ग्रामवासी न्याय-सुरक्षा सुलभ होने में विश्वस्त एवं आश्वस्त होने का अवसर समारोह समय में स्वाभाविक रूप में देखने को मिलता है। इसी उमंग के साथ भविष्य के प्रति भरोसा करना स्वाभाविक होता है। वर्तमान तक की सफलता भविष्य के प्रति आश्वस्तता का हर संगम स्थिति, गति, उत्साह और प्रसन्नता के स्वरूप में ही प्रमाणित होना देखा गया है। इसी प्रकार उत्पादन-कार्य समिति, विनिमय-कोष समिति, स्वास्थ्य-संयम कार्य समिति, मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार समितियों का वर्तमान तक के सफलता, भविष्य में आश्वस्त होने का सफल योजना के अवगाहन तक का समारोह प्रसन्नता में अभिभूत होना, स्वाभाविक है। ऐसी अभिभूति के साथ ही हर्ष ध्वनि सफलता का कीर्ति गायन, भविष्य में सफलता का आकांक्षा, सम्भावना सहित कर्तव्यों और दायित्वों की स्वीकृति और उसका उद्गार सहित हर्ष ध्वनि गीत-संगीत का वातावरण बनाया जाना समारोह-वैभव का प्रतिष्ठा रहेगा। अस्तु, ग्राम सभा बनाम पाँचों समितियों सहित सफलता का आंकलन अग्रिम योजनाओं का प्रकाशन समारोह का सारतत्व रहेगा। यही व्यवस्था मूलक समारोहों की महिमा है। इसी प्रकार हर स्तरीय समितियों में समारोह कार्य सम्पन्न होना स्वाभाविक रहेगा। यह विश्व परिवार पर्यन्त व्यवहारान्वयन होना देखने को मिलता है। सम्पूर्ण मानव इस धरती मे समारोह और उत्साहपूर्वक संतुष्ट होते हैं । इसकी नित्य समीचीनता जागृति परंपरा पर्यन्त बनी ही रहेगी। (अध्याय:9 , पृष्ठ नंबर: 295-296)
          • समाज शास्त्र में प्रधानत: मूल्यांकन समाज और व्यवस्था का ही होना पाया जाता है। समाज गति मूलत: नियम और न्याय के समान में होना देखा गया है। इसका संतुलन रूप व्यवस्था के रूप में अपने-आप प्रमाणित होना देखा गया है। क्योंकि नियम और न्याय के तृप्ति बिन्दु में ही समाधान का होना पाया जाता है। नियम और न्यायपूर्वक ही कर्तव्य और दायित्व होता है। यह व्यवस्था कार्य में और व्यवहार कार्य में वर्तमान होना आवश्यक देखा गया है। (अध्याय: 10, पृष्ठ नंबर: 297)
          • मनुष्य का सम्पूर्ण वर्चस्व स्वायत्त मानव और परिवार मानव के रूप में मूल्यांकित हो जाता है। जो मानवीयतापूर्ण आचरण का ही प्रमाण है। दूसरा समझे हुए को समझाने की विधि में अर्थात् जीवन-ज्ञान, अस्तित्व दर्शन को विवेक, विज्ञान, व्यवहार सूत्रों सहित समझाने की विधि से, समझा हुआ प्रमाणित होता है। इस प्रकार हर विद्यार्थी अपने में समझा हुआ को समझाकर प्रमाणित होने की व्यवस्था मानवीय शिक्षा-संस्कारों में सर्वसुलभ होता है। एक विद्यार्थी दूसरे को समझाने के उपरान्त समझाया हुआ को स्वयं ही मूल्यांकित करेगा। फलस्वरूप सभी विद्यार्थियों में पारंगत विधि होना स्पष्ट हो पाता है। तीसरे में किया हुआ को कराने की विधि से भी हर विद्यार्थी प्रमाणित होना उसका मूल्यांकन स्वयं करना मानवीय शिक्षा संस्थान में सहज रूप में रहता ही है। इसका मूलभूत स्वायत्त मानव परिवार मानव के रूप में कार्य-व्यवहार करता हुआ शिक्षक, आचार्य, विद्वान ही शिक्षा सहज वस्तु प्रक्रिया, प्रणाली, पद्घति, नीति का धारक-वाहक होना पाया जाता है। इसकी अक्षुण्णता बना ही रहता है। इस प्रकार शिक्षा का धारक-वाहक रूपी आचार्यों से शिक्षित होने के उपरान्त हर विद्यार्थी अपना मूल्यांकन करने की स्थिति में उभयतृप्ति का होना देखा जाता है। यथा-विद्यार्थी और आचार्यों के परस्परता में यह स्पष्ट हो जाता है। इस मूल्यांकन प्रणाली में दायित्व और कर्तव्य बोध सुदूर आगत तक स्वीकृत होना स्वाभाविक होता है। यही संस्कार का मौलिक स्वरूप है। इसी सार्वभौम आधार पर हर शिक्षित व्यक्ति मौलिक अधिकारों को स्वतंत्रतापूर्वक प्रयोग करने में सफल हो जाता है। (अध्याय: 10, पृष्ठ नंबर:300-301)
          • न्याय-सुरक्षा का मूल्यांकन - मूल्यों का मूल्यांकन क्रम में न्याय-सुरक्षा स्वाभाविक रूप में सार्थक होना पाया जाता है। सम्बन्धों का पहचान के साथ ही मूल्यों का निर्वाह करना स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह जागृत मानव का सार्वभौम प्रमाण है। मूल्यों का निर्वाह क्रम में अर्पण, समर्पण, पोषण, संरक्षण सहज रूप में ही प्रमाणित हो पाता है। जागृत का ही जागृतिशील इकाई को पहचानना-निर्वाह करना एक दायित्व है। इसी दायित्व के आधार पर जिनके साथ सम्बन्धों का निर्वाह होता है। ऊपर कहे चार सूत्रों में से कोई न कोई सूत्र सह-अस्तित्व सहज वर्तमान रहता ही है। इसलिये परस्पर सुरक्षा समीचीन रहता है और प्रमाणित रहता है। सुरक्षा का तात्पर्य यही हुआ अर्पण, समर्पण, पोषण, संरक्षण। यह चारों सूत्र विधि से प्रमाण, समाधान, समृद्घि सम्पन्न परिवार मानव से ही प्रावधानित होना पाया जाता है। अर्पण, समर्पण तब तक भावी रहता है जब तक संतान अपने स्वायत्तता और परिवार मानव प्रतिष्ठा को प्रमाणित नहीं करता है। अर्पण-समर्पण का दूसरा स्थिति कोई दूसरा रोगी हो जाए उसके साथ अर्पण, समर्पण होने का सूत्र क्रियाशील होना पाया जाता है। तीसरा स्थिति यही है किसी देश में प्राकृतिक प्रकोप जैसे-चक्रवात, भूकंप, तूफान, ज्वालामुखी, उल्कापात, शिलापात, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, से पीड़ित लोगों के साथ अर्पण-समर्पण का सूत्र क्रियाशील होना पाया जाता है। ऐसे अर्पण-समर्पण से किसी का पोषण और संरक्षण प्रमाणित होता है यही सुरक्षा का तात्पर्य है। इस प्रकार पोषण शरीर पक्ष को, संरक्षण मानसिकता विचार पक्ष को विश्वस्त कर देता है। यही परस्परता में समाधान, समृद्घि, सम्पन्न मानव परंपरा में होने वाली सुरक्षा कार्य विधि अपने-आप स्पष्ट है। (अध्याय: 10, पृष्ठ नंबर: 301)
          • यह तथ्य पहले स्पष्ट हो चुका है कि स्वायत्त मानव शिक्षा-संस्कार पूर्वक विधिवत् दीक्षित होना, सर्वसुलभ होना यह जागृत मानव परंपरा का देन के रूप में विदित हो चुकी है। यही प्रधान रूप में शिक्षा-संस्कार पूर्वक सार्वभौमता को प्रमाणित करता है। यही स्वायत्तता को प्रमाणित करता है। इसी के साथ-साथ यह भी सर्वेक्षित तथ्य है कि हर मानव संतान में स्वायत्तता की आवश्यकता शैशव अवस्था से ही प्रकाशित रहता है क्योंकि हर मानव संतान न्याय का अपेक्षा रखता ही है, सही कार्य-व्यवहार करना चाहता ही है और सत्यवक्ता होने में निष्ठा प्रदर्शित करता ही है। यही बुनियादी अभीप्सा का द्योतक है। बुनियादी अभीप्सा की तुष्टि बिन्दु जागृति, प्रामाणिकता के रूप में सह-अस्तित्व रूपी परम सत्य बोध सहित प्रमाणित होना देखा गया है। सार्वभौमता (अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था) में भागीदारी से ही सही कार्य-व्यवहार करने का प्रमाण होना देखा गया है। समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व सुलभता के रूप में न्याय सुलभता के वैभव को देखा गया है। इस प्रकार शैशव अवस्था से ही जीवन सहज अभीप्सा प्रकाशित होता ही है। इसके लिये आवश्यकीय स्रोत, प्रक्रिया, प्रणाली और नीति मानव परंपरा में सुलभ होने के आधार पर ही हर मानव संतान का अभीप्सा सफलीभूत होना सहज और समीचीन है। इस प्रकार स्वायत्त मानव, परिवार मानव अपने परिभाषा में ही सार्वभौमता में भागीदारी का स्वरूप ही है। अतएव  ऐसी भागीदारी दायित्व और कर्तव्य में परिगणित होने के कारण हर व्यक्ति भागीदार होने का अर्हता को बनाये रखता है। ऐसी भागीदारी का स्वयं स्फूर्त होना ही जागृति की महिमा है। इस प्रकार विनिमय कोष कार्य में भागीदारी के फलस्वरूप समाधान और उसकी निरंतरता का प्रमाण होना स्वाभाविक है। यही व्यवस्था में भागीदार होने का अथवा समग्र व्यवस्था में भागीदार होने का फल है अथवा वैभव है। इस विधि से भी विनिमय कोष आवर्तनशील विधि के साथ अपने को सफल बनाना सहज सिद्ध होता है। (अध्याय:10 , पृष्ठ नंबर: 311-313)


          स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
          प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी