Thursday 11 January 2018

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : संवाद भाग २

संवाद भाग २ (संस्करण:2013)
  • पूरा इसको लिखने के बाद मैंने यह निर्णय किया जो इसको समझना चाहते हैं, उनके पास इसको जाना चाहिए। उससे समझने वालों को खोजना शुरु किया। धीरे धीरे लोगों की इसमें स्वीकृति और प्रयासों से शिक्षा के स्वरुप पर हमारा विश्वास हुआ। अखंड समाज होने के लिए इस शिक्षा का सारे विश्व में लोकव्यापीकरण होना होगा। एक गांव में हर परिवार यदि समाधान समृद्धि पूर्व जीता है तो यह व्यवस्था का एक प्रारूप बनता है। हर गांव में ऐसे सबको बनाने का दायित्व अध्यापकों का है हर गांव में अध्यापक होंगे ही हर गांव में जरुरत है या नहीं? गांव में सभी समझदार होने पर ग्राम स्वराज्य व्यवस्था की शुरुआत होती है। हर परिवार इस तरह सभ्यता और संस्कृति का धारक वाहक होता है, और परिवार और परिवार सभा में इस तरह पूरकता का अंतर संबंध है। हर नर नारी यदि समझदार होते हैं तो परिवार में ही न्याय होता है। (अध्याय: 1.2, पृष्ठ नंबर: 28)
  • इस तरह अपने पराये से मुक्त, भय मुक्त और समाधान समृद्धि पूर्वक जीने पर उपकार प्रवृत्ति का उदय होता है। समाधान समृद्धि से कम में कोई उपकार नहीं करेगा। अभी तक यह मानते रहे, किसी भूखे को खाना दे दिया तो उपकार कर दिया। किसी के पास कपड़ा नहीं है, उसको कपड़ा दे दिया, तो उपकार हो गया।
यह गलत हो गया। यह उपकार नहीं है। यह कर्तव्य है। उसी तरह हमारा अड़ोस पड़ोस, गाँव, धरती के साथ कर्तव्य बना रहता है। कर्तव्य और उपकार में फर्क है। उपकार में दूसरे को अपने जैसा बनाने की बात होती है। जैसे हम समाधानित हैं, समृद्ध हैं वैसा ही दूसरे को बना देने से उपकार होता है। उसके पहले कोई उपकार नहीं होता यह मेरी घोषणा है। यह मेरा अनुभव है। उपकार करने के क्रम में ही मैं  यहाँ आपके सम्मुख प्रस्तुत हूँ। (अध्याय:, पृष्ठ नंबर: 47)
  • उत्तेजित होकर समझा नहीं जा सकता। शांतिपूर्वक ही समझा जा सकता है। सत्ता सहज सर्वत्र विद्यमानता, सर्वत्र पारदर्शीयता और सर्वत्र पारगामीयता ज्ञान गोचर है। इन तीनों बातों पर “ध्यान” देना होता है। सबसे ज्यादा ज्ञान गोचर कुछ है तो वह यही है। इस भाषा का क्या अर्थ है उसका शोध करने का दायित्व आपका स्वयं का है। इसीलिए ध्यान देने के लिए कह रहे हैं। समझने के लिए ध्यान देना होता है, समझने के बाद ध्यान बना ही रहता है। ध्यान का मतलब विधिवत अध्ययन करना ही है। इसके अलावा पूर्णता पाने के लिए दूसरा रास्ता समाधि संयम पूर्वक अनुसंधान है जो अंधेरे में हाथ मारने जैसा है। मिल जाए तो ठीक है, नहीं तो और हाथ मारते रहो। भौतिकवादी विधि से यांत्रिकता हाथ लगती है यांत्रिकता गलत है ऐसा मैंने नहीं कहा है। यांत्रिकता गलत है ऐसा मैंने नहीं कहा है।  संज्ञानीयता यांत्रिकता की सीमा में नहीं है। (अध्याय: 2.1, पृष्ठ नंबर: 118) 
  • प्रश्न : क्या अनुभव के बाद, उदाहरण के लिए, शरीर को स्वस्थ रखने के बारे में जो मैं जानना चाहता हूँ, वह भी प्राप्त हो जाएगा?
उत्तर : नहीं। वह कला है, जो ‘‘सीखने’’ की वस्तु है। कला अनुभव की वस्तु नहीं है। कला कर्तव्यों और दायित्वों को पूरा करने के अर्थ में है। सीखने में प्रयोग करना पड़ेगा। रासायनिक भौतिक संसार संबंधी सभी ज्ञान अर्जन के लिए प्रयोग आवश्यक है। कर्म अभ्यास उसी का नाम है,जिसके अनेक आयाम हैं। उदाहरण के लिए गाय की सेवा करना कर्म अभ्यास है, कृषि करना कर्म अभ्यास है, औषधियों को पहचानना और बनाना कर्म अभ्यास है। अनुभव के बाद हर कला को जल्दी सीखा जा सकता है। (अध्याय:, पृष्ठ नंबर:349)
  • प्रश्न : ‘‘संयम काल में आप के सम्मुख प्रकृति प्रस्तुत हुई’’ ऐसा आपसे सुनने पर ऐसा लगता है कि प्रकृति में ‘‘कर्ता भाव’’ है? 
उत्तर : प्रकृति में कार्य भाव है। कर्ता भाव के लिए चेतना चाहिए। चेतना जीव प्रकृति और मानव प्रकृति में है। जीव प्रकृति कार्य भाव के साथ कर्तव्य भाव में रह गया। मानव प्रकृति में कार्य भाव, कर्तव्य भाव और फल परिणाम भाव ये सभी हैं। जैसा मैंने प्रस्तुत किया है वैसे ही प्रकृति मेरे सम्मुख प्रकट हुई। मैंने उसमें कोई जोड़ घटाव नहीं किया है। उसी को आपको अध्ययन पूर्वक साक्षात्कार करना है, बोध करना है, अनुभव करना है। अनुभव होता है तो प्रमाण होगा। प्रमाण का स्वीकृति बुद्धि में होता है। प्रमाण की स्वीकृति के बाद प्रमाणित ‘‘करने’’ के लिए चिन्तन होता है, चित्रण होता है, तुलन होता है। न्याय, धर्म, सत्य के तुलन के साथ यदि हमारा मन जुड़ जाता है, तो कार्य व्यवहार में मूल्य मूल्यांकन विधि से हम जियेंगे ही। 
परंपरागत साधना विधि से मैंने प्रकृति को सीधे सीधे देख लिया। देखे हएु को मैंने अक्षर बद्ध कर दिया। वह आपके लिए अध्ययन की वस्तु है। अब ‘अध्ययन’ ही ‘साधना’ है। (अध्याय:, पृष्ठ नंबर: 357)

    स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
    प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी 

    No comments:

    Post a Comment