Thursday, 11 January 2018

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : समाधानात्मक भौतिकवाद

समाधानात्मक भौतिकवाद (संस्करण:2009)
  • शिक्षा-संस्कार ही बोध और अवधारणा का एकमात्र स्रोत है। ऐसे स्रोत को सार्थक रूप देने, उसमें प्रामाणिकता और समाधान की निरन्तरता को बनाये रखना चैतन्य-प्रकृति में, से ज्ञानावस्था की इकाई का दायित्व और वैभव होता हैं। जड़ प्रकृति में अंशों का आदान-प्रदान होता हैं। परमाणुओं के स्तर में जिसमें प्रस्थापन होता है वह पहले से ही सामान्य गति में रहता है, जिसमें विस्थापन होता हैं उसके अनन्तर वह भी सामान्य गति में होना पाया जाता है। सामान्य गति में होने के लिए निरन्तर मध्यस्थ क्रिया में बल समाहित रहता हैं जिसे हम छिपी हुई ऊर्जा कहते है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर: 86)
  • मानव के बहुआयामी इतिहास में उन सभी आयामों के लिए पूरक होने के प्रमाण को मानव अपने कुल के लिए समर्पित नहीं कर पाया। इसी कारण अब प्रबुद्घ मानवों का यह दायित्व होता है कि सभी आयामों में जो रिक्त और अपेक्षित भाग है उसकी भरपाई कर देवें। उसमें से प्रथम और प्रमुख आयाम यही देखने को मिला-व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी। मानव जागृतिपूर्वक ही इसकी भरपाई कर पायेगा। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 124)
  • मानव समझदारी से व्यवस्था में प्रमाणित होता है, जो अस्तित्व सहज ही होती है:- अस्तित्व सहज व्यवस्था वर्तमान सहज प्रमाण के रूप में वैभव हैं। जब-जब मानव व्यवस्था का अनुभव करता है, तब-तब वर्तमान में विश्वास, भविष्य के प्रति आश्वासन होना पाया जाता है। भविष्य के प्रति आश्वस्त होने का तात्पर्य विधिवत् योजना और कार्य योजना होने से है। वर्तमान में विश्वास का तात्पर्य समझदारी सहित दायित्वों, कर्तव्यों का निर्वाह हैं। जिसे भले प्रकार से कर चुके हैं, कर रहे हैं और करने में निष्ठा हैं। समझदारी का स्वरूप जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में, से, के लिए जागृति है। जागृति का तात्पर्य जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने से है। इस प्रकार जागृति ही वर्तमान हैं, वर्तमान ही जागृति का सम्पूर्ण रूप है। (अध्याय: 9(4), पृष्ठ नंबर: 237)
  • जागृत मानव, अभिव्यक्ति सहज रूप में, मानव सहज व्यवहार में सफल हो जाता हैं। यह संबंधों, मूल्यों, मूल्यांकनों, दायित्वों, कर्तव्यों को निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होता है। इसलिए समाधानित होता है। (अध्याय: 9(5), पृष्ठ नंबर: 257)
  • उत्पादन और संतुलन सहज वैभव का मूल सूत्र विकल्प के रूप में होना समझ में आता है कि:-1. भय और प्रलोभन के स्थान पर मूल्यों की पहचान, निर्वाह और मूल्यांकन करने का दायित्व। (अध्याय: 9(10), पृष्ठ नंबर: 305)
  • जागृत मानव अपने तन, मन, धन रूपी अर्थ को आगे पीढ़ी, पीछे पीढ़ी के साथ वर्तमान दायित्व एवं कर्तव्य पूर्वक अर्पित, समर्पित कर सदुपयोग पूर्वक सुख को पा लेता हैं। फलस्वरूप उस-उस की सुरक्षा होना प्रमाणित होता है। (अध्याय: 9(10), पृष्ठ नंबर: 314)
  • तन, मन, धन रूपी अर्थ के सदुपयोग, सुरक्षा क्रम में ही मानव व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी हैं और अखण्ड समाज रचना, रचना कार्य और उसमें भागीदारी का निर्वाह करता हैं, यही जागृत पंरपरा का दायित्व हैं। (अध्याय: 9(10), पृष्ठ नंबर: 315)
  • प्रयोजनशीलता:- जागृतिपूर्ण विधि से प्रमाणित करने में नियोजित किया गया तन, मन, धन रूपी अर्थ।
सदुपयोग पूर्वक सुख उनको मिलता हैं जो अपने तन, मन, धन को विकास और जागृति, कर्तव्य और दायित्वों के लिए अर्पित करते हैं जिसके लिए अर्पित हुआ, उसकी सुरक्षा, जागृति और विकास के अर्थ मंय संपन्न हुई। यही पूरकता विधि हैं। (अध्याय: 9 (10), पृष्ठ नंबर: 315)
  • मानव जागृत परंपरा सहज रूप में जीने के क्रम में शरीर को निरोग रखना भी एक कार्य है। इस क्रम में जो संक्रामक, आक्रामक विधियों से जो कुछ भी परेशानियाँ देखने को मिलती हैं, उसके निवारण के लिए सर्वत्र सहज रूप में पाई जाने वाली जड़ी-बूटी आदि घरेलू वस्तुओं से बहुत सारे रोगों को ठीक करने का अधिकार हर परिवार में स्थापित कर लेना सहज है। क्योंकि परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था क्रम में स्वास्थ्य-संयम कार्यक्रम प्रत्येक परिवार का एक दायित्व हैं। इस क्रम में पवित्र आहार पद्घति एक प्रमुख कार्यक्रम रहेगा। इसे ध्यान में रखकर कृषि कार्य के लिए जो समझदारी चाहिए उसको भी स्वीकृति करना आवश्यक हो जाता हैं। इस क्रम में धरती का उर्वरक संतुलन को बनाए रखना एक आवश्यकता है। इसमें मानव का दायित्व भी बनता हैं। धरती, अनाज उत्पादन-कार्य, उर्वरकता का संतुलन स्वाभाविक रूप में एक-दूसरे से आवर्तनशील कार्य हैं। इस आवर्तनशीलता में पहले भी संतुलन का जिक्र किया जा चुका है। इसमें मुख्य बात यही है कि धरती में उपजी हुई संपूर्ण हरियाली, दाना को निकालने के उपरान्त सभी घास, भूसी, जानवर खाकर गोबर गैस के अनंतर खाद बनकर खेतों में समाने की विधि को अपनाना चाहिए। अन्यथा घास, भूसी ज्यादा होने की स्थिति में अच्छी तरह से सड़ाकर खाद बनाना चाहिए। यह खेतों में डालना चाहिए। यह विधि सर्वाधिक कास्तकारों के यहाँ प्रचलन में हैं ही। इसकी तादाद बढ़ाने की आवश्यकता है। जैसे-जैसे खेत अधिक होता हैं वैसे-वैसे खाद की मात्रा भी अधिक होना आवश्यक है। कीटनाशक या कीट नियंत्रक कार्यों को भी कास्तकारों को अपने हाथों में बनाए रखना चाहिए जिससे पराधीनता की नौबत न आए। (अध्याय: 9(10), पृष्ठ नंबर: 330) 
  • प्रत्येक मानव मूलत: सुख धर्मी है ही। आशा के रूप में यह मानव में प्रमाणित होता है अथवा इच्छा के रूप में यह पाया जाता है। इसकी सफलता की निरंतरता नियति सहज व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का फलन हैं। सम्पूर्ण परंपराएँ व्यवस्था के संबंध में भ्रमित होने के फलस्वरूप, प्रत्येक मानव अपने में कल्पनाशील होने के कारण रुचि मूलक विधि से मानसिकता में आना एक बाध्यता बन गई। इतिहास के अनुसार भी, स्वर्ग की परिकल्पना भी रुचि के अनुकूल वर्णन हैं। रुचि सहज कल्पनाएँ इंद्रिय सन्निकर्ष के आधार पर हैं। इंद्रिय सन्निकर्ष शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के रूप में होना पाया जाता है। इसी का रुचिकर होना, अरुचिकर होना देखा जाता है। रूचि की एकरूपता का, सार्वभौमिकता का कोई नियम नहीं होता। रुचि मूलक मानसिकता को हटाने के लिए अथवा परिवर्तन करने के लिए एक मात्र प्रस्ताव उपदेश के रूप में मोक्ष को बताया गया। उसके लिए विरक्तिवादी चरित्र, साधना और उसके क्रम का प्रस्ताव भी मानव के सम्मुख प्रस्तुत है। यह भी देखने को मिला कि विरक्ति में मानव ने अपने को अर्पित भी किया। यह सब होने के उपरान्त भी, किसी भी परपंरा में सार्वभौम व्यवस्था निखरकर, उभरकर जनमानस में नहीं आया। अथवा इस रिक्तता के चलते सामान्य मानव के लिए रुचि मूलक प्रणाली से कल्पनाओं को दौड़ाना सहज हो गया। फलत: अव्यवस्था के अनंतर पुन: अव्यवस्था हाथ लगते आया। मूल मुद्दा भक्ति, विरक्ति, भोग और संग्रह क्रम में अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या और कार्यक्रम लोक विदित नहीं हो पाई। अभ्यास में आना तो दूर ही रहा। आज की स्थिति में सर्वाधिक संग्रह, भोग की मानसिकता अथवा लोक मानसिकता को देखते हुए व्यवस्था को पहचानना एक अनिवार्य स्थिति निर्मित हो चुकी है। इसके पक्ष में अर्थात् सार्वभौम व्यवस्था को पहचानने के पक्ष में सर्वमानव में सुखापेक्षा (सुख की अपेक्षा) एक मात्र सूत्र हैं। सुख सहज सूत्र व्याख्या ही भरोसा करने और प्रयोग कर, अभ्यास कर, प्रमाणित कर, लोक व्यापीकरण करने योग्य कार्यक्रम दिखाई पड़ता है। इसका मूल ध्रुव जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन तथा मानवीयतापूर्ण आचरण का समीकरण ही हैं। इसके लिए अस्तित्व सहज सूत्र, सह-अस्तित्व सहज व्याख्या, अध्ययन सुलभ हो चुका है। अस्तु, मानवीयतापूर्ण विधि और व्यवस्था को पहचानना सुलभ हुआ। इसको व्यवहार रूप देना ही इसका लोक व्यापीकरण ही हमारी निष्ठा और कर्तव्य हैं। इसी विधि से पाई जाने वाली सुखाकांक्षा, व्यवहार और कार्यक्रम सहज सुलभ होने की संभावना आ चुकी हैं। इसी संभावना के आधार पर प्रत्येक मानव मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करने के कार्यक्रम को परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था क्रम में पहचान कर निर्वाह कर सकते हैं। इससे ही प्रत्येक मानव सुख, समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व को अनुभव करेगा।  (अध्याय: 9 (11), पृष्ठ नंबर: 355-357)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी 

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : व्यवहारात्मक जनवाद

व्यवहारात्मक जनवाद (संस्करण: 2009, मुद्रण: 2017)
  • मानव के हर रंग रूप संबंध में समानता संवाद का दूसरा मुद्दा बनता है हर मानव अपने पहचान को बनाए रखने के लिए बाल्यकाल से ही प्रयत्नशील है पहचान प्रस्तुत करने की प्रवृतियां विभिन्न तरीके से प्रस्तुत होती हुई आंकलित होती है परिस्थितियां भिन्न-भिन्न रहते हुए प्रवृत्तियों में समानता होती ही है इसी के साथ बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक संरक्षण में पोषण में भरोसा रखने वाली प्रवृत्ति मिलती है संरक्षण पोषण के क्रम में न्याया की अपेक्षा प्रस्फुटित होती हुई देखने को मिलती है। किशोर अवस्था तक सही कार्य व्यवहार करने की इच्छाएँ आज्ञापालन, अनुसरण सहयोग के अनुकरण के रूप में प्रवृत्तियों को देखा जाता है यह बहुत अच्छे ढंग से समझ में आता है यह जन चर्चा का विषय है। संवाद के लिए यह दोनों मुद्दों अच्छे ढंग से सोचने, परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण करने व्यवहार विधि से विचारों को संबंध करने में काफी उपकारी हो सकते हैं। तीसरा मुद्दा देखने को मिलता है कि हर मानव संतान शिशुकाल से ही जब से बोलना जानता है तब से जो भी देखा सुना रहता है उसी को बोलने में अभ्यस्त रहता है। इस ढंग से हर मानव संतान बाल्यकाल से ही सत्य वक्ता होना आकलित होता है। जबकि सत्यबोध उसमें रहता नहीं है। शब्दों को बोलना ही बना रहता है। इससे यह भी पता लगता है मानव परंपरा का दायित्व है कि मानव संतान को सत्य बोध कराएं। इसी के साथ सही कार्य, व्यवहार का प्रयोजन बोध सहित  पारंगत बनाने की आवश्यकता है। न्याय बोध हर संतान को कराने का दायित्व परंपरा के पक्ष में ही जाता है। इस ढंग से बच्चों के लिए प्रेरक साहित्यों, कविताओं की रचना करने के लिए ये तीनों सार्थक प्रवृत्तियाँ है मानव में प्रवृतियां प्रयोग और परिक्षण बहुआयामों में होना देखा गया है। ये सब जन चर्चा के लिए बिन्दुएँ हैं। (अध्याय: 3, पृष्ठ नंबर: 38)
  • सुलझन ही सदा सदा से मानव की अपेक्षा है। सारे अड़चनों का  कारण नासमझी है, समस्या है। सम्पूर्ण समस्याएँ मानव की सुविधा, संग्रह, भोग, अतिभोग प्रवृति की उपज है। इन सारी स्थितियों को देखने पर पता चलता है समझदारी ही मानव का समाधान और समृद्घि का निर्वाध गति है, अथवा अक्षुण्ण गति है अथवा निरन्तर गति है। गति सदा सदा से मानव परम्परा के रूप में ही होना सम्भावित है। समझदारी पूर्ण परम्परा ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का एक मात्र उपाय है। दूसरी किसी विधि से व्यवस्था की सार्वभौमता और समाज की अखंडता को अभी तक स्पष्ट नहीं कर पाये। मानव में समझदारी का स्रोत सर्वसुलभ होना ही है। ऐसे कार्य में आप हम सभी को भागीदार होने की आशा अपेक्षा और कर्तव्य है। इसी आशय को सार्थक संवाद में, अवगाहन में लाने का यह प्रयास है। (अध्याय:3, पृष्ठ नंबर: 54)
  • शिक्षा-संस्कार विधा में सहअस्तित्व और प्रमाणों को प्रस्तुत करना ही कार्यक्रम है। इसे क्रमिक विधि से प्रस्तुत किया जाना मानव सहज कर्तव्य के रूप में, दायित्व के रूप में स्वीकार होता है। मानवीय शिक्षा में जीवन एवं शरीर का बोध और इसकी संयुक्त रूप में अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन और दिशा बोध होना ही प्रधान मुद्दा है। इन दोनो मुद्दों पर संवाद होना आवश्यक है। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर: 68)
  • इस तथ्य को भली प्रकार से देखा गया है, समझा गया है, कि हर मानव तृप्ति पूर्वक ही जीने  का इच्छुक है। ऐसी तृप्ति, सुख ,शांति, संतोष, आनंद के रूप में पहचान में आती है। ऐसी पहचान, जानने,  मानने, पहचानने, निर्वाह करने के फलस्वरूप प्रमाणित होना पायी गयी। सुख, शांति, संतोष, आनंद अनुभूतियाँ समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व का, प्रमाण के रूप में परस्परता में बोध और प्रमाण हो जाता है। ऐसी बोध विधि का नाम ही है शिक्षा संस्कार।  शिक्षा का तात्पर्य शिष्टता पूर्ण अभिव्यक्ति से है। ऐसी शिष्टता अर्थात मानवीय पूर्ण शिष्टता समझदारी पूर्वक ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। इसकी आवश्यकता के लिए जनचर्चा भी एक अवशम्भावी क्रियाकलाप है। जनसंवाद अर्थात मानव में परस्पर संवाद प्रसिद्ध है।  संवाद के अनन्तर संवेदनशीलता का ध्रुवीकरण एक  स्वाभाविक प्रक्रिया रही है।  ये प्रक्रियाएं क्रम से तृप्ति की अपेक्षा में ही संजोया हुआ पाया जाता है। सभी मानव संवेदनशीलता से परिचित है ही, संज्ञानशीलता की आवश्यकता शेष रही ही है।  समस्या समाधान के क्रम में प्रदूषण के संबंध में सोचना और निष्कर्ष निकालना हर मानव का कर्तव्य बन गया है क्योंकि इससे उत्पन्न विपदाएं हर मानव के लिए त्रासदी का कारण बन चुकी है। इससे मुक्ति पाना हर मानव के लिए आवश्यक है वन, खनिज, औषधि संपदाए समृद्ध रहने की स्थिति में ऋतु संतुलन, वन वनस्पति औषधियों के अनुकूल रूप में मानव का अवतरण धरती पर आरंभ हुआ है।  और मानव अपने तरीके से सोचते समझते मनाकार को साकार करने के क्रम में वन, खनिज, औषधि, जलवायु संपदा को उपयोग, प्रयोग, परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक इनके साथ अपनी अनुकूलता के लिए प्रयोग करता ही आया। इस क्रम में सर्वाधिक वनों का विध्वंस और खनिजों का शोषण हो ना पाया गया। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर:70)
  • ...क्योंकि परिवार में सीमित संख्या में सदस्यों का होना और उन सबके शरीर पोषण संरक्षण और समाज गति के पक्ष में वस्तुओं की आवश्यकता होना पाया जाता है। ऐसे निश्चयन के आधार पर आवश्यकता से अधिक उत्पादन प्रवृत्ति का होना तदनुसार फलपरिणाम होना पाया जाता है। इस विधि से अर्थात जागृति पूर्ण परंपरा विधि से हर मानव परिवार समाधान समृद्धि को अनुभव करना सहज है। इसकी अपेक्षा सुदूर विगत से ही मानव आकांक्षा के रूप में विद्यमान है ही और विद्यमान रहेगा ही। इस मुद्दे पर परामर्श संवाद हर मानव परिवार में और योग संयोग होने वाले छोटे बड़े समाजों में चर्चित होना निष्कर्ष का पाना मानव का ही कर्तव्य है चर्चा की प्रवृत्ति मानव में निहीत है ही। सारे मानव अपने में स्वस्थ सुंदर समाधान समृद्धि का धारक वाहक होना चाहता ही है। समाधान संपन्न मानसिकता और रोग मुक्त शरीर होना तो उसे बनाए रखना ही मानव में स्वस्थता का तात्पर्य है इसमें शरीर में निरोगिता को स्वास्थ्य कहा जाता है ऐसे निरोगिता  की पहचान सप्त धातुओं के संतुलन में होना पाया जाता है। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर:74)
  • दृष्टापद प्रतिष्ठा के रूप में अनुभूति जीवन में, से, के लिए जीवन ज्ञान सम्पन्न होना ही है। सह अस्तित्व दर्शन ज्ञान का मतलब यही है। इसी के क्रियान्वयन विधि से अखंडता सार्वभौमता का अनुभव होना समाधान है और समाधान का अनुभव होता है, यही सुख है यही मानव धर्म है। मानव धर्म विधि से जीता हुआ परिवार से विश्व परिवार तक जीवनाकांक्षा मानवाकांक्षा सहज रुप में ही सबके लिए सुलभ रहती है। इसी आशा में मानवकुल प्रतीक्षारत है तथा इसे सफल बनाना मानव का ही कर्तव्य दायित्व है। इस जिम्मेदारी को स्वीकार करने के लिए लक्ष्य सम्मत परिवार जनचर्चा हर मानव परिवारों में, समुदायों में, सभाओं में आवश्यक है। चर्चा अपने में लक्ष्य के लिए आवश्यक प्रक्रिया, प्रणाली और नीतिगत स्पष्टता के लिए होना सार्थक है। प्रक्रिया का तात्पर्य निपुणता, कुशलता, पांडित्य पूर्वक  किए जाने वाली कृतकारित अनुमोदित कार्यों से है। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर: 74-75)
  • प्रदूषण से  प्राण वायु का शोषण बढ़ता जा रहा है। और प्राण वायु की सृजनशीलता घटती जा रही है। इससे  मानव कितने खतरे में आ रहा है इसे समझना आवश्यक है। यदि प्राण वायु इतना घट जाये, हमारे श्वॉस में प्राण वायु आवश्यकता से कम हो जाये तो क्या स्थिति रहेगी। मानव शरीर में प्राण वायु का सेवन होता है। अपान वायु का विसर्जन होता है। वनस्पति संसार में अपानवायु का सेवन होता है प्राणवायु का विसर्जन होता है। इस ढंग से प्राणावस्था, जीव और मानव शरीर के लिए पूरक होना और जीव एवं मानव वनस्पति संसार के लिए पूरक होना पाया जाता है। इस प्रकार मानव अपनी स्वस्थ मानसिकता के साथ परिशीलन करने पर पता चलता है कि इसके संतुलन को बनाए रखना अतिआवश्यक है। सन्तुलन बनाए रखने का दायित्व मानव के माथे पर टिकता है। इस दायित्व को स्वीकारने के उपरान्त ही उपर कही गयी दुर्घटनाओं का उन्मूलन होगा। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 80)
  • सम्पूर्ण मानव शिक्षा-संस्कार पूर्वक ही अपनी दिशा, उद्देश्य और कर्तव्यों को निर्धारित कर पाता है। मानव की दिशा लक्ष्य निर्धारित हो पाना जागृति का प्रथम सोपान है। इसके आगे अपने आप में कार्यक्रम और कार्यव्यवहार सम्पादित होना स्वाभाविक है। जिसके फलन में समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व प्रमाणित होना है जिसके लिए हर मानव नित्य प्रतीक्षा में है और उपलब्धि ही गम्यस्थली है। उसकी निरन्तरता ही परम्परा है। ऐसी लक्ष्य संगत परम्परा ही  जागृत परम्परा है। इसी क्रम में संज्ञानशीलता प्रमाणित होना, संवेदनाएँ नियंत्रित होना पाया जाता है। संवेदनाओ के नियंत्रण को अपने आप में मर्यादा के सम्मान के रूप में पहचाना गया है। मर्यादाएँ  परस्परता में अति आवश्यक स्वीकृतियाँ है। इन स्वीकृतियों के आधार पर किये जाने वाली कृतियाँ अर्थात कार्य और व्यवहार से मानव परम्परा में हर मानव सुखी होना स्वाभाविक है। (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर: 82)
  • मानव में परस्परताएँ में भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, माता-पिता, पति-पत्नि, चाचा-चाची, मामा-मामी आदि से सम्बोधन किये जाते है। ये परिवार सम्बोधन कहलाते है। इन सम्बोधन के साथ प्रयोजनो को (सम्बंध का अर्थ रूपी प्रयोजनो को) पहचानते हुए निर्वाह करने के क्रम में हम जागृत मानव कहलाते है। भ्रमित मानव भी सम्बोधनो को प्रयोग करता ही है। सम्पूर्ण प्रयोजन सम्बन्धो की पहचान और निर्वाह जैसे गुरू के साथ श्रद्घा-विश्वास, माता-पिता के साथ श्रद्घा-विश्वास, भाई-बहन के साथ स्नेह और विश्वास, मित्र के साथ स्नेह-विश्वास, पुत्र पुत्री के साथ वात्सल्य, ममता, विश्वास, इसकी निरन्तरता में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित करते है। इन सभी सम्बंधो का निर्वाह करने के साथ दायित्व और कर्तव्य अपने आप स्वीकृत होते है। (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर:82)
  • दायित्व कर्तव्यों का निर्वाह होना अपने आप में विश्वास का आधार बनता है यही व्यवहार सूत्र कहलाता है। जहाँ भी कर्तव्य दायित्वो का निर्वाह नहीं कर पाते वहाँ विश्वास नहीं हो पाता है। भ्रमित मानव परम्परा में दायित्व कर्तव्य का बोध नहीं हो पाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है व्यवहार तंत्र का आधार सम्बंध ही है। इसका निर्वाह और निरंतरता ही परिवार और समाज की व्याख्या बन जाती है। इन दोनो प्रकार की व्याख्या  से पारंगत होने के फलन में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी होना स्वाभाविक है। व्यवस्था में सार्वभौमता स्वभाविक है। व्यवस्था को हर व्यक्ति बरता ही है अखण्ड समाज व्यवस्था ही व्यवस्था हो पाती है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:82-83)
  • व्यवहार व्यवस्था का तात्पर्य अथवा समाज व्यवस्था का तात्पर्य मानव में, से, के लिए लक्ष्य समेत जीने की विधि, विधान, कार्य और व्यवहार ही है। व्यवहार विधि संबंधो के आधार पर मूल्यों के निर्वाह करने के दायित्व पर निर्भर किया जाता है। इसके लिए जो क्रमबद्घता अर्थात निर्वाह के लिए जो क्रम बद्घता होती है यही विधान है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 83)
  • दसों परिवार संस्कृति सभ्यता में एक रूपता को बनाए रखेंगे। कला और उत्पादन क्रियाओ के प्रोत्साहन से अपनी अपनी पहचान बनाए रखने में सतत स्वयं स्फूर्त विधि से सम्पन्न होते जायेंगे। इस स्वायत्ता को पहचानने के उपरान्त सम्मिलित व्यवस्था दस परिवार में समाधान, समृद्घि का अनुभव होना, प्रमाणित होना, गवाहित होना बन जाता है। यही परिवार समूह सभा का वैभव होना पाया जाता है। इस वैभव के साथ यह भी स्वयं स्फूर्त होता है इसकी विशालता की आवश्यकता है। जैसे परिवार में परिवार समूह व्यवस्था की प्रवृति स्वयं स्फूर्त होती है। इसी प्रकार परिवार समूह सभा ग्राम परिवार की विशालता दस के गुणन में होते हुए ग्राम सौभाग्य को प्रमाणित करने का उद्देश्य बन जाता है। क्योकि समूचे ग्राम में कम से कम 10 परिवार समूह सभा से निर्वाचित सदस्य होगी। दस परिवार सभा अपना सौभाग्य प्रमाणित किये रहना स्वाभाविक रहता है। इन आधारो पर हर परिवार समूह सभा से एक एक व्यक्ति का निर्वाचन होना सहज हो जाता है। इस स्वयं स्फूर्त निर्वाचन से जन प्रतिनिधि अपने दायित्व, कर्तव्य से सम्पन्न, सजग प्रमाणित रहता ही है क्योंकि समझदार परिवार से ही जन प्रतिनिधि की उपलब्धि होना पाया जाता है। इसके हर परिवार के समझदार होने की व्यवस्था, लोक शिक्षा और शिक्षा विधि से, मानवीय शिक्षा का बोध कराने की व्यवस्था सुचालित रहेगी ही। इस प्रकार से तीसरे सोपान के लिए दस जनप्रतिनिधि परिवार समूह सभा से निर्वाचित होकर ग्राम सभा के लिए उपलब्ध रहेंगे। इसके निर्वाचन की कालावधि को हर ग्राम सभा अपनी अनुकूलता के आधार पर अथवा सबकी अनुकूलता के आधार पर निर्णय लेगी। उस कालावधि तक मूलत: परिवार से निर्वाचित होकर परिवार समूह से निर्वाचित होकर ग्राम परिवार सभा कार्यक्रम में भागीदारी करने के लिए पहुँचे रहते है। इनके लिए कोई मानदेय या वेतन स्वीकार नहीं होता है क्योंकि हर परिवार समृद्घ रहता ही है। समाधान समद्घि के आधार पर ही जनप्रतिनिधि निर्वाचन होना पाया जाता है। जब दसो जनप्रतिनिधि एकत्रित होते है ये सभी प्रतिनिधि हर कार्य करने योग्य रहते हैं। व्यवस्था कार्य में ऐसा कोई भाग नहीं रहेगा जिसे यह कर नहीं पायेगे। दूसरा हर कार्य के लिए समय और प्रक्रिया को निर्धारित करने में समर्थ रहेंगे। इस शोध के आधार पर मानवीय शिक्षा- संस्कार में पारंगत जैसे एक गॉव में प्राथमिक शिक्षा का आवश्यकता तो रहता ही है उसमें पारंगत रहेंगे। न्याय-सुरक्षा कार्य में पारंगत रहेंगे। उत्पादन-कार्य में पारंगत रहेंगे। विनिमय कार्य में पारंगत रहेंगे। स्वास्थ्य संयम कार्य में भी पारंगत रहेंगे। प्राथमिक स्वास्थ्य विधा में सभी पारंगत रहेंगे। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर:112-113)
  • व्यवस्था की दूसरी कड़ी में सुरक्षा कार्य सम्पन्न होगे। इसमें ग्राम परिवार सभा के लिए निर्वाचित दसो सदस्य सुस्पष्ट ज्ञान सम्पन्न, विवेचना, विश्लेषण में पारंगत रहेंगे। हर परिवार समझदार परिवार होने के आधार पर गलती और अपराध की कोई संभावना नहीं रहती। फिर भी ऐसी कोई प्रवृत्ति उदय होने से घटना तक पहुंचने के पहले सुधार होने की व्यवस्था रहेगी। ऐसी व्यवस्था का प्रभावशीलन परिवार से ही आरम्भ होकर परिवार समूह, ग्राम परिवार सभा में कार्यरत निष्णात व्यक्तिगण सुधार के दायी रहेंगे। जो अनुचित है अनावश्यक है अथवा गलती अपराध है ऐसी मानसिकता को पहचानने का दायित्व सर्वप्रथम परिवार में उसके अनन्तर परिवार समूह सभा में और ग्राम परिवार में रहेगी। ग्राम के सम्पूर्ण सौ परिवार  दायी रहेंगे। जैसे ही ऐसी मानसिकता देखने मिले तुरन्त सुधारने का कार्य करेंगे। और पूरा गाँव के सौ परिवारो का मूल्यांकन, वर्ष में एक बार अथवा छ: महीने में एक बार, आवश्यकता पड़ने से महीने में एक बार होना स्वाभाविक रहेगी। इसकी सुगमता हर दस परिवार के प्रतिनिधि करेंगे। हर परिवार अपना मूल्यांकन स्वयं करेगा। इन दोनो आधार पर ग्राम सभा अपना ध्यान देकर मूल्यांकन की घोषणा करेगा। इनमें से कोई भी परिवार में श्रेष्ठता की आवश्यकता होने पर अथवा परिवार समूह में श्रेष्ठता की आवश्यकता होने पर ग्राम सभा उसकी भरपाई करने का कार्य करेंगे।  मूल्यांकन का ध्रुव बिन्दु समाधान, समृद्घि सम्पन्नता होगा। तीसरा बिन्दु उपकार कार्य में प्रवर्तन समाज गति के रूप में मूल्यांकित होगी। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 114)
  • मंडल समूह परिवार सभा दस मंडल परिवार सभा में से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित होकर मंडल समूह परिवार सभा के कर्णधार रहेंगे। इसी क्रम में सभी प्रकार के कार्यकलापो को तथा पाँचों कड़ियो के कार्यक्रमों को इस सातवीं सोपान में प्रमाणित करने का दायित्व रहेगा इसमें सम्पूर्ण मानव प्रयोजनो को स्पष्ट रूप से प्रमाणित किया जाना कार्यक्रम रहेगा। ऐसे मानव अधिकार परिवार सभा से ही प्रमाणरूप में वैभवित होते हुए शनै: शनै: पुष्ट होते हुए मंडल समूह परिवार सभा में मानव अधिकार का सम्पूर्ण वैभव स्पष्ट होने की व्यवस्था रहेगी। समान्यत: मानव अर्थात समझदार मानव शनै: शनै: दायित्व के साथ अपनी अर्हता की विशालता को प्रमाणित करता ही जाता है। अपनी पहचान का आधार होना हर व्यक्ति  पहचाने ही रहता है। समूचे अनुबंध समझदारी से व्यवस्था तक को प्रमाणित करने तक जुड़ा ही रहता है। प्रबंधन इन्हीं तथ्यो में, से, के लिए होना स्वाभाविक है। समझदारी में परिपक्व व्यक्तियों का समावेश मंडल समूह सभा में होना स्वाभाविक है। ऐसे देव मानव दिव्य मानवता को प्रमाणित करते हुए दृढ़ता सम्पन्न विधि से शिक्षा विधा में शिक्षा-संस्कार कार्य को सम्पादित करते है। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 121)
  • इस सभा की दूसरी कड़ी न्याय- सुरक्षा कार्य रहेगी  इसे पड़ोंसी राज्यों में अर्थात परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को पड़ोंसी राज्यों में प्रवाहित करने के लिए सभी उपायों का प्रयोग करेगी। इस विधि से लोकव्यापीकरण प्रवृत्ति का प्रमाण प्रधान राज्य सभा के दायित्व में रहेगी। 
इस सभा की तीसरी कड़ी उत्पादन कार्य रहेगी जो आकाश गमन आदि यंत्रो को तैयार करने की प्रौद्योगिकी बनाये रखेगी। साथ में  जलप्रवाह बल से विद्युत उपार्जन कार्य सम्पादित करने की व्यवस्था और दायित्व रहेगी। इसी के साथ साथ वायु प्रवाह, समुद्र तरंग विधियों से भी विद्युत उपार्जन करने के उपक्रम समावेशित रहेंगे। इसी प्रौद्योगिकी कार्यक्रम के साथ और श्रेष्ठतर उपलब्धियो के लिए प्रयोगशील रहने के अधिकार समावेशित रहेंगे जिससे ऊर्जा संतुलन सुलभ हो। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 125)


स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : अनुभवात्मक अध्यात्मवाद

अनुभवात्मक अध्यात्मवाद (संस्करण:2009)
  • अनुभव का आधार मूलत: सह-अस्तित्व होना देखा गया है । सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान है । अस्तित्व न घटता है न बढ़ता है । अस्तित्व स्वयं ही सह-अस्तित्व है । अस्तित्व में, से, के लिए सह-अस्तित्व विधि से परमाणु में विकास, पूरकता विधि से होना देखा गया । इस विकासक्रम में जितने भी परमाणुएँ है वह सब भौतिक और रासायनिक कार्यकलापों में भागीदारी करता हुआ देखा गया है । परमाणु विकास पूर्वक गठनपूर्ण होना चैतन्य पद में संक्रमित होना पाया जाता है । यही चैतन्य इकाई ‘‘जीवन’’ आशा, विचार, इच्छापूर्वक कार्यरत है। हर मानव, जीवन एवं शरीर का संयुक्त रूप है । देखने का तात्पर्य समझना, समझने का तात्पर्य अनुभवमूलक विधि से संप्रेषित करना है। भौतिक-रासायनिक क्रियाकलापों में अनेक परमाणुओं से अणु रचना, अनेक अणुओं से छोटे-बड़े पिण्ड रचना का होना दिखाई पड़ता है । ऐसे पिण्डों के स्वरूप ग्रह, गोल, नक्षत्रादि वस्तुओं के रूप में प्रकाशमान है और इस धरती पर रासायनिक क्रियाकलापों अथवा रासायनिक उर्मि के आधार पर अनेक प्रजाति की वनस्पतियाँ, अनेकानेक नस्ल की जीव संसार दिखाई पड़ते है । इन सबके मूल में परमाणु ही नित्य क्रियाशील वस्तु के रूप में देखने को मिलता है । परमाणु में ही विकास होने का तथ्य हर परमाणु में विभिन्न संख्यात्मक परमाणु अंशों का होना ही आधार के रूप में देखा गया है । ऐसे परमाणु विकासक्रम से गुजरते हुए अस्तित्व में रासायनिक-भौतिक कार्यकलापों को निश्चित व्यवस्था के रूप में सम्पन्न करते हुए प्रकाशमान रहता हुआ मानव देख पाता है । प्रत्येक मानव इसे आंशिक रूप में देखा ही रहता है साथ ही सम्पूर्ण रूप में देखने की आवश्यकता बनी रहती है सम्भावना समीचीन रहती है । समझने के अर्थ में अर्थात अनुभवमूलक विधि से संप्रेषित, प्रकाशित, अभिव्यक्त होने के विधि से सम्पूर्ण वस्तु को मानव समझना सहज है । इस क्रम में मानव का मूल अथवा सार्वभौम उद्देश्य समझदारी के साथ जीने की स्वीकृति आवश्यक है । इसी विधि से हर मानव में निष्ठा और जिम्मेदारी आवश्यक है। जिम्मेदारी का तात्पर्य दायित्व और कर्तव्यों को स्वयं स्फूर्त विधि से निर्वाह करने से है और निष्ठा का तात्पर्य है उसकी निरंतरता को बनाये रखने वाली समझदारी से जुड़ी हुई सूत्र से है। ऐसे सूत्र अनुभव से ही जुड़ा हुआ देखा गया है । इस प्रकार अनुभवमूलक अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन विधि से सर्वमानव में निहित संपूर्णता को समझने, कल्पना, विचार और इच्छाओं का गम्य स्थली दिखाई पड़ती है ।  (अध्याय:2, पृष्ठ नंबर: 9-10)
  • अनुभव, व्यवहार और प्रयोग इन तीनों प्रकार से मानव सहज विधि से प्रमाणों की आवश्यकता, सदा-सदा ही बनी रहती है । यही निरन्तर मानव कुल में अपेक्षा, प्रयास और प्रमाणों के स्थितियों में देखने में आता है । आदि काल से समाधान की अपेक्षा रही है । इस शताब्दी के उत्तरार्ध के तीन दशक में मानव में समाधान सहज अपेक्षा बलवती हुई । यह मानवाधिकार रूपी आवाज से आरंभ हुआ । यही अपेक्षा से पीड़ा तक पहुँचने का साक्ष्य देखने को मिला । मानवाधिकार, अपने विचार के अनुसार हर व्यक्ति को सामान्य सुविधा पहुँचना चाहिये, विपदाओं में सहायता और रक्षा होना चाहिये जैसे - भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल से पीड़ित लोगों को राहत पहुँचाना चाहिये । दण्ड के रूप में बहुत सारे दण्ड प्रणालियों को बंद करना चाहिये । दण्ड विधि में सुधार होना चाहिये । युद्घ मानसिकता को बदलना चाहिये । ये सब आवाज के रूप में होना देखा जाता है । कार्यरूप में बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक आवश्यकता के अनुसार रोगग्रस्त स्थिति में दवाई, विपदाग्रस्त स्थिति में खाना-कपड़ा-सुरक्षित स्थान यही सब प्रधानत: सहायता के अर्थ में सुलभ करने के कार्य को किया जाना देखा गया । यद्यपि सुदूर विगत से हर राजगद्दी विपदाओं में ग्रसित लोगों को राहत देने के हित कोष और कार्यों को बनाए रखते रहे हैं । इनमें नया क्या हुआ पूछा जाय तो - इतना ही अंतर है कि राजदरबार की सभी सहायताएँ राजा के कृपावश होता था । मानवाधिकार संस्था का इस विधा में परिवर्तन स्वयं-स्फूर्त विधि से प्रस्तुत है । इनके कार्यकलापों का मूल्यांकन कर्तव्यों, दायित्वों के रूप में मूल्यांकित किया जाता है । इसलिये इसे मानवाधिकार विचारों का धारक-वाहक मानवों में विपदाग्रसित व्यक्ति  पीड़ित होकर ही ऐसे संस्था को संचालित किया गया है, कहा गया है । इसके बावजूद इसमें शुभ का भाग अर्थात् सहायता भाग ही सार्थकता है। (अध्याय:3 , पृष्ठ नंबर: 70-71)
  • दयापूर्ण कार्य-व्यवहार का स्वरूप आवश्यकतानुसार (अपने-पराये के दीवाल विहीन विधि से) अर्थ का सदुपयोग कार्य ही है । यह विशेष कर कर्तव्य और दया सूत्र सम्पन्न परिवार संबंधों में जुड़े होते हैं । जागृति सम्पन्न सर्व परिवार, सर्व मानव के साथ दया का प्रभाव क्षेत्र बना रहता है । हर परिवार समृद्घ होने और समाधानित रहने के आधार पर दयापूर्ण कार्य-व्यवहार सार्थक होना देखा गया है । दयापूर्ण कार्य-व्यवहार की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति समग्र व्यवस्था में भागीदारी का ही स्वरूप है। इतना ही नहीं व्यवस्था स्रोत सहित व्यवस्था में भागीदारी का स्वरूप है । इस प्रकार दयापूर्ण कार्य-व्यवहार का कार्य सार्थकता और उसकी अनिवार्यता स्पष्ट होती है । मूलत: यह सब अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के लक्ष्य में प्रतिपादित और प्रवर्तित है । इसका दृष्टफल मानवापेक्षा रूपी समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व है । यह अनुभव मूलक प्रणाली से ही हर मानव में सार्थक होना पाया जाता है । अस्तु, मानवीयतापूर्ण आचरण सह-अस्तित्व में अनुभव मूलक विधि से और जीवन ज्ञान सहित ही अखण्ड समाज-सार्वभौम व्यवस्था सम्पन्न होना देखा गया है जो स्वयं में स्रोत के रूप में होना पाया जाता है । परिवार मानव पद में ही मानवीयतापूर्ण आचरण सार्थक हो पाता है । परिवार में न्याय सार्थकता प्रमाणित रहता ही है । इसी आधार पर अर्थात् परिवार मानव ही व्यवस्था मानव होने के आधार पर बंधनमुक्ति के प्रमाण स्पष्ट हो जाते है । न्याय सुलभता से स्वाभाविक रूप में भ्रमित आशा, विचार, इच्छा बन्धन से मुक्ति स्वाभाविक है । इससे पता चलता है न्याय प्रदायी योग्यता का विकसित होना ही बन्धन से मुक्ति का गवाही है । शरीर या मोह से ही मानव संपूर्ण प्रकार के अन्याय और कुकर्म करता है। इसे हर मानव, हर स्थिति में आंकलित कर सकता है। परिवार मानव विधि से हर काल, हर परिस्थिति में (मानवीयता पूर्ण परिस्थिति मे) न्याय प्रदायी योग्यता और क्षमता को प्रमाणित करना सहज है। यही प्रधान रूप में मुक्ति का प्रमाण है। ऐसी परिवार मानव के रूप में जीने की सम्पूर्ण चित्रण स्वयं में समाज रचना का चित्रण है । (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर:162-163)
  • प्रमाणों के मुद्दों पर अध्यात्मवाद सर्वप्रथम शब्द को प्रमाण मान लिया गया । तदनन्तर, पुनर्विचार पूर्वक आप्त वाक्यों को प्रमाण माना गया । तीसरा प्रत्यक्ष, आगम, अनुमान को प्रमाण माना गया । ये सभी अर्थात् तीनों प्रकार के प्रमाणों के आधार पर अध्ययनगम्य होने वाले तथ्य मानव परंपरा में शामिल नहीं हो पाये । इसी घटनावश इसकी भी समीक्षा यही हो पाती है यह सब कल्पना का उपज है । शब्द को प्रमाण समझ कर कोई यथार्थ वस्तु लाभ होता नहीं । कोई शब्द यथार्थ वस्तु का नाम हो सकता है । वस्तु को पहचानने के उपरान्त ही नाम का प्रयोग सार्थक होना पाया गया है । इसी विधि से शब्द प्रमाण का आशय निरर्थक होता है । ‘‘आप्त वाक्यं प्रामाण्यम् ।’’ आप्त वाक्यों के अनुसार कोई सच्चाई निर्देशित होता हो उसे मान लेने में कोई विपदा नहीं है। जबकि चार महावाक्य के कौन से चार महावाक्य रूप में जो कुछ भी नाम और शब्द के रूप में सुनने में मिलता है उससे इंगित वस्तु अभी तक अध्ययन परंपरा में आया नहीं है । आप्त वाक्य जब अध्ययनगम्य नहीं है, मान्यता के आधार पर ही है, तर्क तात्विकता की कड़ी है, अध्ययन तर्क संगत होना आवश्यक है। ऐसे में आप्त पुरूषों को भी कैसे पहचाना जाय? यह प्रश्न चिन्हाधीन रह गया । कोई भी सामान्य व्यक्ति भय, प्रलोभन और संघर्ष से त्रस्त होकर किसी को आप्त पुरूष मान लेते हैं तब उन्हीं के साथ यह दायित्व स्थापित हो जाता है आपने कैसे मान लिया। इसके उत्तर में बहुत सारे लोग मानते रहे, अथवा मैं अपने ही खुशी से मान लिया हूँ-यही सकारात्मक उत्तर मिलता है । ऐसा बिना जाने ही मान लेने के साथ ही सम्पूर्ण प्रकार से कल्याण होने का आश्वासन भी देते हैं साथ ही सारे मनोरथ या मनोकामना पूरा होने का आश्वासन देते हैं । ऐसा आश्वासन स्थली, आश्वासन देने वाला व्यक्ति के संयोग से आस्थावादी माहौल (भीड़) का होना देखा गया है । ऐसे भीड़ से कोई एक अथवा सम्पूर्ण भीड़ के द्वारा जीवन अपेक्षा, मानवापेक्षा फलीभूत होता हुआ इस सदी के अंतिम दशक तक देखने को नहीं मिला । (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 205)
  • अभ्यास को हम इस तथ्य के रूप में देख पाये हैं कि साधना से जो जागृति बिन्दु हमें प्राप्त हुई और समृद्घ हुए उसे अभ्युदय (सर्वतोमुखी समाधान) के रूप में वयवहृत करने के रूप में सार्थकता को देखा गया । इसी के साथ-साथ नि:श्रेयष (निरंतर श्रेय) को जागृति पूर्णता के रूप में देखा गया । देखने का तात्पर्य समझने से ही है । समझने का तात्पर्य जानने-मानने-पहचानने से ही है । श्रेय के स्वरूप को जागृति और उसकी निरंतरता में ही होना देखा गया है । हर मानव, हर परिवार, हर समुदाय, हर पंथ-सम्प्रदाय सब जागृति को स्वीकारते ही हैं । इसे निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक हर मानव देख सकता है । इससे यह स्पष्ट हो जाती है हर देश काल में हर मानव श्रेय अपेक्षी है ही । इसे सार्थक रूप देने के लिये परंपरा सहज कर्तव्य स्वीकृति आवश्यक है । इस क्रम में यह भी स्पष्ट हो गया है कि साधना सहज क्रम में जागृति, जागृति विधि में व्यवस्था होना, नित्य अभ्यास एवं प्रमाण है । (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:228)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : व्यवहारवादी समाजशास्त्र

व्यवहारवादी समाजशास्त्र (संस्करण : 2009)
  • हर मुद्दे पर आवश्यक और अनावश्यकता का निर्णय हम इस विधि से पाते हैं कि निश्चित लक्ष्यगामी स्थिति-गति के लिए प्रेरक, सहायक होने के सभी तथ्यों को आवश्यकता के अर्थ में और इसके विपरीत अर्थात् लक्ष्य के विपरीत सभी प्रकार की देशकाल में हुई घटनाएँ मानव परंपरा के लिये अनावश्यक है। सम्पूर्ण मानव का मूल लक्ष्य इसकी अक्षुण्णता, अखण्डता सार्वभौमता ही है। इसका प्रमाण स्वरूप समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व है। यह दायित्व, कर्तव्य, संज्ञानशीलता, संवेदनशीलता पूर्वक हर मानव में, से, के लिये समान रूप में आवश्यक और समीचीन होना और सार्थकता का मूल्यांकन होना तथा नित्य उत्सव होना पाया जाता है। इसी अर्थ में आवश्यकता और अनावश्यकता का वर्गीकरण हो पाता है। लक्ष्य और प्रमाण के सार्थकता, सामरस्यता सहज सभी श्रुति-स्मृति, साक्षात्कार, अनुभव ज्ञान, दर्शन, व्यवहार, व्यवस्थाएँ, नित्यगति रूप में सार्थक होना पाया जाता है। इसी क्रम में जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था, परिवार मानव, स्वायत्त मानव, संयोजन, योजन कार्यविधि से मानव परंपरा युगों-युगों तक सफल होने का मार्ग प्रशस्त है। (अध्याय: 4, पृष्ठ नंबर: 103-104)
  • जागृति और उसका प्रमाण सहज रूप में ही जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सहित परिवारमूलक व्यवस्था विधि से सफल होना पाया जाता है, सार्थक होना पाया जाता है। सफल होने का तात्पर्य मानव स्वयं-स्फूर्त विधि से व्यवस्था के रूप में प्रमाणित हो जाने से है। सार्थकता का तात्पर्य समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने से है। अस्तित्व सहज रूप में ही मानव अपने त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने योग्य इकाई है। यही मानव जागृति को निरीक्षण-परीक्षण पूर्वक प्रमाणित होने, करने का एवं करने के लिये मत देने का सूत्र है। इस विधि से सार्वभौम लक्ष्य रूपी जागृति और जागृति प्रमाण, मानवीयतापूर्ण आचरण स्वयं कर्त्तव्यों, दायित्वों,  प्रेरकताओं और सम्पूर्ण कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत-कारित, अनुमोदित विधियों से मानव परंपरा में स्पष्ट हो जाता है। यही प्रधान रूप में संविधान की मंशा है। (अध्याय: 4, पृष्ठ नंबर: 124) 
  • लक्ष्य सहज प्रमाणों का
मूल्यांकन विधि - 1. स्वयं में, एक दूसरे के परस्परता में यथा प्रत्येक मनुष्य अपने में, परस्पर मानव संबंधों में और नैसर्गिक संबंधों में। 2. समझदारी, समझदारी के अनुरूप निष्ठा (कर्तव्य, दायित्व के रूप में किया गया निर्वहन और उसका फल-परिणाम) सहज विधि। (अध्याय: 4, पृष्ठ नंबर: 125-126)
  • संतुलन ही हर व्यक्ति में दायित्व और कर्तव्य के रूप में नियंत्रित रहना पाया जाता है। यही संपूर्ण कार्यों में नियमित रहना होता है। इस प्रकार मानव अपने परिभाषा के अनुरूप अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान को स्वीकृति के रूप में स्वानुशासन के रूप में स्वतंत्रता को; समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में स्वराज्य व्यवस्था को प्रमाणित करता है। यही मानव सहज परिभाषा का सार्थकता, उपकार, तृप्ति और उसकी निरंतरता है। अस्तु, मानव अपने परिभाषा सहज सार्थकता को प्रमाणित करना ही मौलिक अधिकार है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 148)
  • ऊपर कहे प्रतिज्ञा कार्यों में यह तथ्य उद्घाटित हुआ ही है कि स्वायत्त मानवाधिकारोपरान्त ही विवाह घटना का उपयोगी और सार्थक होना पाया जाता है। स्वायत्त मानव का पहचान स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक और व्यवसाय में स्वावलंबन सहज प्रमाण के आधार पर सम्पन्न होना व्यवहारिक है। ऐसी अर्हता को शिक्षा-संस्कार परंपरा में प्रावधानित रहना मानव सहज वैभव में से एक प्रधान आयाम है। इस प्रकार चेतना विकास मूल्य शिक्षा सम्पन्न शिक्षित व्यक्ति ही अध्ययनपूर्वक अपने में स्वायत्तता का अनुभव करने और सत्यापित करता है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा, मानवीयतापूर्ण ज्ञान, दर्शन और आचरण सम्पूर्ण अध्ययनोपरांत किये जाने वाले हर सत्यापन को वाचिक प्रमाण के रूप में स्वीकारना नैसर्गिक व्यवहारिक आवश्यक मानव परंपरा में से प्रयोजनशील होना देखा गया है क्योंकि परस्पर सम्बोधन सत्यापन के साथ ही सम्बंध, कर्तव्य व दायित्वों की अपेक्षाएँ और प्रवृत्तियाँ परस्परता में अथवा हरेक पक्ष में स्वयं स्फूर्त होना पाया जाता है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 153)
  • स्वायत्त मानवाधिकार के लिए 18 वर्ष की आयु तक सम्पन्न होने की व्यवस्था है। इसके उपरान्त परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होने के लिए चार वर्ष न्यूनतम रूप में होना आवश्यक है। इसमें हर अभिभावक, आचार्य, भाई-बहन, मित्र सबको प्रमाण देखने को मिलेंगे। इस अवधि के उपरान्त प्रधानत: अभिभावक, प्रौढ़, भाई-बहन, मित्रों की सम्मति विवाह में प्रयोजित होने वाले नर-नारी की प्रवृत्तियों का संगीत अथवा एक मानसिकता के आधार पर आचार्यों की सम्मति सहित विवाह संस्कार सम्पन्न होगा। यही मानव परंपरा में मानवीयतापूर्ण पद्घत्ति से मानव संचेतना सहित सम्पन्न होने वाला विवाह संस्कार उत्सव है। इसके लिये आयु विचार स्पष्ट हो गया। बाईस वर्ष के उपरान्त ही विवाह सम्पन्न होना अध्ययन विधि से स्पष्ट हो चुका है। इसी अवधि के साथ दायित्व, कर्त्तव्य और परिवार मानव का सम्पूर्ण प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता और अवधियाँ स्पष्ट हो चुकी है। दूसरी विधि से स्वास्थ्य संबंध में सोचने पर भी शरीर-अंग-अवयव पुष्टि भी इसी आयु तक सहज ही सम्पन्न होना देखा गया है। (अध्याय:6, पृष्ठ नंबर: 154)
  • मानवीयतापूर्ण मानव परंपरा में मानव कुल के रूप में शरीर निर्माण गर्भाशय में होने एवं उसका पोषण-सरंक्षण-संवर्धन एक आवश्यकीय भूमिका है। इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए ही विवाह सम्बन्ध का सर्वोपरि प्रयोजन है। इसी के साथ-साथ यौवन और यौन विचार संयोग की आपूर्ति स्वाभाविक रूप में होना पाया जाता है। इसमें यह भी देखा गया है मानवीयतापूर्ण मानसिकता, विचार, चिन्तन (मानवीयता के प्रति दायित्व-कर्तव्य मानसिकता की सुदृढ़ता) समुन्नत और परिष्कृत होते-होते यौन-यौवन संबंधी आकर्षण अथवा सम्मोहन क्षय होता है। यह भी मानवीयता के प्रति निष्ठान्वित हर नर-नारी में परीक्षण और सत्यापन संगीत का पाया जाना नैसर्गिक है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:156)
  • तथ्य :- मानवीयतापूर्ण विधि से अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी का होना प्रधान लक्ष्य है। इसी विधि में मौलिक अधिकार और इसी क्रम में मौलिक अधिकार का स्पष्टीकरण एक दूसरे को इंगित होता है, स्वीकृत होता है, जाँचने की विधि स्वयं स्फूर्त होता है। इसी क्रम में स्वायत्त मानव के वैभवों का परीक्षण जैसा- (1) स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करने का अधिकार, प्रक्रिया और प्रमाण, (2) प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलनाधिकार प्रक्रिया और प्रमाण और (3) व्यवहार में सामाजिक एवं व्यवसाय में स्वावलंबनाधिकार, प्रक्रिया और प्रमाण एक दूसरे को समझ में आता है। समझ में आने का तात्पर्य जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने से है। ऐसे मनुष्य ही परिवार मानव और व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होना सहज है। यही सम्पूर्ण स्वत्व स्वतंत्रता और अधिकारों का वैभव और विस्तार है। इस प्रकार कर्तव्य दायित्व ही समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी के रूप में अधिकार है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 160-161)
  • हर परिवार मानव में जागृति का प्रभाव, जागृति का वैभव मुखरित रहता ही है। इसी आधार पर हर अभिभावक शिशुकाल से ही जागृतिकारी संस्कारों को स्थापित करने में सफल होते ही हैं। यह हर जागृत नर-नारी का कर्तव्य भी है, दायित्व भी है। इससे यह स्पष्ट है हर मनुष्य अभिभावक पद को पाने से पहले एक अनिवार्यता है, स्वायत्तपूर्ण रहना एक आवश्यकता है और परिवार मानव के रूप में प्रमाणित रहना सर्वोपरि अनिवार्यता है ही। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 181-182)
  • परिवार क्रम में
सम्बोधन                         प्रयोजन
6. स्वामी (साथी) - दायित्व
7. सेवक (सहयोगी) - कर्तव्य
(अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर: 185)
  • ...अखंड समाज सूत्र परिवार विधि से सार्थक होना पाया जाता है। परिवारों का स्वरूप और विशालता को दस सोपानों में स्पष्ट किया गया है। इसी के साथ-साथ दस सोपानों में सभा-स्वरूप व्यवस्था कार्य, कर्तव्य, दायित्व को स्पष्ट किया है। परिवार क्रम में मूल्य, चरित्र, नैतिकता अविभाज्यता को सहज ही स्पष्ट किया जा चुका है। दस सोपानीय समाज रचना और व्यवस्था गति अपने-आप में एक दूसरे को संतुलित करने के अर्थ से हम अभिहित होते हैं। जैसा:- परिवार- जिसका सूत्र सम्बन्ध मूल्य, मूल्यांकन, उभय-तृप्ति और परिवारगत उत्पादन-कार्य में पूरकता फलस्वरूप परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन है। परस्पर परिवार व्यवस्था में विनिमय एक अनिवार्य कार्य है। इसी के साथ सीखा हुआ को सिखाने, किया हुआ को कराने, समझा हुआ को समझाने का कार्य प्रणाली सदा-सदा जागृत मानव पंरपरा में वर्तमान रहता ही है। इसी क्रम में सर्वमानव सुख, सर्वमानव शुभ और सर्वमानव समाधान सर्वसुलभ होता ही रहता है। इस स्थिति को पाना सर्वमानव का अभीप्सा है। अतएव सुलभ होने का मार्ग सुस्पष्ट है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:198-199)
  • मित्र सम्बन्ध - जीवन ज्ञान सम्पन्नता के अनन्तर सुस्पष्ट हो जाता है कि सभी सम्बन्ध जीवन जागृति और उसका प्रमाणीकरण प्रणाली का ही पहचान है। जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान सम्पन्न होने के उपरान्त सम्पूर्ण प्रकार के सम्बन्धों, मूल्यों, मूल्यांकनों और उभयतृप्ति का पहचान, स्वीकृति मानसिकता, गति, प्रयोजन पुन: पहचान, मूल्यांकन क्रम आवर्तित रहता ही है। यह अनुस्यूत प्रक्रिया है। जीवन ही दृष्टा-कर्ता-भोक्ता होने का तथ्य जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान में पारंगत होने के फलन में सह-अस्तित्व में वर्तमानित रहता है। इसी आधार पर मित्र सम्बन्ध परस्पर अभ्युदय के लिये कामना, कार्य, मूल्यांकन करने में समर्थ रहता ही है। मित्र सम्बन्ध में भाई-भाई, बहन-बहन सम्बन्ध के सदृश जाँच, पड़ताल, विश्लेषण, निष्कर्ष, मूल्यांकन सहायक होना पाया जाता है। दूसरे भाषा में सहायक होना ही सार्थकता है। हर सम्बन्ध कम से कम दो व्यक्तियों के बीच होना पाया जाता है। भाई और मित्र सम्बन्ध में समानता है। इसको आमूलत: विश्लेषण करने पर लड़कों के साथ लड़कों की मित्रता, लड़कियों की मित्रता लड़कियों से हो पाता है। क्योंकि आशय बहिन-बहिन और भाई-भाई का ही सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध का पावन रूप उभय जागृति, कर्तव्य, दायित्व उसकी गति प्रयोजन और उसका मूल्यांकन विधि से ही मित्रता और भाई-बहन सम्बन्ध सदा-सदा ही मानव परंपरा में पावन रूप में उपकार विधि और उसका शोध, निष्कर्ष को प्रस्तुत करते ही रहेंगे। पावन का तात्पर्य व्यवस्था के अर्थ में है। यही उपकार का स्वरूप है। यद्यपि सभी सम्बन्धों में आशित, इच्छित, लक्षित और वांछित तथ्य समाधान, समृद्घि अभय, सह-अस्तित्व ही है। इस आशय अथवा आवश्यकता की आपूर्ति और इसके सर्वसुलभ होने के लिये समझना-समझाना, करना-कराना, सीखना-सीखाना स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसी क्रम में समाज गति, व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी, स्वाभाविक रूप में मूल्यांकित होता है। ऐसी मूल्यांकन प्रणाली से ही मानव परंपरा में मानवीयतापूर्ण प्रणाली, पद्घति, नीति का दृढ़ता सुख, सुन्दर, समाधान, समृद्घिपूर्वक प्रमाणित होना नित्य समीचीन रहता है। ऐसे सर्ववांछित उपलब्धि के लिये मित्र संबंध अतिवांछनीय होना पाया जाता है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:213-215)
  • शिक्षा-संस्कार में अथ से इति तक मानव का अध्ययन प्रधान विधि से अध्यापन कार्य सम्पन्न होना सहज है। अध्ययन मनुष्य का, मानव में, से, के लिये ही होना दृढ़ता से स्वीकार रहेगा। प्रत्येक मनुष्य के अध्ययन में शरीर और जीवन का सुस्पष्ट बोध सुलभ होना पाया गया है। जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन निबद्घ विधि से अध्ययन सुलभ होने के कारण अस्तित्व मूलक मानव का पहचान, मानवीयतापूर्ण पद्घति, प्रणाली, नीति समेत पारंगत होने की विधि रहेगी। इसी विधि से हर आचार्य विद्यार्थियों को शिक्षण-शिक्षा पूर्वक अध्ययन कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ रहते हैं। जिसमें उनका कर्तव्य और दायित्व प्रभावशील रहना स्वाभाविक है। क्योंकि हर आचार्य शिक्षा, शिक्षण, अध्ययन का प्रमाण स्वरूप में स्वयं प्रस्तुत रहते हैं इसलिये यह सार्थक होने की संभावना अथवा निश्चित संभावना समीचीन रहता है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:216)
  • अध्ययन संस्थाओं की अभीप्सा, स्वरूप, लक्ष्य, सामान्य क्रिया प्रणाली स्पष्ट हो चुकी है। मानव कुल में समर्पित संतानों को शिक्षा-संस्कार की अनिवार्यता होना पहले से स्पष्ट है। इसे सार्थक और सुलभ बनाने के क्रम में परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को दस सोपानों में स्पष्ट किया जा चुका है। व्यवस्था की निरंतरता में प्रधान आयाम मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार, पद्घति, प्रणाली, नीति ही है। शिक्षित हर व्यक्ति स्वायत्त होना सहज है। स्वायत्तता ही शिक्षित और संस्कारित व्यक्ति का प्रमाण है। ऐसी स्वायत्तता सर्वमानव स्वीकृत तथ्य है। इसलिये सार्वभौम नाम प्रदान किये हैं। सार्वभौम का तात्पर्य सर्वमानव स्वीकृत है, स्वीकृति योग्य है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार पूर्वक स्वायत्त मानव का स्वीकृति परिवार और व्यवस्था में भागीदारी करने के लक्ष्य से स्वीकृत होता ही है। ऐसे सार्वभौम रूप में स्वीकृत मनुष्य ही मौलिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए अपने को समाधानित और वातावरण को समाधानित करने में निष्ठान्वित रहना स्वाभाविक है। उसके लिये दायित्व और कर्तव्यशील रहना स्वाभाविक है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर हर परिवार में समाधान, समृद्घि, अभय और सह-अस्तित्व वर्तमान में प्रमाणित होता है। व्यवस्था, परिवार और समाज सदा ही वर्तमान में, से, के लिये अपने त्व सहित वैभवित होना है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:218-219)
  • शिक्षा-संस्कार सम्पन्न होने के उपरान्त हर व्यक्ति को स्वायत्त और परिवार मानव के रूप में पहचानना स्वाभाविक होता है। परिवार मानव के रूप में ही हर सम्बन्धों का निर्वाह होना, प्रमाणित होना और प्रयोजित होना मूल्यांकित होता है। इसी आधार पर मौलिक अधिकारों को कार्य, व्यवहार, आचरण रूप में प्रमाणित करना ही परिवार मानव सहज सार्थकता है। परिवार मानव संबंधों में, से एक विवाह सम्बन्ध एक पत्नी, एक पति संबंध है। परिवार मानव का कार्य रूप अपने आप में व्यवस्था में जीना ही है। दूसरी भाषा में मानवीयतापूर्ण परिवार में ही व्यवस्था का प्रमाण सदा-सदा के लिये वर्तमानित रहता है। यही जागृत मानव परंपरा का भी साक्ष्य है। परम्परा में प्रधान आयाम परिवार और व्यवस्था का नित्य प्रेरणा स्रोत शिक्षा-संस्कार ही होना पाया जाता है। अतएव स्रोत और प्रमाण के संयुक्त रूप में ही अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र प्रतिपादित होता है। निष्कर्ष यही है परिवार में ही समाज सूत्र और व्यवस्था सूत्र कार्य, व्यवहार, आचरण रूप में प्रमाणित होना ही मानव परंपरा का वैभव है। यही मानवीयता पूर्ण परिवार का तात्पर्य है। इसी में समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व का प्रमाण प्रसवित होता है। इस क्रम में हर परिवार में समाधान और समृद्घि का दायित्व, कर्तव्य, आवश्यकता और प्रयोजन परिवार के सभी सदस्यों में स्वीकृत होना और प्रभावशील रहना ही अथवा प्रमाणित रहना ही परिवार की महिमा और गरिमा है। मानवीयता पूर्ण परिवार का अपने परिभाषा में भी यही तथ्य इंगित होता है जैसा परिवार में भागीदारी निर्वाह करता हुआ हर सदस्य एक दूसरे के संबंधों को पहचानते हैं; मूल्यों का निर्वाह करते हैं और मूल्यांकन करते हैं। फलस्वरूप उभयतृप्ति एक दूसरे के साथ विश्वास के रूप में जानने, मानने, पहचानने और निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होता है। यही परिवार सहज गतिविधि का प्रधान आयाम है। इसी के साथ दूसरा आयाम परिवार में भागीदारी निर्वाह करता हुआ हर सदस्य परिवार गत उत्पादन-कार्य में भागीदारी का निर्वाह करते हैं। फलस्वरूप परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन होना पाया जाता है। जिससे समृद्घि का स्वरूप सदा-सदा परिवार में बना ही रहता है। इसीलिये परिवार और ग्राम परिवार, परिवार समूह और परिवार के रूप में जीने की कला अपने आप में प्रसवित होती है। समृद्घि समाधान, सम्बन्धों, मूल्य, मूल्यांकन के आधार पर बनी ही रहती है। समाधान और समृद्घि सूत्र परिवार में विश्वास के रूप में प्रमाणित होता ही है। इसी आधार पर विशालता की ओर विश्वास के फैलाव की आवश्यकता निर्मित होता है। यही सह-अस्तित्व के लिये सूत्र है। इस प्रकार से परिवार और व्यवस्था का दूसरे भाषा में परिवार मूलक विधि से व्यवस्था का संप्रेषणा, प्रकाशन सर्वसुलभ हो जाता है। ऐसी सर्वसुलभता मानवीय शिक्षा-संस्कार स्वरूप से ही हो पाता है। यही शुभ, सुंदर, समाधानपूर्ण परिवार विधि है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:230-231)
  • विवाह संबंध को स्वीकारा गया और प्रतिबद्घता पूर्वक अर्थात् संकल्प पूर्वक निर्वाह करने के लिये मानसिक तैयारी सहित घोषणा और सत्यापन कार्यक्रम विवाहोत्सव का स्वरूप है। इसी आशय को गाकर व्यक्त किया जाता है। सम्भाषण, संबोधन और सम्मति व्यक्त करने के रूप में उत्सव सम्पन्न होता है। इसी के साथ-साथ दांपत्य संबंध के साथ-साथ एक परिवार मानव सहज दायित्वों, कर्तव्यों सहित मानव सहज उद्देश्य, जीवन सहज उद्देश्य के लिये अर्हिनिशी समझने, सोचने, करने, कराने के लिये मत देने के लिये संकल्प किया जाता है। विवाहोत्सव में भागीदारी निर्वाह करता हुआ हर व्यक्ति दांपत्य जीवन सफल होने की कामना सहित सम्मतियों को व्यक्त करने के रूप में प्रस्तुत होना सहज होता है। दाम्पत्य संबंध में सत्यापित व्यक्ति से कम अवस्था वाले जो भागीदारी निर्वाह किये रहते हैं वे सब नव दंपतियों के जीने की कला, विचार शैली और अनुभवों से सदा-सदा प्रेरणा पाने के लिये कामना व्यक्त करने के रूप में उत्सव में भागीदारी को निर्वाह करना सहज है। इस प्रकार उत्सव में सम्मिलित सभी आयु वर्ग के व्यक्तियों की भागीदारी अपने आप स्पष्ट होती है। यही विवाहोत्सव का तात्पर्य है। (अध्याय:6, पृष्ठ नंबर: 231)
  • ...उक्त चारों मौलिक अधिकार सूत्र में इंगित किया गया आशय तथ्य और प्रयोजन एक पाँचवे सूत्र के व्याप्ति में ही स्पष्ट हो चुका है। मौलिक अधिकार का प्रयोग जागृत मानव ही उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशील बना पाता है; अतएव मानव अपने अखण्डता, सार्वभौमता और अक्षुण्णता को बनाये रखने का दायित्व और कर्तव्य मानव में ही मानव में, से, के लिये सन्निहित है। इन सबका अथवा सभी प्रकार की सफलता जीवन जागृति ही है और जागृति पूर्णता ही है। जागृति और जागृति पूर्णता के अनन्तर ही मानव अपने अखण्डता, सार्वभौमता, अक्षुण्णता को सहज ही पहचानता है। फलत: निर्वाह करना स्वाभाविक हो जाता है। मनुष्य में ही जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने का वैभव प्रमाणित होता है। यह जागृति व जागृति पूर्णता का ही द्योतक है। संपूर्ण आयाम, कोण, दिशा परिप्रेक्ष्यों में जानने, मानने का प्रमाणों में दायित्व पहचानने, मानने, निर्वाह करने का वैभव प्रमाणित होता है। यह जागृति पूर्णता का ही द्योतक है। संपूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्यों में जानने, मानने का प्रमाणों में दायित्व पहचानने और निर्वाह करने के रूप में कर्तव्य करते हुए स्वयं स्फूर्त होता है। कर्तव्य से समृद्घि, दायित्व से समाधान निष्पन्न एवं प्रमाणित होता है। जानने, मानने के फलन में नियम और न्याय का संतुलन होना पाया जाता है। फलस्वरूप नित्य समाधान होता है। समाधान व्यवस्था का सूत्र है। इसका व्याख्या उक्त सभी मौलिक अधिकारों में व्याख्यायित हुई है। समस्या पूर्वक कोई मौलिक अधिकार वर्तमान होता ही नहीं है। इसी कारणवश हर व्यक्ति को जागृत होने की आवश्यकता बनी है। सभी विधाओं में मानव अपने को संतुलन बनाये रखने का न्याय और नियम में सामरस्यता ही है। फलस्वरूप समाधान, व्यवस्था उसकी अक्षुण्णता स्वाभाविक रूप में प्रमाणित होना सहज है। इसमें हर व्यक्ति अपना भागीदारी करना स्वाभाविक है; चाहत हर व्यक्ति में है ही। इसे सर्व-सुलभ बनाने के लिये मानवीयकृत शिक्षा योजना, जीवन विद्या योजना, परिवार मूलक स्वराज्य योजना सहज विधियों से सर्वमानव जागृत होना सदा-सदा बना रहेगा। इस प्रकार जागृति और जागृति पूर्णता को कार्य-व्यवहार, व्यवस्था के रूप में सतत् बनाये रखना ही अक्षुण्णता का तात्पर्य है। संपूर्ण मानव को मानवत्व के आधार पर समानता का अनुभव करना अखण्डता का तात्पर्य है। हर जागृत मनुष्य हर जागृत मनुष्य के साथ जो कुछ भी मैं समझता हूँ उसे सभी मानव समझा है या समझ सकता है; मैं जो कुछ सोचता हूँ, जो कुछ भी समाधान के रूप में सोचता हूँ ऐसा सर्वमानव सोचता है; समाधान और प्रामाणिकता के पक्ष में मैं जो कुछ भी बोल पाता हूँ और बोलता हूँ इसे सर्वमानव बोल सकता है अथवा बोलता है; जो कुछ भी मैं पाया हूँ उसे सर्वमानव पा सकता है, जो कुछ भी हम करते हैं उसे सर्वमानव कर सकता है। जितना भी हम जीने देकर जिया हूँ हर व्यक्ति जीने देकर जी सकता है; मैं व्यवस्था में जीता हूँ सर्वमानव व्यवस्था में जी सकता है या जियेगा। मैं समाधान सहज निरंतरता में सुखी हूँ। हर व्यक्ति समाधान सहज विधि से सुखी है या सुखी हो सकता है। मैं न्याय और नियमपूर्वक हर कार्य-व्यवहार को निश्चय करता हूँ और क्रियान्वयन करता हूँ वैसे ही हर व्यक्ति निश्चयन करता है और निश्चयन कर सकेगा। मैं प्रमाणिक हूँ हर व्यक्ति इस धरती पर प्रमाणिक होगा और प्रमाणिक हो सकता है। इस विधि से मानसिकता, विचार और समझदारी संपन्न होना है। ऐसा जीना ही मानव का परिभाषा मानवीयतापूर्ण आचरण सार्वभौम व्यवस्था व अखण्ड समाज और समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व का नित्य वैभव है। यही जागृत मानव समाज का स्वरूप कार्य-विचार और नजरिया है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 254-255)
  • दायित्व और कर्तव्य (अध्याय 8)
जागृत मानव सहज रूप में समझदारी के आधार पर ही सम्पूर्ण प्रकार के विचार करता हुआ, विचारों के आधार पर अथवा विचार शैली के आधार पर ही जीने की कला अथवा जीवन शैली ही सम्पूर्ण कार्यकलाप होना पाया जाता है। मूल समझ का स्वरूप अस्तित्व रूपी सह-अस्तित्व ही होना स्पष्ट हो चुका है। ऐसा समझ जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में संचेतना स्वरूप मानव में वर्तमान होना प्रमाणित है। यही मानव सहज जागृति का द्योतक है। प्रत्येक जागृत मानव संचेतनापूर्ण अथवा संचेतनशील रहता ही है। पूर्ण होने का तात्पर्य दिव्य मानव पद में सार्थक और प्रमाणित होता है और मानव तथा देव मानव परिष्कृत संचेतनशील रहता है। भ्रमित मानव अपरिष्कृत संवेदनशील रहता ही है। इसी कारणवश मानव में पाँच कोटियाँ सुस्पष्ट हो चुकी हैं। जागृति पूर्ण मानव पंरपरा मानव संतानों में ही देखने को मिलेगी। युवा-प्रौढ़ व्यक्तियों में भ्रम का सम्भावना ही समाप्त हो जाता हैं। परिष्कृत और परिष्कृतपूर्ण संचेतन सम्पन्न मानव परंपरा में दायित्व और कर्तव्य बोध होना स्वाभाविक है। संचेतना का तात्पर्य पूर्णता के अर्थ में चेतना है। चेतना का तात्पर्य ज्ञान और ज्ञान के स्वरूप में जानने-मानने-पहचानने एवं निर्वाह करने का प्रमाण है।
सम्पूर्ण प्रमाण वर्तमान में ही वैभवित होना देखा गया। संचेतना सहज विधि से जीवन शक्ति और बल को पूरक विधि से देने योग्य स्वरूप स्वयं में दायित्व है। व्यवहार और उत्पादन कार्यों में जीवन शक्तियों और बलों को अर्पित करना ही देने का तात्पर्य है। ऐसा दायित्व, कर्तव्यों के साथ ही अर्थात् व्यवहार, उत्पादन, व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी के साथ ही प्रमाणित होता है। यही कर्तव्य का स्वरूप और महिमा है। ऐसे कर्तव्य और दायित्व हर व्यक्ति में चेतना विकास पूर्वक स्वीकृत हैं। इसलिये जागृति के उपरान्त प्रमाणित होना सहज है। जागृत मानव में दायित्व और कर्तव्य पूरक विधि से सम्पन्न होता ही रहता है। 
मनुष्येत्तर तीनों प्रकृति में भी पूरकता नियम से सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न होता हुआ देखने को मिलता है। इनमें लक्ष्य तीनों अवस्थाओं में तीन स्वरूप में होना देखा गया है। पदार्थावस्था में परिणामानुषंगी सूत्र और व्याख्या है। यही प्राणावस्था में परिणाम सहित पुष्टि धर्म निहित रहना पाया जाता है। जीवावस्था में अस्तित्व, पुष्टि सहित जीने की आशा धर्म विद्यमान होना देखा गया है। इसलिये सम्पूर्ण जीवावस्था जीवनीक्रम सहित परिणाम, पुष्टि सहित जीने की आशा सहज लक्ष्य रूप में होना पाया जाता है। इसलिये जीवावस्था में जीने की आशा, लक्ष्य, सूत्र और व्याख्या प्रमाणित है। मानव में अस्तित्व, पुष्टि, जीने की आशा सहित सुख धर्मीयता स्पष्ट है। इसी के साथ अपरिष्कृत, परिष्कृतपूर्ण संचेतन सहज कार्यकलाप का वर्गीकरण भ्रम व जागृति रूप में करता हुआ मानव अपने-आप में स्पष्ट है। ऐसे मानव में स्वाभाविक रूप में सुख-लक्ष्य, सूत्र-व्याख्या का होना स्वाभाविक रहा है। ऐसी सुख लक्ष्य परिष्कृत संचेतना अथवा परिष्कृत पूर्ण संचेतना सहज विधि से समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाण सहित प्रमाणित होना पाया जाता है। मानव अपने आप में सुख धर्मी होने के आधार पर ही मानव संचेतना सहज अर्थात् जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने सहज विधि से समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाण रूप में दायित्व और कर्तव्यों का निर्वाह होना सहज है। इसी क्रम में जागृति सहज विधि से ही दायित्व और कर्तव्यों को सम्पन्न करना स्वत्व व स्वतंत्रता का द्योतक है। क्योंकि मानव का मानवीयतापूर्ण आचरण मानव में, से, के लिये स्वतंत्रता का प्रमाण है।
प्रमाण सहित ही हर मानव का सुखी होना सतत समीचीन है। सम्पूर्ण मानव में, से, के लिये प्रामाणिकता और प्रमाण ही सुख का स्रोत, सूत्र और व्याख्या है। जीवन ही जागृति पूर्वक मानव परंपरा में सुख का स्रोत होना पहले से स्पष्ट हो चुकी है। जागृति के पहले जीवन भ्रमित रहता है। भ्रमवश ही मानव जीवन बंधन में होता है। ऐसा बंधन भ्रमित आशा, विचार, इच्छा के रूप में होना सर्वेक्षित है। न्याय, धर्म (सर्वतोमुखी समाधान), सत्य (अस्तित्व में अनुभव) सहज विधि से प्रमाणित पूर्वक ही जागृत होना देखा गया है। जागृति पूर्वक ही हर मनुष्य दायित्व और कर्तव्य को निर्वाह कर पाता है और सुखी होता है। मौलिक अधिकार का प्रयोग अपने-आप में जागृति पूर्वक ही सम्पन्न होता है। हर मानव जागृति के लिये पात्र है। जागृति को परंपरा के रूप में स्थापित करना मानवीय शिक्षा-संस्कार-पूर्वक सहज है। इस विधि से हर मनुष्य जागृत होने का स्रोत जागृत मानव परंपरा ही है। यह स्पष्ट होता है। 
जागृति सहज कार्यक्रम दायित्व और कर्तव्य के आधार पर ही सुयोजित हो पाता है। ऐसे सुयोजन परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के रूप में सर्वसुलभ होता है। जागृति पूर्वक जीने की कला ही सुयोजना का साक्ष्य है। परिवार मूलक स्वराज्य-व्यवस्था में व्यवस्थापूर्वक ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी सम्पन्न होना पाया जाता है। इसी सत्यवश, यही सत्यता मानव परंपरा में सर्वतोमुखी समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व के रूप में प्रमाणित होता है; जिसका अक्षुण्णता सहज होना पाया जाता है। मानव का अभीष्ट सदा-सदा से ही और सदा-सदा के लिये शुभ ही शुभ होना देखा गया है। ऐसा सार्वभौम शुभ अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था रूपी कार्यक्रम ही है। ऐसा कार्यक्रम स्वाभाविक रूप में ही जागृति सहज शिक्षा-संस्कार विधि से स्पष्ट हो जाती है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार अपने-आप में अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन, मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) के रूप में स्पष्ट हो जाती है। यही सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सम्पन्नता सहित होने वाले अध्ययन, अवधारणा, अनुभव है। सह-अस्तित्व में अनुभव के आधार पर ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का प्रमाण मानव परंपरा में ही प्रमाणित होना समीचीन है। यही जागृति का द्योतक है। मानवीयतापूर्ण परंपरा का प्रमाण मानवीय शिक्षा-संस्कार सुलभता, न्याय-सुरक्षा सुलभता, विनिमय-कोष सुलभता, उत्पादन-कार्य सुलभता और स्वास्थ्य-संयम सुलभता ही है। इन्हीं पाँच आयामों के योगफल में संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था अपने-आप प्रमाणित होता है और अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का स्वरूप और उसकी निरंतरता बना ही रहता है। ऐसे भागीदारी में दायित्व, कर्तव्य का प्रमाण हर मानव में, से, के लिए सहज सुलभ होता है।
दायित्व बोध और उसके अनुरूप कार्य प्रणालियाँ; सम्बन्ध, मूल्य-मूल्यांकन, उभयतृप्ति, संतुलन और उसकी निरंतरता के रूप में वर्तमान होना पाया जाता है। इसी के साथ तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग, सुरक्षा भी दायित्वों में समाहित रहता ही है। कर्तव्य का स्वरूप आवश्यकता से अधिक उत्पादन, लाभ-हानि मुक्त विनिमय कार्यों में भागीदारी के रूप में सम्पन्न होना देखा गया है। दायित्वों और कर्तव्यों को निर्वाह करने के क्रम में स्वास्थ्य-संयम एक अनिवार्य क्रियाकलाप है जिसको आगे अध्याय में स्पष्ट किया गया है ।इस प्रकार दायित्व बोध के लिये जानना, मानना और कर्तव्य बोध के लिये पहचानना, निर्वाह करना एक अनिवार्य स्थिति है। इस स्थिति में कार्यरत, व्यवहाररत रहना ही जागृत परंपरा सहज महिमा है। परंपरा सहज महिमा ही मानव संतान में, से, के लिये अत्यधिक प्रभावशाली होता है।
मानव परंपरा अपने में बहुआयामी अभिव्यक्ति होना सुदूर विगत से अभी तक और अभी से सुदूर आगत तक होना दिखाई पड़ता है। मानव परंपरा में शिक्षा-संस्कारादि पाँचो आयाम सहित ही स्वस्थ परंपरा होना स्पष्ट हो चुका है। इन्हीं पाँचों आयामों में हर व्यक्ति कार्यरत होना ही बहुआयामी अभिव्यक्ति का तात्पर्य है। इसी क्रम में विभिन्न दृष्टिकोणों, निश्चित दिशाओं और हर देशकाल में प्रमाणित होने योग्य इकाई मानव है अर्थात् सभी आयामों में प्रमाणित होने योग्य इकाई मानव है। ऐसे प्रमाणित होने के क्रम में मौलिक रूप में अधिकार स्वत्व स्वतंत्रता पूर्वक अर्थात् स्वयं स्फूर्त विधि से प्रयोग करना स्वाभाविक रहता ही है। साथ ही जागृति व जागृतिपूर्ण परंपरा में ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होता है।
जागृति ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सहज परंपरा रूप में मानव संतानों को सुलभ हो जाती है। शिक्षा-स्वरूप में सह-अस्तित्व विधि से प्रयोजन कार्य-विश्लेषण विधि को अपनाना सहज है। सह-अस्तित्व विधि से विज्ञान विधियाँ सकारात्मक होना पाया जाता है। अन्यथा नकारात्मक होती है। सकारात्मक का आधार सह-अस्तित्व और व्यवस्था है। इसी आधार पर होने वाली स्पष्ट अवधारणाएँ निष्ठा का सूत्र होना देखा गया। निष्ठा का तात्पर्य वर्तमान में विश्वासपूर्वक किये जाने वाले क्रियाकलाप हैं। सभी क्रियाकलाप व्यवहार, व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज प्रमाण है। इन्हीं व्यवहार वैभव मानव में स्वत्व स्वतंत्रता अधिकार ही स्वराज्य व्यवस्था कहलाता है। मूलत: स्वराज्य व्यवस्था मानव का समझ प्रक्रिया का संयुक्त वैभव ही है - वह भी जागृति पूर्ण वैभव है। अतएव हम जागृतिपूर्वक मानव लक्ष्य एवं जीवन लक्ष्यों को सफल बनाते हैं। जो दायित्व और कर्तव्य पूर्वक ही सफल होता है। इसलिये न्यायपूर्ण व्यवहार कार्यों में दायित्व और कर्तव्य मूल्यांकित होता है। इसी के साथ जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना सुलभ होता है। इसी विधि से न्याय सुलभता का मार्ग प्रशस्त होता है। न्याय सुलभता सर्व स्वीकृति तथ्य है। न्यायिक विधि से अखण्ड समाज, पाँचों आयामों में स्वराज्य विधि से सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होना स्वाभाविक है। हर मानव अपने को जागृतिपूर्वक इन दोनों मुद्दे में अपने उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता को मूल्यांकित करता है। यही स्वस्थ सामाजिक मानव और व्यक्तित्व का तात्पर्य है। यह हर मानव की आवश्यकता है। इस विधि से सम्पूर्ण दायित्वों, कर्तव्यों को उसके प्रयोजन सहित प्रमाणित करना, मूल्यांकित करना सहज है। (अध्याय: 8, पृष्ठ नंबर: 262-269)
  • मानव संबंधों को सात प्रकार से नाम सहित प्रयोजनों को इंगित कराया है। संबंध क्रम से पोषण, संरक्षण, अभ्युदय, जागृति, प्रामाणिकता, जिज्ञासा, यतित्व, सतीत्व, विकास-प्रगति, दायित्व-कर्तव्य प्रयोजनों का स्वरूप है। इन प्रयोजनों के अर्थ में हर संबंधों का कार्यकलाप साक्षित होना ही विधि है। दायित्व और कर्तव्य के सम्बन्ध में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी, परिवार और समाज में भागीदारी एक आवश्यकीय स्थिति और गति होना स्पष्ट किया जा चुका है। यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि दायित्व और कर्तव्यों के साथ ही मौलिक अधिकारों का प्रयोग सार्थक होता है। जितने भी प्रयोजन है वह सब मानव कुल में ही प्रमाणित होता है। वह 1. माता - पिता, 2. भाई - बहन, 3. गुरू - शिष्य,       4. मित्र, 5. पति - पत्नी, 6. स्वामी (साथी) - सेवक (सहयोगी), 7. पुत्र - पुत्री। इस प्रकार से 7 संबंध। इसमें से पति-पत्नी संबंधों को छोड़कर बाकी सभी सम्बन्ध पुत्र-पुत्रीवत्, माता-पितावत्, गुरूवत्, शिष्यवत्, मित्रवत्, भाई-बहिनवत्, स्वामी-सेवकवत् के रूप में पहचाना जाना सहज है। इसमें सर्वाधिक अथवा विशाल रूप में होने वाले प्रतिष्ठा को मित्र के रूप में पहचाना जाना स्वाभाविक है। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 271)
  • इन सभी सम्बन्धों के साथ सार्थकता अथवा प्रयोजनों की अपेक्षा परस्पर स्वीकृत रहा करता है जैसा - माता-पिता से अपेक्षा जागृति, प्रामाणिकता सहित समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व का होना प्रत्येक संतानों में अपेक्षित-प्रतीक्षित रूप में मिलता है। हर संतान के साथ माता-पिता की अपेक्षा जागृति, प्रामाणिकता सहित समाधान, कर्तव्य और दायित्व सहज निष्ठा का अपेक्षा, प्रतीक्षा, आवश्यकता के रूप में सर्वेक्षित होता है। हर शिष्य अपने गुरू से प्रामाणिकता, समाधान और वात्सल्य की अपेक्षा रखता है। हर विद्यार्थी से गुरू की अपेक्षाएं तीव्र जिज्ञासा, ग्राह्यता सहित अवधारणाओं के रूप में देखना बना ही रहता है। (अध्याय:9 , पृष्ठ नंबर:271-272)
  • पति-पत्नी सम्बन्धों में परस्पर व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी परिवार मानव का सम्पूर्ण दायित्व-कर्तव्य, अपेक्षा, प्रतीक्षा बना ही रहता है। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 272)
  • स्वामी (साथी)-सेवक (सहयोगी) सम्बन्ध में स्वयं स्वीकृत प्रणाली, स्वयं स्वीकृत विधि से व्यवस्था में भागीदारी निर्वहन के आधार पर घोषणा कार्यप्रणाली है। इस क्रम में भाई सम्बोधन या बहन सम्बोधन समुचित रहता है। इसी की आवश्यकता है। व्यवस्था सम्बन्ध में परिवार सभा से विश्व परिवार सभा तक की समान सम्बोधन होना और कार्यों की समानता भी प्रमाणित होना पाया जाता है। यह स्वाभाविक विधि है हर सभा में एक प्रधान व्यक्ति को निर्वाचित कर लेना, पहचानना, अधिकार सम्पन्न रहना एक आवश्यकता बनी रहती है। यह जनतांत्रिक प्रणाली, पद्घति, नीतियों को प्रमाणित करने का गठन कार्य है। अतएव सभा प्रणाली में भाई-बहन-मित्र सम्बोधन में समानता, दायित्वों, कर्तव्यों का वहन करने में स्वयं स्फूर्त स्वीकृत विधि से सम्पादित होता है। यही जनतांत्रिकता का तात्पर्य है। इसी विधि से विरोध विहीन, विवाद विहीन, सामरस्यता और समाधान पूर्ण अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में कार्यरत रहना पाया जाता है। इसकी आवश्यकता सर्वमानव में होना पाया जाता है। इसकी नित्य समीचीनता जागृति विधि पूर्वक स्पष्ट हुआ है। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 272-273)
  • सम्बन्ध का तात्पर्य स्वयं में पूर्णता सहित हर मानव में पूर्णता के अर्थ में अनुबंधित रहना स्वाभाविक है। यह मानव में ही प्रमाणित होने वाला मौलिक अभिव्यक्ति है। यही ज्ञानावस्था का परिचायक है। इसी के साथ मानव को, इसकी अपेक्षा, आवश्यकता नियति सहज विधि से देखने को मिलता है। अर्थात् मानव संबंध के अनुरूप प्रयोजनों को प्रमाणित करने में निष्ठा स्वयं स्फूर्त होता है। अपेक्षाओं के अनुसार सार्थक होना, चरितार्थ होना ही सम्बन्धों का सम्पूर्ण प्रयोजन है। प्रयोजनों का सूत्र अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था, परिवार मानव और स्वायत्त मानव रूप में ही मानव परंपरा में देखने को मिलता है। यही प्रयोजनों का मूल रूप है। इसे ज्ञानावस्था का स्वरूप भी कहा जा सकता है। जागृत मानव परंपरा में यह सार्थकता का स्वरूप शिक्षा-संस्कारपूर्वक परंपरा में स्थापित होता ही रहेगा। जागृत शिक्षा-संस्कार के सम्बन्ध में स्पष्ट किया जा चुका है। जागृतिपूर्ण परंपरा अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व विधि से अनुप्राणित रहने के आधार पर ही जागृत मानव परंपरा का अक्षुण्णता समीचीन रहना पाया जाता है। अतएव सम्पूर्ण सम्बन्ध और उसका सम्बोधन निश्चित प्रयोजन के अर्थ में अपेक्षित रहना ही सम्बोधन का तात्पर्य है। इसमें हर व्यक्ति जागृत रहना यह प्राथमिक दायित्व है। इन्हीं दायित्वों, मौलिक अधिकारों का प्रयोजन सहज ही सफल हो पाता है। फलस्वरूप मानव परंपरा में जीने की कला विधि के रूप में प्रमाणित होता है। विधि का प्रमाण स्वयं सम्बन्ध-मूल्य-मूल्यांकन-उभयतृप्ति, मानव परिभाषा के अनुरूप हर मानव अपने मौलिक अधिकार रूपी स्वतंत्रता का प्रयोग करना, तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा करना और स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य-व्यवहार में निष्ठान्वित रहना विधि है। यही सम्पूर्ण उत्सवों का आधार होना पाया जाता है। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 274)
  • जन्मदिनोत्सव संस्कार - जन्मदिनोत्सव को सम्पादित करने की उमंग, उमंग का तात्पर्य उत्साह और प्रसन्नता सहित आशय को व्यक्त करने से है। आशय जन्म दिवस का स्मरण बीते हुए वर्षों की गणना से सम्बन्धित रहता है। यह सर्वविदित है। इस क्रम में शैशवावस्था तक जीवन जागृति कामना सहित मानवीयतापूर्ण आचरण सम्पन्न होने, जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान में पारंगत होने के कामनाओं सहित चर्चा, वार्तालाप, कामना गीत के साथ गायन, नृत्य, वाद्य के साथ उत्सव सम्पन्न करने का कार्यक्रम हर शैशवावस्था तक उत्सव में भाग लेने वाले हर व्यक्ति से हर व्यक्ति को सम्मान व्यक्त करता हुआ शिशु और आशय आकांक्षा सहित आशीषों को प्रस्तुत करने वाले हर व्यक्ति उत्सव में भागीदारी के रूप में देखने को मिलता है। ऐसे उत्सव मानव सहज जागृति परंपरा का ही पुनर्उद्गार ही रहता है। ऐसी जन्मदिनोत्सव को जैसा ही शैशवावस्था से कौमार्य अवस्था आता है अथवा जिस जन्मदिनोत्सव तक अपने मूल्यांकन करने में सक्षम हो जाते हैं, जिसको अभिभावक भले प्रकार से मूल्यांकन कर सकते हैं। इसी जन्मदिवस से हर मानव संतान से अपना मूल्यांकन  कराने और सत्यापित करने की विधि अपनाना आवश्यक रहता ही है। ऐसा सत्यापन सहज अभिव्यक्ति की पुष्टि में उत्साह और प्रसन्नता को व्यक्त करने का समारोह बंधु-बांधव और अभिभावक मित्रों के साथ-साथ अनुभव करना बनता है। ऐसी सम्पूर्ण अनुभूति का आधार का मापदण्ड जीवन जागृति, मानवीयतापूर्ण आचरण शैशवावस्था  से किया गया आज्ञापालन, सहयोगवादी कार्यकलाप, अनुसरण किया गया कार्यकलाप अर्थात् अभिभावक एवं आचार्यों के साथ किया गया अनुसरण क्रियाकलाप और उसके प्रयोजनों के साथ उन-उनके सभी अभिमत किशोरावस्था से ही व्यक्त होना स्वाभाविक रहता ही है। स्वयं स्फूर्त आशा, आकांक्षा के संदर्भ में भी प्रोत्साहनपूर्वक संप्रेषित करने का अवसर प्रदान करना उत्सव समारोह का एक कर्तव्य के रूप में होना पाया जाता है। मुख्य रूप में जिनका जन्मदिनोत्सव मनाया जाता है उनका उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजन सम्बन्धी मूल्यांकन पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान आकर्षित करने का कार्यक्रम जन्मदिनोत्सव का प्रधान उद्देश्य और कार्यक्रम है। इस प्रकार जन्मदिनोत्सव के सम्पूर्ण अवयव स्पष्ट हो जाता हैं। इसी के साथ यह भी परस्पर प्रेरणा का आधार होता है कि जन्मदिनोत्सव जिनका मनाया जाता है उस समय उनका साथी, मित्र, भाई सब अपने-अपने सत्यापन विधि को अपनाना मानव परंपरा के लिये आवश्यकीय मौलिक प्रयोजन सिद्घ होना सहज है। (अध्याय:9 , पृष्ठ नंबर:280-281)
  • जिस समय में शिक्षा-संस्कार सम्पन्न हो जाते हैं उस समय में जागृति का प्रमाण सभा, उत्सव सभा के बीच हर पारंगत नर-नारी अपने को स्वायत्त मानव के रूप में सत्यापित करने, परिवार मानव के रूप में कर्तव्य और दायित्वशील होने और अखण्ड समाज-सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने में अपने निष्ठा को सत्यापित करने के रूप में उत्सव समारोह को सम्पन्न किया रहना मानव परंपरा में एक आवश्यकता है। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 285)
  • ...इसके उपरान्त विवाहोत्सव के मार्गदर्शक व्यक्ति के अनुसार सुखासन पर बैठे हुए वधु-वर दोनों पारी-पारी से बैठे हुए स्वयं को स्वायत्त मानव के रूप में होने का सत्यापन करेंगे और परिवार मानव के रूप में जीने के संकल्प को दृढ़ता से घोषित करेंगे। इसके उपरान्त
1. दोनों अपने-अपने माता-पिता का नाम सहित व्यवस्था मानव के रूप में जीने का संकल्प लेगें।
2. परिवार मानव के रूप में जीने का संकल्प करेंगे।
3. दोनों बारी-बारी से कायिक-वाचिक-मानसिक, कृत कारित, अनुमोदित सभी कार्य-व्यवहार विचारों में एक दूसरे के पूरक होने का संकल्प करेंगे।
4. परिवार तथा अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी का दायित्व कर्तव्यों को निर्वाह करने का संकल्प करेंगे।
5. तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा करने का संकल्प करेंगे।
6. सम्बन्ध-मूल्य-मूल्यांकन-उभयतृप्ति को प्रमाणित करने का संकल्प करेंगे।
7. मानवीयतापूर्ण आचरण में पूर्ण निष्ठा बरतने का संकल्प करेंगे। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 291-292)
  • ग्राम-मुहल्ला सभा से मनोनीत-अनुशासित पाँच समितियों का कार्यरत रहना स्वराज्य व्यवस्था का वैभव है। इन वैभव के सफलताओं को देखने सुनने के लिये पूरे ग्राम मुहल्लावासी को उत्सुक रहना आवश्यक है। ग्राम सभा से निश्चित नियंत्रित विधि से एक-एक समिति का मूल्यांकन कार्यक्रम का तौर-तरीका जो अपनाये गये थे उसके आधार पर सफलता का समारोह सम्पन्न करना आवश्यक रहता ही है। इसका समयावधि ग्राम सभा के समयानुसार सम्पन्न होना व्यवहारिक है। इसी के अनुसार न्याय-सुरक्षा समिति के सफलताओं को समीक्षा कर पूरा ग्रामवासियों को अवगाहन कराने का कार्य सम्पन्न किये जाने के रूप में देखने को मिलता है। इससे सम्पूर्ण ग्रामवासी न्याय-सुरक्षा सुलभ होने में विश्वस्त एवं आश्वस्त होने का अवसर समारोह समय में स्वाभाविक रूप में देखने को मिलता है। इसी उमंग के साथ भविष्य के प्रति भरोसा करना स्वाभाविक होता है। वर्तमान तक की सफलता भविष्य के प्रति आश्वस्तता का हर संगम स्थिति, गति, उत्साह और प्रसन्नता के स्वरूप में ही प्रमाणित होना देखा गया है। इसी प्रकार उत्पादन-कार्य समिति, विनिमय-कोष समिति, स्वास्थ्य-संयम कार्य समिति, मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार समितियों का वर्तमान तक के सफलता, भविष्य में आश्वस्त होने का सफल योजना के अवगाहन तक का समारोह प्रसन्नता में अभिभूत होना, स्वाभाविक है। ऐसी अभिभूति के साथ ही हर्ष ध्वनि सफलता का कीर्ति गायन, भविष्य में सफलता का आकांक्षा, सम्भावना सहित कर्तव्यों और दायित्वों की स्वीकृति और उसका उद्गार सहित हर्ष ध्वनि गीत-संगीत का वातावरण बनाया जाना समारोह-वैभव का प्रतिष्ठा रहेगा। अस्तु, ग्राम सभा बनाम पाँचों समितियों सहित सफलता का आंकलन अग्रिम योजनाओं का प्रकाशन समारोह का सारतत्व रहेगा। यही व्यवस्था मूलक समारोहों की महिमा है। इसी प्रकार हर स्तरीय समितियों में समारोह कार्य सम्पन्न होना स्वाभाविक रहेगा। यह विश्व परिवार पर्यन्त व्यवहारान्वयन होना देखने को मिलता है। सम्पूर्ण मानव इस धरती मे समारोह और उत्साहपूर्वक संतुष्ट होते हैं । इसकी नित्य समीचीनता जागृति परंपरा पर्यन्त बनी ही रहेगी। (अध्याय:9 , पृष्ठ नंबर: 295-296)
  • समाज शास्त्र में प्रधानत: मूल्यांकन समाज और व्यवस्था का ही होना पाया जाता है। समाज गति मूलत: नियम और न्याय के समान में होना देखा गया है। इसका संतुलन रूप व्यवस्था के रूप में अपने-आप प्रमाणित होना देखा गया है। क्योंकि नियम और न्याय के तृप्ति बिन्दु में ही समाधान का होना पाया जाता है। नियम और न्यायपूर्वक ही कर्तव्य और दायित्व होता है। यह व्यवस्था कार्य में और व्यवहार कार्य में वर्तमान होना आवश्यक देखा गया है। (अध्याय: 10, पृष्ठ नंबर: 297)
  • मनुष्य का सम्पूर्ण वर्चस्व स्वायत्त मानव और परिवार मानव के रूप में मूल्यांकित हो जाता है। जो मानवीयतापूर्ण आचरण का ही प्रमाण है। दूसरा समझे हुए को समझाने की विधि में अर्थात् जीवन-ज्ञान, अस्तित्व दर्शन को विवेक, विज्ञान, व्यवहार सूत्रों सहित समझाने की विधि से, समझा हुआ प्रमाणित होता है। इस प्रकार हर विद्यार्थी अपने में समझा हुआ को समझाकर प्रमाणित होने की व्यवस्था मानवीय शिक्षा-संस्कारों में सर्वसुलभ होता है। एक विद्यार्थी दूसरे को समझाने के उपरान्त समझाया हुआ को स्वयं ही मूल्यांकित करेगा। फलस्वरूप सभी विद्यार्थियों में पारंगत विधि होना स्पष्ट हो पाता है। तीसरे में किया हुआ को कराने की विधि से भी हर विद्यार्थी प्रमाणित होना उसका मूल्यांकन स्वयं करना मानवीय शिक्षा संस्थान में सहज रूप में रहता ही है। इसका मूलभूत स्वायत्त मानव परिवार मानव के रूप में कार्य-व्यवहार करता हुआ शिक्षक, आचार्य, विद्वान ही शिक्षा सहज वस्तु प्रक्रिया, प्रणाली, पद्घति, नीति का धारक-वाहक होना पाया जाता है। इसकी अक्षुण्णता बना ही रहता है। इस प्रकार शिक्षा का धारक-वाहक रूपी आचार्यों से शिक्षित होने के उपरान्त हर विद्यार्थी अपना मूल्यांकन करने की स्थिति में उभयतृप्ति का होना देखा जाता है। यथा-विद्यार्थी और आचार्यों के परस्परता में यह स्पष्ट हो जाता है। इस मूल्यांकन प्रणाली में दायित्व और कर्तव्य बोध सुदूर आगत तक स्वीकृत होना स्वाभाविक होता है। यही संस्कार का मौलिक स्वरूप है। इसी सार्वभौम आधार पर हर शिक्षित व्यक्ति मौलिक अधिकारों को स्वतंत्रतापूर्वक प्रयोग करने में सफल हो जाता है। (अध्याय: 10, पृष्ठ नंबर:300-301)
  • न्याय-सुरक्षा का मूल्यांकन - मूल्यों का मूल्यांकन क्रम में न्याय-सुरक्षा स्वाभाविक रूप में सार्थक होना पाया जाता है। सम्बन्धों का पहचान के साथ ही मूल्यों का निर्वाह करना स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह जागृत मानव का सार्वभौम प्रमाण है। मूल्यों का निर्वाह क्रम में अर्पण, समर्पण, पोषण, संरक्षण सहज रूप में ही प्रमाणित हो पाता है। जागृत का ही जागृतिशील इकाई को पहचानना-निर्वाह करना एक दायित्व है। इसी दायित्व के आधार पर जिनके साथ सम्बन्धों का निर्वाह होता है। ऊपर कहे चार सूत्रों में से कोई न कोई सूत्र सह-अस्तित्व सहज वर्तमान रहता ही है। इसलिये परस्पर सुरक्षा समीचीन रहता है और प्रमाणित रहता है। सुरक्षा का तात्पर्य यही हुआ अर्पण, समर्पण, पोषण, संरक्षण। यह चारों सूत्र विधि से प्रमाण, समाधान, समृद्घि सम्पन्न परिवार मानव से ही प्रावधानित होना पाया जाता है। अर्पण, समर्पण तब तक भावी रहता है जब तक संतान अपने स्वायत्तता और परिवार मानव प्रतिष्ठा को प्रमाणित नहीं करता है। अर्पण-समर्पण का दूसरा स्थिति कोई दूसरा रोगी हो जाए उसके साथ अर्पण, समर्पण होने का सूत्र क्रियाशील होना पाया जाता है। तीसरा स्थिति यही है किसी देश में प्राकृतिक प्रकोप जैसे-चक्रवात, भूकंप, तूफान, ज्वालामुखी, उल्कापात, शिलापात, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, से पीड़ित लोगों के साथ अर्पण-समर्पण का सूत्र क्रियाशील होना पाया जाता है। ऐसे अर्पण-समर्पण से किसी का पोषण और संरक्षण प्रमाणित होता है यही सुरक्षा का तात्पर्य है। इस प्रकार पोषण शरीर पक्ष को, संरक्षण मानसिकता विचार पक्ष को विश्वस्त कर देता है। यही परस्परता में समाधान, समृद्घि, सम्पन्न मानव परंपरा में होने वाली सुरक्षा कार्य विधि अपने-आप स्पष्ट है। (अध्याय: 10, पृष्ठ नंबर: 301)
  • यह तथ्य पहले स्पष्ट हो चुका है कि स्वायत्त मानव शिक्षा-संस्कार पूर्वक विधिवत् दीक्षित होना, सर्वसुलभ होना यह जागृत मानव परंपरा का देन के रूप में विदित हो चुकी है। यही प्रधान रूप में शिक्षा-संस्कार पूर्वक सार्वभौमता को प्रमाणित करता है। यही स्वायत्तता को प्रमाणित करता है। इसी के साथ-साथ यह भी सर्वेक्षित तथ्य है कि हर मानव संतान में स्वायत्तता की आवश्यकता शैशव अवस्था से ही प्रकाशित रहता है क्योंकि हर मानव संतान न्याय का अपेक्षा रखता ही है, सही कार्य-व्यवहार करना चाहता ही है और सत्यवक्ता होने में निष्ठा प्रदर्शित करता ही है। यही बुनियादी अभीप्सा का द्योतक है। बुनियादी अभीप्सा की तुष्टि बिन्दु जागृति, प्रामाणिकता के रूप में सह-अस्तित्व रूपी परम सत्य बोध सहित प्रमाणित होना देखा गया है। सार्वभौमता (अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था) में भागीदारी से ही सही कार्य-व्यवहार करने का प्रमाण होना देखा गया है। समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व सुलभता के रूप में न्याय सुलभता के वैभव को देखा गया है। इस प्रकार शैशव अवस्था से ही जीवन सहज अभीप्सा प्रकाशित होता ही है। इसके लिये आवश्यकीय स्रोत, प्रक्रिया, प्रणाली और नीति मानव परंपरा में सुलभ होने के आधार पर ही हर मानव संतान का अभीप्सा सफलीभूत होना सहज और समीचीन है। इस प्रकार स्वायत्त मानव, परिवार मानव अपने परिभाषा में ही सार्वभौमता में भागीदारी का स्वरूप ही है। अतएव  ऐसी भागीदारी दायित्व और कर्तव्य में परिगणित होने के कारण हर व्यक्ति भागीदार होने का अर्हता को बनाये रखता है। ऐसी भागीदारी का स्वयं स्फूर्त होना ही जागृति की महिमा है। इस प्रकार विनिमय कोष कार्य में भागीदारी के फलस्वरूप समाधान और उसकी निरंतरता का प्रमाण होना स्वाभाविक है। यही व्यवस्था में भागीदार होने का अथवा समग्र व्यवस्था में भागीदार होने का फल है अथवा वैभव है। इस विधि से भी विनिमय कोष आवर्तनशील विधि के साथ अपने को सफल बनाना सहज सिद्ध होता है। (अध्याय:10 , पृष्ठ नंबर: 311-313)


स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : आवर्तनशील अर्थशास्त्र

आवर्तनशील अर्थशास्त्र (संस्करण:2009)
  • ...उक्त विधि से सह-अस्तित्व सहज रूप में ही नित्य प्रभावी होना पाया जाता है फलस्वरूप सार्वभौम शुभ परस्पर पूरक होना सहज है। समाधान का प्रमाण मानव के सर्वतोमुखी शुभ की अभिव्यक्ति में, संप्रेषणा में और प्रकाशन में सम्पन्न होने वाली फलन है। सर्वाधिक रूप में यही अभी तक देखने में मिला है कि मानव ही मानव के लिए समस्या का प्रधान कारण है। व्यक्तिवादी समुदायवादी विधि से प्रत्येक मानव समस्याओं को पालता है, पोषता है और वितरण किया करता है। परिवार मानव के रूप में प्रत्येक व्यक्ति समाधान को पालता है पोषता है और वितरित करता है, क्योंकि जो जिसके पास रहता है वह उसी को बंटन करता है। स्वायत्त मानव ही परिवार मानव के रूप में प्रमाणित हो पाता है। स्वायत्त मानव का तात्पर्य स्वयं स्फूर्त विधि से व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबी, होने की अर्हता से है। यह प्रत्येक व्यक्ति में सह-अस्तित्व दर्शनज्ञान जीवन ज्ञान जैसी परम ज्ञान, अस्तित्व-दर्शन जैसी परम-दर्शन और मानवीयतापूर्ण आचरण रूपी परम आचरण अध्ययन और संस्कार विधि से स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक और व्यवसाय में स्वालंबन के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है, पाया गया है। इसी विधि से परिवार मानव का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। इसे अध्ययन विधि से लोकव्यापीकरण करना मानवीयतापूर्ण परंपरा का कर्तव्य और दायित्व है। इसी क्रम में आवर्तनशील अर्थव्यवस्था अवश्यंभावी है। (अध्याय: 2, पृष्ठ नंबर: 29-30)
  • मानवीय शिक्षा-संस्कार से स्वायत्त मानव, स्वायत्त मानवों से स्वायत्त परिवार, स्वायत्त परिवार व्यवस्था से स्वायत्त ग्राम परिवार व्यवस्था, ग्राम समूह परिवार व्यवस्था क्रम में विश्व परिवार व्यवस्था को पाना सहज है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा की संपूर्णता अपने आप में जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान ही है। अपने आप का तात्पर्य मानव अपना ही निरीक्षण-परीक्षणपूर्वक ज्ञान सम्पन्न, दर्शन सम्पन्न, आचरण सम्पन्न होने से है। दूसरी विधि से अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में परमाणु में विकास, गठनपूर्णता, जीवनी क्रम, जीवन का कार्यकलाप, जीवन जागृति क्रम, जीवन जागृति, क्रियापूर्णता उसकी निरंतरता और प्रामाणिकता (जागृति पूर्णता) उसकी निरंतरता दृष्टापद से है। इस प्रकार मानवीय शिक्षा का तथ्य अथ से इति तक समझ में आता है। इसी समझदारी के आधार पर हर मानव अपने में परीक्षण, निरीक्षण करने में समर्थ होता है। फलस्वरूप स्वायत्त परिवार व्यवस्था से विश्व परिवार व्यवस्था तक हम अच्छी तरह से सार्वभौमता, अक्षुण्णता को अनुभव कर सकते हैं। इस विधि से सेवा, व्यवस्था के अंगभूत कर्तव्य के रूप में, व्यवस्था दायित्व के रूप में, उत्पादन आवश्यकता, उपयोगिता, सदुपयोगिता के रूप में, परिवार व्यवहार सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन अर्पण, समर्पण और उभयतृप्ति के रूप में वर्तमान होना पाया जाता है। यह अधिकांश मानव में अपेक्षा भी है। इसी विधि से धरती की संपदा संतुलन विधि से सदुपयोग होना स्वाभाविक है, अर्थ का सदुपयोग होना ही आवर्तनशीलता है। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर:190-191)
  • व्यवस्था क्रम में ही परिवार और समाज अपने अखण्डता को पूर्ण विश्वास, सह-अस्तित्व, समृद्घि, समाधान सहित प्रमाणित कर पाता है। उपर कहे हुए सम्पूर्ण सभाओं के स्वरूप और विस्तार के आधार पर कर्तव्य और दायित्व, परिवार व्यवहार परंपराएँ मानवीयतापूर्ण विधि से निर्वाह होना स्वाभाविक है। निर्धारित होना, स्वीकृत होना जागृति के आधार पर होता है। जागृति का स्रोत जागृत मानव परंपरा ही होना निश्चित है। इसी से अर्थात् इस जागृत परंपरा विधि से ही संग्रह, द्वेष, भोग-लिप्सा, शोषण, घूसखोरी, बिचौलियापन, प्रदूषण, जनसंख्या वृद्घि सभी विधाओं से आंकलित असमानताएँ सर्वथा दूर होकर मानवत्व के आधार पर हर मानव के साथ सम्पूर्ण मानव का समानता, स्वायत्त परिवार के आधार पर समाधान, समृद्घि सहज तृप्ति में समानता, विश्व मानव परिवार में भागीदारी के आधार पर सह-अस्तित्व और वर्तमान में विश्वास, सार्थक हो जा जाता है। फलत: ग्राम और क्षेत्रादि धरती, उससे होने वाली सम्पूर्ण साधन स्रोतों का निर्धारण के आधार पर कितने संख्या में जीने योग्य ग्राम और क्षेत्र हैं अथवा समृद्घि पूर्वक जीने योग्य ग्राम और क्षेत्र हैं, यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। इसी के साथ-साथ जन बल पर और तकनीकी बल पर आधारित युद्घ विचार का उन्मूलन होगा, अभयता पूर्ण अर्थात् वर्तमान में विश्वासपूर्ण विधि से सर्वमानव जीने देने और जीने की विधि समीचीन है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर:191-192)
  • उपयोगिता सहज प्रवृत्ति, कार्य और प्रयोजन ऊपर कहे  हुए तथ्यों के आधार पर स्पष्ट हो चुकी है और उक्त विश्लेषणों से और तथ्यों को निर्देशित करने के प्रयासों से यह भी स्पष्ट हुई है कि मानव में, से, के लिए अर्थशास्त्र का अध्ययन है। मानव का सार्थक स्वरूप समाधान, समृद्घि, अभय और सह-अस्तित्व एवं उसकी निरंतर गति ही है। मानव परंपरा का नित्य गरिमा और महिमा स्वरूप अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था ही है। इन्हीं में भागीदारी प्रत्येक व्यक्ति में, से, के लिए दायित्व और कर्तव्य रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। यही प्रत्येक मानव वर्तमान में विश्वासपूर्वक जीने की कला है। अतएव यही निष्कर्ष सुस्पष्ट है स्वयं व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के क्रम में ही अर्थशास्त्र का चिन्तन होना, अध्ययन होना और जिसका लोकव्यापीकरण होना मानवीयतापूर्ण मानव परंपरा के लिए अनिवार्य स्थिति है। मानव से सम्पादित होने वाली अर्थात अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन के रूप में व्यक्त होने वाले संपूर्ण व्यवहार कार्यकलाप, जीने की कला है। ऐसे जीने की कला में उपयोगिताएं आवश्यकता के आधार पर प्रसवित  होता है। प्रसवित होने का तात्पर्य स्वयं से, स्वयं में, स्वयं के लिए स्फूर्त होने की क्रिया से है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर:193-194)
  • उत्पादन-कार्य सम्बन्धी परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है मानव अपने कर्ता पद को प्रयोग करने में समर्थ है। सम्पूर्ण कार्य कर्ता पद प्रतिष्ठा सहज वैभव है। प्राकृतिक ऐश्वर्य पर ही श्रम नियोजन पूर्वक उत्पादन का अर्थ सार्थक होना पाया जाता है। इसके साथ मानव के कर्ता पद की महिमा और उसका संयोग ही है कि प्रत्येक मानव में कर्तव्य (करने का प्रमाण) नित्य प्रभावी है अर्थात् नित्य प्रकाशमान है और वर्तमान है। (अध्याय: 8, पृष्ठ नंबर: 243)
  • विनिमय कार्य विधि की यह सही बेला है। मानव ने पहले भी एक बार विनिमय का प्रयास किया। उस प्रयास में उत्पादन कार्य के मूल्यांकन का आधार श्रम मूल्य नहीं रहा। उसके विपरीत लाभ मानसिकता उस समय में भी व्यापारी में बना रहा। लाभ मानसिकताएँ शोषण मूलक होते ही हैं। इसमें संग्रह-सुविधा का पुट रहता ही है। यह आज भी स्पष्टतया दिखाई पड़ता है। इस आधार पर मानव अपने व्यवस्था का अंगभूत अथवा  समग्र व्यवस्था के अंगभूत रूप में अर्थ और आर्थिक गति को पहचानने की स्थिति में यह पता लगता है कि अस्तित्व में सम्पूर्ण विकास सहज सीढ़ियाँ आवर्तनशीलता और पूरकता विधि सम्पन्न है। सह-अस्तित्व में निरंतर पूरकता और विकास ही समाधान के रूप में स्पष्ट है। इसी क्रम में मानव अपने दृष्टा पद प्रतिष्ठा को पहचानने के उपरांत ही स्वयं में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी होने की आवश्यकता को अनुभव किया और जागृतिमूलक विधि से ही परिवार मूलक स्वराज्य मानव सहज पद होना मानव का अभिलाषित, आकांक्षित और आवश्यकता के रूप में पहचाना गया। सर्वशुभ सर्वसुलभ होने के लिए आवर्तनशील अर्थव्यवस्था की समग्र व्यवस्था के अंगभूत कार्यक्रम होना देखा गया है। इसी विधि से पहला आर्थिक असमानताएँ समाप्त होते हैं और समृद्घि के आधार पर हर समझदार परिवार में प्रमाण सुलभ होना सहज है। दूसरा, प्रतीक मूल्य से छूटकर प्राप्त मूल्यों से तृप्त होने का सूत्र सहज रूप में रहा है उसमें जागृति प्रमाणित होती है। तीसरा, संग्रह का भूत संघर्ष के साथ शोषण के साथ जुड़ा ही रहता है, यह सर्वथा दूर होकर परिवार मानव के रूप में हर व्यक्ति अपने दायित्व, कर्तव्यों का निर्वाह करने का उत्सव सम्पन्न होने का अवसर सर्वदा समीचीन रहता ही है। चौथा, परिवार मानव विधि से ही स्वराज्य व्यवस्था उसके अंगभूत आवर्तनशील अर्थव्यवस्था गतिशील होने के क्रम में ही विश्व परिवार और व्यवस्था के साथ सूत्रित होने का कार्यक्रम मानव जागृति सहज वैभव के रूप में होना समझा गया। और यह इस तथ्य का द्योतक है समुदायों के सीमाओं में स्वीकृत प्रत्येक मानव दिशाविहीनता, लक्ष्यविहीनता फलत: सार्वभौम कर्तव्य विमूढ़ता से ग्रसित हो गया है। इस पीड़ा से छूटने का सर्वसुलभ कार्यक्रम और मार्ग प्रशस्त होना समीचीन है। (अध्याय: 8, पृष्ठ नंबर:250-251)
  • विकास (जागृति) के लिए किये गये व्यवहार को पुरूषार्थ, निर्वाह के लिए किये गये प्रयास को कर्तव्य तथा भोग के लिए किये गये व्यवहार को विवशता के नाम से जाना गया है। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर:254)
  • भोगरुपी आवश्यकताओं की पूर्ति इसलिए संभव नहीं है कि वह अनिश्चित एवं असीमित है। कर्तव्य की पूर्ति इसलिए संभव है कि वह निश्चित व सीमित है। यही कारण है कि कर्तव्यवादी प्रगति शांति की ओर तथा भोगवादी प्रवृत्ति अशांति की ओर उन्मुख है। (अध्याय:9 , पृष्ठ नंबर: 254)
  • कार्य शैली:- प्रत्येक ग्राम सभा, ‘‘ग्राम स्वराज्य व्यवस्था’’ को स्थापित करने के लिए निम्न 5 समितियों का गठन करेगी :-
1. मानवीय शिक्षा-संस्कार समिति
2. उत्पादन-कार्य व सलाहकार समिति
3. लाभ-हानि मुक्त सहकारी विनिमय-कोष समिति
4. स्वास्थ्य-संयम समिति
5. मानवीय न्याय-सुरक्षा समिति
उपर्युक्त समितियाँ ग्राम सभा के मार्गदर्शन के आधार पर कार्य करेंगी। उपरोक्त समितियाँ क्रम से ग्राम में शिक्षा-संस्कार व्यवस्था, उत्पादन-कार्य व्यवस्था, विनिमय-कोष व्यवस्था, स्वास्थ्य-संयम व्यवस्था व न्याय सुरक्षा व्यवस्था को स्थापित करेंगी। उपरोक्त समिति के सदस्यों का मनोनयन ग्राम सभा करेगी। प्रत्येक मनोनीत सदस्य इन समितियों का अंशकालिक सदस्य होगा व वह अपनी समिति का कर्तव्य एवं दायित्वों का निर्वाह अपने निजी  व्यवसाय के अलावा करेगा।...(अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 262)
  • कर्तव्य व दायित्व :-
1. ग्राम सभा पूर्ण रूप से ग्रामवासियों के प्रति उत्तरदायी होगी। साथ ही वह ‘‘ग्राम समूह सभा’’ के प्रेरणा व उनके द्वारा दिए गए सुझावों पर निर्णय लेगी।
2. सर्वेक्षण, आंकलन व अध्ययन के आधार पर प्रत्येक परिवार के लिए समयबद्घ स्वराज्य कार्य योजना बनाएगी व क्रियान्वयन के लिए विभिन्न समितियों को आवश्यक निर्देश देगी।
3. ग्राम की पाँचो समितियों के साथ उनके अपने-अपने लक्ष्य प्राप्त करने में पूर्ण सहयोग देगी व उनके लिए जो भी सुविधायें, तकनीकी ज्ञान आदि की आवश्यकता होगी उसे उपलब्ध करायेगी।
4. ‘‘विनिमय कोष’’ व सरकारी बैंक के बीच संयोजन (एजेन्सी) का कार्य करेगी।
5. पाँचों समितियों के कार्यों का समय-समय पर मूल्यांकन करेगी व उन्हें आवश्यक निर्देश देगी।
6. सर्वेक्षण, आंकलन, अध्ययन व प्राथमिकताओं के आधार पर ग्राम में सामान्य सुविधाओं की व्यवस्था करेगी। इस दिशा में यदि किसी समिति व अन्य संस्थाओं के सहयोग की आवश्यकता हुई तो उसे प्राप्त करेगी।
7. निम्न सामान्य सुविधाओं की व्यवस्था ग्रामसभा द्वारा की जायेगी –
1. प्रत्येक परिवार के लिए आवास का प्रावधान। इसके लिए स्थानीय व्यक्तियों व वस्तुओं का अधिक से अधिक उपयोग किया जावेगा।
2. शोधन विधि द्वारा शुद्घ व पवित्र पीने के पानी की व्यवस्था।
3. पेयजल व मल जल की व्यवस्था करना।
4. कृषि के साथ पशु पालन आवश्यक होने के कारण ‘‘गोबर गैस प्लांट’’ द्वारा, गोबर गैस गाँव में सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से उपलब्ध कराना। प्राकृतिक गैस उपलब्ध होने की स्थिति में, उसका सर्वाधिक उपयोग करने की, प्रणाली को विकसित करना।
5. गोबर खाद व कम्पोस्ट खाद के लिए व्यापक व्यवस्था करना।
6. सौर-ऊर्जा का सर्वाधिक प्रयोग करने की प्रणाली विकसित करना ताकि उसका उपयोग, पानी पंप करने, खाना पकाने, वाष्पीकरण, अनाज सुखाने, ठंडा या गर्म करने में किया जा सके, जिससे लकड़ी, कोयला आदि परंपरागत ईंधनों को जलाने से रोका जा सके। इसी संदर्भ में पवन चक्की व जल प्रवाह शक्ति की उपयोगिता की संभावना का पता लगाना व यदि संभव हुआ तो क्रियान्वयन करना।
7. प्रत्येक घर के साथ शौचालय व सामूहिक शौचालय की व्यवस्था करना।
8. सड़क मार्ग, रेल, यातायात-व्यवस्था को सुदृढ़ बनाना व निकट की मंडियों व बाजारों की सड़कों से जोड़ना।
9. दूरभाष व दूरसंचार सेवा, डाक घर, बैंक आदि की व्यवस्था करना।
10. ग्राम के लिए पाठशाला, चिकित्सा केन्द्र, विनिमय-कोष के लिए भवन, गोदाम, बहुद्देश्यीय भवन की व्यवस्था करना जो न्याय सभा, संबोधन सभा, सांस्कृतिक-सभा, विवाह व मिलन-सभा, प्रार्थना सभा, स्वागत सभा व छाया के अंदर खेलने के लिए उपयोगी रहेगा।
परिवार समूह व परिवार प्रतिनिधि के कर्तव्य एवं दायित्व :-1. परिवार प्रतिनिधि, सदस्यों के साथ व्यवहार, आचरण, स्वास्थ्य, उत्पादन व उत्पादन संबंधी साधनों के संदर्भ में स्वयं प्रमाणिक रहते हुए, उनके अनुरूप सभी सदस्यों को होने के लिए प्रेरणा स्त्रोत बने रहेंगे।
2. परिवार प्रतिनिधि, परिवार के अन्य सदस्यों का मूल्यांकन करेंगे। परिवार प्रतिनिधि का मूल्यांकन, परिवार समूह सभा करेगा। आचरण के लिए मूल्यांकन का आधार स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष व दया पूर्ण कार्य रहेगा।
व्यवहार के मूल्यांकन का आधार मानव व नैसर्गिक संबंधों व उनमें निहित मूल्यों की पहचान व निर्वाह से है। साथ ही तन,मन, धन रूपी अर्थ के सदुपयोग, सुरक्षा के आधार पर नैतिकता का मूल्यांकन किया जायेगा।
3. परिवार में किसी से गलती होने की स्थिति में सुधारने का कर्तव्य, परिवार के सभी सदस्यों का होगा। इसमें परिवार प्रतिनिधि उभय पक्षीय प्रेरक का कार्य करेगा।
4. परिवार सम्बन्धी समस्त जानकारी, जिसके आधार पर परिवार के सदस्यों को शिक्षा-संस्कार, उत्पादन कार्य आदि में लगाना है, के लिए सभी तथ्यों को एकत्रित कर, ग्राम सभा को उपलब्ध कराने का कर्तव्य, परिवार प्रतिनिधि का होगा। परिवार में यदि कोई व्यक्ति, किसी विशेष योग्यता, हस्तकला, हस्त-शिल्प, कृषि व अन्य तकनीकी या साहित्य कला में माहिर है तो यह जानकारी भी, ग्राम की सम्बन्धित समिति को उपलब्ध कराएगा।
5. परस्पर परिवारों के विवादों व उत्पन्न कठिनाइयों के निवारण का दायित्व उन परिवार के प्रतिनिधि व परिवार समूह सभा का होगा। परिवार समूह सभा द्वारा विवाद हल न होने की स्थिति में ही विवाद ‘‘न्याय सुरक्षा-समिति’’ के पास जायेगा। (अध्याय:9 , पृष्ठ नंबर: 264-268)
  •  गाँव से सभी प्रकार की कर वसूली का दायित्व विनिमय कोष का होगा। कर निर्धारण का कार्य ग्राम सभा करेगी। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 282)
  • स्वास्थ्य-संयम व्यवस्था - ग्राम के सभी व्यक्तियों के स्वास्थ्य एवं संयम की जिम्मेदारी, ग्राम स्वास्थ्य-संयम समिति की होगी। यह समिति शिक्षा-संस्कार समिति के साथ मिलकर कार्य करेगी। स्वास्थ्य-संयम संबंधी पाठ्यक्रम और कार्यक्रम को तैयार कर शिक्षा में सम्मिलित कराएगी। ग्राम चिकित्सा केन्द्र की व्यवस्था, योगासन, व्यायाम, अखाड़ा खेल कूद व्यवस्था, स्कूल के अलावा खेल मैदान (स्टेडियम), सांस्कृतिक भवन, क्लब आदि व्यवस्था का दायित्व, ग्राम स्वास्थ्य समिति का होगा समिति स्थानीय रुप से उपलब्ध जड़ी-बूटियों द्वारा औषधि बनाने के लिए आवश्यकीय व्यवस्था करेगी। इसके साथ ही पशु चिकित्सा केन्द्र की व्यवस्था का दायित्व भी स्वास्थ्य समिति का होगा। समिति ‘‘समन्वित चिकित्सा’’ (आयुर्वेद, एलोपैथी, होमियोपैथी, यूनानी, योग प्राकृतिक, मानसिक) के उन्नयन की व्यवस्था करेगी। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 284)
  • मानव के नैसर्गिक सम्बन्ध तीन प्रकार से गण्य है :- 
  1. पदार्थावस्था के साथ सम्बन्ध। 
  2. प्राणावस्था (अन्य, वनस्पति) के साथ सम्बन्ध। 
  3. जीवावस्था (पशु पक्षी आदि मानवेतर जीवों) के साथ सम्बन्ध। 
        उपरोक्त संबंधों में उपयोगिता मूल्य दो प्रकार से गण्य है:- 
          1. परस्पर उपयोगिता पूरकता, उदात्तीकरण के रूप में रचना-विरचना क्रम में उपयोगिता। 
          2. परमाणु में विकास क्रम में उपयोगिता। 
              उपयोगिता का स्वरूप निम्न है:-
                1. प्राकृतिक सम्पदा (खनिज, वनस्पति) का उसके उत्पादन के अनुपात में उपयोग संतुलन के अर्थ में। 
                2. प्राकृतिक सम्पदा के उत्पादन में विघ्न न डालना एवं प्राकृतिक सम्पदा के उत्पादन में सहायक बनना। (नैसर्गिक पवित्रता को समृद्घ बनाए रखे बिना, मानव स्वयं समृद्घ नहीं हो सकता।)
                3. उत्पादन में न्याय
                1. प्रत्येक व्यक्ति द्वारा आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना।
                2. प्रत्येक व्यक्ति में आवश्यकता से अधिक उत्पादन करने योग्य कुशलता व निपुणता को स्थापित करना, जिसका दायित्व शिक्षा-संस्कार समिति को होगा। 
                3. उत्पादन के लिए व्यक्ति में निहित क्षमता योग्यता के अनुरूप उसे प्रवृत करना जिसका दायित्व ‘‘उत्पादन कार्य सलाहकार समिति’’ का होगा।
                4. उत्पादन के लिए आवश्यकीय साधनों को सुलभ करना इसका दायित्व ‘‘ सहकारी विनिमय कोष समिति’’ का होगा। 
                5. उत्पादन कार्य सामान्य आकांक्षी (आहार, आवास, अलंकार) महत्वाकांक्षी (दूर दर्शन, दूर गमन, दूर श्रवण) सम्बन्धी वस्तुओं के रुप में प्रमाणित होना। 
                6. ‘‘ उत्पादन कार्य सलाह समिति’’ व ‘‘विनिमय कोष समिति’’ संयुक्त रुप से सम्पूर्ण ग्राम की उत्पादन सम्बन्धी तादात, गुणवत्ता व श्रम मूल्यों का निर्धारण करेगी।  (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 289-290)
                • ग्राम सुरक्षा :-
                ग्राम सीमा में निहित भूमि का क्षेत्रफल और उस भू-भाग में निहित वन, खनिज, कृषि योग्य भूमि, बंजर भूमि, जल, जल स्रोत, जल संरक्षण, भूमि संरक्षण, सामान्य सुविधा आदि कार्य को सदुपयोग के आधार पर सुरक्षित करना ग्राम सुरक्षा का तात्पर्य है।
                ग्राम से संबंधित वन क्षेत्र और ग्राम की (सरकारी) भूमि और स्वामित्व की भूमि, ग्राम सभा के अधिकार व कार्य क्षेत्र में रहेगी। यदि कोई वन क्षेत्र व भू-खण्ड, किसी गाँव से सम्बद्घ न हो ऐसी स्थिति में उसको किसी न किसी गाँव से सम्बद्घ करने की व्यवस्था रहेगी। ऐसे ग्राम क्षेत्र की सुरक्षा का दायित्व भी ‘‘न्याय सुरक्षा समिति’’ का होगा। 
                          उत्पादन और विनिमय सुरक्षा :-
                उत्पादन सुरक्षा :-
                1. गाँव में जितने भी प्रकार का उत्पादन सम्बन्धी मौलिकताएँ प्रमाणित होंगी उन सबकी सुरक्षा का दायित्व न्याय सुरक्षा समिति का होगा। जैसे किसी उत्पादन कार्य में विशेष प्रकार की मौलिकता अथवा मौलिक प्रणाली अथवा मौलिक औजार मौलिक विधि जो परंपरा में नहीं रही है, ऐसी स्थिति में उन सबको सुरक्षित किया जाएगा। इन सबसे सम्बन्धित मूल वाङ्ग्मय, (डिजाइन) चित्रण, नक्शा प्रक्रिया, प्रणाली और विधियों को लिपि बद्घ, सूत्रबद्घ कर सुरक्षित करेगा। आवश्यकता पड़ने पर पुरस्कार की व्यवस्था करेगा। 
                2. औषधियों का अनुसंधान, वनस्पतियों की पहिचान, ज्योतिष सम्बन्धी अनुसंधान, हस्तरेखा व सामुद्रिक शास्त्र सम्बन्धी साहित्य का अनुसंधान जो परंपरा में नहीं रहा है, उसको उपयोगिता के अनुसार उसकी सुरक्षा का दायित्व ‘‘सुरक्षा समिति’’ का होगा।... (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 292)

                स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
                प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

                दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान

                मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान (संस्करण:2008)
                • १. भक्ति - २. तन्मयता
                परिभाषा - भक्ति : भजन और सेवा की संयुक्त अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन क्रिया कलाप को भक्ति के नाम से जाना जाता है। भजन का तात्पर्य भय से मुक्त होने के क्रिया-कलाप से है। इसका सकारात्मक स्वरूप विश्वास पूर्ण विधि से, कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत कारित, अनुमोदित प्रणालियों से किया गया क्रिया-कलाप।
                सेवा का तात्पर्य है - आवश्यकता, उपकार, कर्तव्य, दायित्व प्रणालियों से किया गया कार्यकलाप। इसमें सेवनीय वस्तु, विश्वास और सभी मूल्यों के साथ परावर्तित रहता है। ऐसी सहजता और विश्वास निरंतरता की पुष्टि है। यह तन्मयता का भी आधार है। तन्मयता रसों में तदाकार होना पाया जाता है। सम्पूर्ण मूल्य ही रस स्वरूप हैं, जिनका आस्वादन मन में होना, एक स्वाभाविक क्रिया है।
                विश्वास एक साम्य मूल्य है। सम्पूर्ण सम्बंधों में, सहज विश्वास ही, वर्तमान में सुख पाने की विधि है। निरंतर समझदारी सहित आवश्यकताओं, उपकारों, कर्तव्यों, दायित्वों में भागीदारी को निर्वाह करने के क्रम में, विश्वास प्रमाणित होना पाया जाता है। यह निरंतर उत्सव के स्वरूप में स्पष्ट है। ऐसा विश्वास पूर्ण होने के क्रम में, जागृति ही इष्ट है। इष्ट के साथ ही भक्ति का प्रवाह होना पाया जाता है। ऐसा बहने वाला विश्वास का, एक स्वाभाविक वातावरण अथवा प्रभाव क्षेत्र बनना सहज है, फलत: तन्मयता प्रमाणित होना पाया जाता है। (अध्याय: 5.1, पृष्ठ नंबर: 43)
                • 11. स्वामी (साथी) - 12. दायित्व
                सहयोगी = दायित्व कर्तव्य साथी = दायित्व-कर्तव्य। सहयोगी - कर्तव्य दायित्व।
                परिभाषा : (स्वामी) साथी :- (1) सर्वतोमुखी समाधान प्राप्त व्यक्ति। ऐसे व्यक्ति का ही, किसी और व्यक्ति के अभ्युदय के लिए, साथी होना संभव है। अभ्युदय ही सर्वजन आकांक्षा है। इसे सफल बनाना, मानव परम्परा है। इसमें (अर्थात अभ्युदय में) पारंगत व्यक्ति दूसरों को अभ्युदयशील, अभ्युदयपूर्ण प्रमाणित करने के क्रम में, साथी (स्वामी)  का पद पाता है। (2) “स्वयं ईक्षयतेति सा स्वामी’’ स्वयं स्फूर्त विधि से दृष्टा पद में हो। “इच्छयेते इति सा स्वामी”। स्वयं को जो पहचान चुका है, जान चुका है, मान चुका है, वे निर्वाह करने के क्रम में साथी (स्वामी) कहलाते हैं।
                दायित्व :- परस्पर व्यवहार, व्यवसाय एवं व्यवस्थात्मक सम्बंधों में निहित, मूल्यानुभूति सहित, शिष्टता पूर्ण निर्वाह। 
                साथी (स्वामी) एक नामकरण है जिसकी सार्थकता परिभाषा में ही इंगति हो चुकी है। अस्तित्व ही सह-अस्तित्व है, यह विदित हो चुका है। इसी क्रम में सम्बन्धों को पहचानना निर्वाह करना, जानना मानना संभव है  और यह प्रमाणित होता है। श्रेष्ठता का गुणानुवादन सुनकर, श्रेष्ठता के लिए साथी (स्वामी) का वर्णन, मनुष्य सहज (की) संभावना है। साथी (स्वामी) शब्द के साथ ही अपेक्षाएं, श्रेष्ठता एवं शुभ के वांछित स्रोत के रूप में ही भास-आभास हो पाता है। ऐसे साथी (स्वामी) अभ्युदय के अर्थ में- समाधान, समृद्घि, अभय एवं सह-अस्तित्व के सफल होने के लिए, दिशादर्शन करते हैं। सहयोगियों में स्वयं स्फूर्त होने के लिए, पूरक विधि से, प्रमाणित हो पाते हैं। जागृति सूत्र विधि से, प्रत्येक व्यक्ति में सर्वतोमुखी समाधान सहज अभ्युदय को, प्रमाण रूप में विधि विहित प्रक्रियाओं से पारंगत बनाना, साथी (स्वामी) का ही दायित्व है।
                अभ्युदय ही सर्वशुभ होने के कारण, सभी सम्बन्धों में सूत्र प्रभावित रहते हैं, यह स्वाभाविक है। सेवक अथवा सहयोगी साथी का अर्थ, जागृति और सर्वतोमुखी समाधान ही होता है। इसमें साथी (स्वामी) और सहयोगी (सेवक) के आशय, समान होने के कारण, पूरकता ही, स्वामी का काम है। पूरकता को स्वीकारना ही, सेवक (सहयोगी) का कार्य बन जाता है। पूरक विधि से ही, सह-अस्तित्व वैभवित है। इसी क्रम में मानव का एक मात्र मार्ग है, सह-अस्तित्व क्रम में, प्रत्येक मनुष्य, किसी न किसी के लिए पूरक होता ही है और किसी न किसी से पूरकता पाता ही है। ऐसी पूरकता वश जागृत होना, प्रत्येक व्यक्ति में, से, के लिए अवश्य ही सफल होने का मार्ग प्रशस्त होता है।
                13. सेवक (सहयोगी) - 14. कर्तव्य
                परिभाषा : सहयोगी :- पूर्णता अथवा अभ्युदय के अर्थ में मार्गदर्शक अथवा प्रेरक के साथ-साथ अनुगमन करना, स्वीकार पूर्वक गतित होना।
                कर्तव्य :- (1.) प्रत्येक स्तर में प्राप्त सम्बंधों एवं सम्पर्कों और उनमें निहित मूल्यों का निर्वाह। (2.) जिस कार्य को करने के लिए स्वीकार किए रहते हैं, उसे करने में निष्ठा को बनाए रखना।
                प्रत्येक व्यक्ति किसी का सहयोगी या किसी का साथी है ही। सम्पूर्ण मूल्यों और सम्बंधों का निर्वाह स्वयं स्फूर्त सेवा है। इस तथ्य के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति का परस्परता में सम्बंध व मूल्यों का निर्वाह करना ही कर्तव्य है। इसी विधि से प्रत्येक व्यक्ति किसी के लिए साथी है, किसी के लिए सहयोगी है। इस प्रकार दायित्व और कर्तव्य सहज निर्वाह ही सेवा है। यही मूल्यों का आस्वादन भी है। दायित्व के रूप में साथी (स्वामी) कर्तव्य के रूप में सहयोगी (सेवक) का स्वरूप स्पष्ट है। दायित्व का व्यवहार कार्य रूप स्वयं स्फूर्त विधि से होना पाया जाता है। हर कार्य-व्यवहार लक्ष्य सहित सम्बंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय-तृप्ति संतुलन, नियंत्रण के रूप में सार्थक होना पाया जाता है। कर्तव्य के रूप में सेवा को पूर्ण कर पाना, सहयोगी के संतोष का स्रोत है। इस कर्तव्य में, निष्ठा का पालन हो, यही सहयोगी, के लिये प्राप्त मार्गदर्शन की सफलता है। मानवीय सम्बंधों व मूल्यों की पहचान व निर्वाह के रूप में सेवा है। स्वयं स्फूर्त होने तक के लिए मार्गदर्शन पाना, आवश्यक है, स्वयं स्फूर्त कर्तव्य निष्ठा का द्योतक है। सम्पूर्ण सेवाओं में उसका स्वत: स्फूर्त होना व उसके मार्गदर्शन की आवश्यकता, उसके अंत: बाह्य कर्तव्यों में सहज गति के रूप में पाया जाता है।
                सामाजिक सम्बन्ध (अर्थात मानव सम्बंधों) के आधार पर, व्यवसाय सम्बन्ध, सफल होने की व्यवस्था है। केवल व्यवसाय सम्बंध के आधार पर, मानव सम्बन्ध एवं मूल्यों की पहचान नहीं हो पाती। व्यवसाय सम्बन्ध के लिए रासायनिक भौतिक वस्तुएं हैं जो मूलत: प्राकृतिक अथवा रूपात्मक अस्तित्व में, से निश्चित अवस्था के रूप में वर्तमान है। उस पर श्रम नियोजन पूर्वक, उत्पादित वस्तुओं में उपयोगिता अथवा कला मूल्य को स्थापित किया जाता है। वर्तमान तक लाभोन्मादी मानसिकता के आधार पर सम्पूर्ण व्यवसाय के निर्भर होने के फल स्वरूप (अथवा प्रलोभन मूल्यांकन के फलस्वरूप) यह विफल होते आया। जबकि अस्तित्व में लाभ से इंगित वस्तु नहीं हैं और न ही उस भय और प्रलोभन की सत्ता है। अस्तित्व में सम्पूर्ण व्यवस्था नियम- निरंतर, नियम प्रवर्तन, नियम-नियंत्रण, नियम-न्याय संतुलन, मूल्यों का निर्वाह और मूल्यांकन के रूप में, सार्वभौम है। 
                इसी के साथ पूरकता विधि क्रम में, उदात्तीकरण, विकास, जागृति देखने को मिलती है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सभी समुदाय परंपराएं भ्रमवश ही लाभ, प्रलोभन तथा भय के दलदल में फंस गई हैं। इसका समाधान मूल्यों पर आधारित मूल्यांकन है। आवश्यकता से अधिक उत्पादन है, संग्रह के स्थान पर आवर्तनशील अर्थव्यवस्था है, सुविधा, भोग, अतिभोग के स्थान पर उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता है। इस आधार पर साथी सहयोगियों का कर्तव्य व दायित्व, व्यवहृत होना ही है, जो समीचीन है। (अध्याय:5.1, पृष्ठ नंबर: 61- 62)
                • १५.स्वायत्त - १६ समृद्घि (आवश्यकता से अधिक उत्पादन)
                परिभाषा :- स्वायत्त = समृद्घि का अनुभव ही स्वायत्त है।
                मूल्यांकन, आवश्यकता से अधिक होने के बिन्दु में ही तृप्ति का अनुभव होना पाया गया है। इसे हर व्यक्ति अपने में जाँच सकता है। ऐसा जाँचने के क्रम में इस तथ्य का भी मूल्यांकन होता है कि हम आवश्यकता से अधिक उत्पादन किये है या नहीं। आवश्यकता से अधिक उत्पादन परिवार की सीमा में ही मूल्यांकित होता है। परिवार में सभी सम्बन्धों का सम्बोधन जागृत मानव प्रकृति को जाँचने के लिए एक आवश्यकता है।
                इस विधि से सोचा जाय तो पता लगता है कि १० व्यक्तियों के बीच में सीमित, संयत संतानों के साथ सर्वाधिक सम्बन्धों का सम्बोधन परिवार में सुलभ हो जाता है, फलस्वरूप हर के साथ कर्तव्य और दायित्व स्फुर्त होना पाया जाता है। स्वयं स्फुर्ति सदा-सदा जागृति के आधार पर सम्पन्न होना पाया गया। जागृति समझदारी के अर्थ में सार्थक है। इस प्रकार समझदार मानव ही सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति करने में सक्षम है। इसकी आवश्यकता हर मानव में रहती ही है। इसे सार्थक रूप देना मानव परम्परा का अभीष्ट है। जागृति सर्वमानव को स्वीकृत है, इस विधि से समझदारी, लोक व्यापीकरण होने का स्रोत मानव परम्परा ही है उसमे भी शिक्षा-संस्कार विधा ही प्रबल प्रभावी स्रोत है। (अध्याय:5.1 , पृष्ठ नंबर: 63)
                • मानव व्यवहार, कर्म, अभ्यास एवं अनुभव परम्परा में ही, मनुष्य के उत्साहित रहने से, हँसी खुशी के साथ, नित्य सफलता समीचीन रहती है। भ्रमवश ही विघटित परिवार और समाज, आवेशों अवमूल्यन को उत्साह मानता और साथ ही अवमूल्यन कार्यों को मानता है। यह भय व प्रलोभन का रूप है। भय-प्रलोभन मनुष्य का भ्रमवश लिया गया निर्णय है। यह मानव कुल के लिए अव्यवहारिकता का कारण हुआ। अन्य अव्यवहारिकताएं, द्रोह-विद्रोह, शोषण, युद्घ में देखने को मिलती हैं। यह मानव कुल में आवेश का साक्ष्य है। जबकि समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व सर्वमानव का स्वत्व एवं स्वभाव गति है। इसकी संभावनाएं, यथार्थता के आधार पर स्पष्ट होती हैं। इस प्रकार हास उल्लास का आधार मानवीयतापूर्ण व्यवहार, आचरण, व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी के अर्थ में उत्सवित है और मानव को हर मानव का जागृति सहित कर्तव्यों, दायित्वों के अर्थ में उत्सवित करना ही उल्लास व हास का वास्तविक अर्थ में प्रयोजन, सार्थकता, नित्य आवश्यकता है।(अध्याय:5.1 , पृष्ठ नंबर: 71)

                • मानवीयता पूर्ण अमानवीयता पूर्ण                                                                   प्रवर्तन कार्य                            प्रवर्तन कार्य
                     (1) शुभकामना                        कामावेश
                सन्तुलन प्रवृत्ति व कार्य भोग प्रवृत्ति व क्रिया

                     (2) स्नेह विश्वास                   क्रोधावेश
                सह-अस्तित्व प्रवृत्ति व कार्य हिंसक प्रवृत्ति व क्रिया

                     (3) उदारता                           लोभावेश
                दायित्व कर्तव्य में अर्पण- संग्रह प्रवृत्ति व क्रिया                                                              समर्पण

                    (4) मूल्य व मूल्यांकन               मोहावेश
                कर्तव्य दायित्व का निर्वाह             अव्याप्ति दोष, प्रवृत्ति व कार्य

                     (5) नियम पालन                     मदावेश
                बौद्घिक, सामाजिक, प्राकृतिक स्वयं के प्रति अधिमूल्यन                                                                     प्रक्रिया व कार्य

                     (6) पूरकता व दयापूर्ण कार्य मात्सर्य आवेश
                व्यवहार, विन्यास,  जागृति अवमूल्यन प्रवृत्ति व कार्य
                पूर्वक तन, मन, धन का 
                नियोजन सभी सम्बन्धों में।

                उपरोक्त वर्णित चित्रण से, मानवीयता पूर्ण पद्घति से भाई व मित्र सम्बन्ध सफल और अमानवीयता पूर्वक असफल होना स्पष्ट है। मानवीयता के प्रकाशन में, सभी सम्बन्ध सहज रूप में दिखाई देते हैं। उसके निर्वाह करने का मार्ग प्रशस्त होता है। (अध्याय:5.1 , पृष्ठ नंबर: 85-86)
                • ...यही उपयोगिता-सदुपयोगिता का मापदण्ड है। सम्बन्ध व मूल्यों में, जीवन जागृति का लक्ष्य समाया रहता है। सदुपयोगिता का आधार मापदण्ड यही है कि परिवार मानव (अथवा मानव परिवार) तन, मन, धन रूपी अर्थ को सम्बंधों में अर्पित-समर्पित कर, प्रसन्नता और समाधान का अनुभव करता है। प्रसन्नता और समाधान का प्रमाण प्रस्तुत करता है। प्रयोजनीयता का प्रमाण, जीवन जागृति सहज, स्वानुशासन है। समझदारी का प्रमाण, मानवीय कर्तव्यों व दायित्वों का निर्वाह करना ही है। यही उपयोगिता एवं सदुपयोगिता का प्रमाण है। मानवीयता का मार्गदर्शक, अतिमानव रूपी देव मानव व दिव्य मानव ही है। यही प्रयोजन है। (अध्याय:5.21 , पृष्ठ नंबर: 135)
                • 27 संयम - 28.नियम
                परिभाषा : संयमता :- मानवीयतापूर्ण विचार, व्यवहार एवं व्यवसाय में नियंत्रित होना।
                नियम :- नियंत्रणपूर्वक स्वयं स्फूर्त विधि से, व्यवस्था में जीते हुए समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने की प्रवृत्ति और प्रमाण।
                संयम, नियम, नियंत्रण, सन्तुलन और जागृतिपूर्वक दायित्व और कर्तव्य निर्वाह होना पाया जाता है। इन प्रक्रियाओं को नियम के नाम से जाना जाता है। नियम, मनुष्य सहज रूप में, दायित्वों के प्रति होने वाली उदात्तीकरण, स्वयं स्फूर्त संप्रेषणा, प्रकाशन कार्य व्यवहार है। ऐसे संयम व नियम, व्यवहार कार्यों व्यवस्था के अर्थ में सार्थक होना सहज है। जबकि अक्षय बल व अक्षय शक्ति सहज जागृति की अभिव्यक्तियां हैं। मानव सहज बहुमुखी अभिव्यक्ति, वृत्तियों-प्रवृत्तियों का होना पाया जाता है। इसी क्रम में, जागृति पूर्ण एक प्रक्रिया, पद्घति, प्रणाली और नीति को पहचानना सहज है, अध्ययन की सार्थकता है। (अध्याय:5.21 , पृष्ठ नंबर: 155)
                • इन सम्बन्धों के प्रति निर्भ्रम होने के उपरान्त सहज ही विश्वमानव व्यवस्था की आवश्यकता व स्वरूप समझ में आता है, फलत: कर्तव्य व दायित्व निश्चित होता है। इस प्रकार सम्बन्धों व मूल्यों को, पहचानने व निर्वाह करने के क्रम में, मूल्यों की मूल्यांकन विधि अपने आप स्पष्ट होती है। किसी भी संबंध को, चाहे माता-पिता, पुत्र-पुत्री, गुरू-शिष्य, पति-पत्नी, स्वामी-सेवक, मित्र-मित्र सम्बन्ध सभी हो अथवा एक से अधिक हो उनमें विश्वास साम्य मूल्य है। इसका निर्वाह होना ही विश्वास की गवाही है। यद्यपि सम्बन्धों के अनुरूप कृतज्ञता, गौरव, श्रद्घा, प्रेम, विश्वास, वात्सल्य, ममता, सम्मान, स्नेह ये जो स्थापित मूल्य सार्थक होता है। फलत: सम्बंधों का स्वरूप, कर्तव्य व दायित्व की महिमा व निर्वाह सहज वर्तमान होता है। इसके योगफल में न्याय अपने आप सूत्रित, व्याख्यायित व वैभवित होता है। यही न्याय सुलभता का तात्पर्य है। (अध्याय: 5.21, पृष्ठ नंबर:180)
                • परिवार में परस्पर प्रवृत्तियों को, कर्तव्य दायित्वों को आवश्यकता से अधिक उत्पादन कार्य में एक दूसरे को पहचानते है। इसकी आवश्यकता बना ही रहता है। (अध्याय: 5.31, पृष्ठ नंबर: 198)
                • हर जागृत परिवार में परस्पर मानव (नर-नारी) स्वीकृतियों अर्थात समझदरियों कर्तव्यों के साथ स्मृति श्रुति पूर्वक मूल्यांकन करते है। हर मानव परिवार की आवश्यकता है। (अध्याय: 5.31, पृष्ठ नंबर: 199)
                • गुणात्मक परिवर्तन के संदर्भ में, से, के लिए ही दायित्व एवं कर्तव्य प्रमाणित होते हैं। अनुभव क्षमता से सम्पन्न होने पर्यन्त दायित्व एवं कर्तव्यबोध का मूल्यांकन होता है। उसके अनंतर वह स्वभावगत होता है। अमानवीयता से मानवीयता में अनुगमन करने के लिए नियंत्रण पूर्वक, दायित्व एवं कर्तव्य प्रमाणित होता है। मानवीयता से अतिमानवीयता में अनुगमन करने के लिए छ: प्रकार के स्वभाव से कर्तव्य एवं दायित्व को प्रमाणित करते हैं। धीरता से परिपूर्ण होना ही, वीरता का होना है। वीरता से परिपूर्ण होना ही उदारता का होना है। उदारता से परिपूर्ण होना ही दया का होना है। दया से परिपूर्ण होना ही कृपा का होना है तथा कृपा से परिपूर्ण होना ही करुणा का होना प्रमाणित है। दया, कृपा, करुणा की संयुक्त अभिव्यक्ति ही प्रेम है। (अध्याय: 5.31, पृष्ठ नंबर:225)
                • प्रेमानुभूति योग्य जन-मानस का निर्माण करने के लिए मानवीय शिक्षा संस्कार की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। शिक्षा ही जीवन विश्लेषण पूर्वक, यथार्थताओं वास्तविकताओं पर आधारित, जीवन के कार्यक्रम को स्पष्ट करती है। यही प्रत्येक मनुष्य में पाई जाने वाली कामना एवं उसकी आवश्यकता है। यही शिक्षा का दायित्व है। शिक्षा ही जीवन में गुणात्मक परिवर्तन का स्रोत है चरितार्थ होने का आधार है। अंततोगत्वा यही अनुभव के लिए प्रेरणा है। वरिष्ठ अनुभूति, प्रेमानुभूति ही है। यही पूर्णतया सामाजिक एवं व्यवहारिक है। (अध्याय: 5.31, पृष्ठ नंबर: 229)
                • प्रेमानुभूति लोकव्यापीकरण होने के अर्थ में सम्पूर्ण कार्यक्रम सम्पन्न होना ही मानव कुल में उसकी जागृति सहज चरितार्थता है। जागृत मानव कुल में चरितार्थता, सफलता एवं उज्जवलता सहज समाधान, समृद्घि अभयता एवं सह-अस्तित्व ही है। सदुपयोग सुरक्षा के अर्थ में सुविधाओं की तारतम्यता उसकी व्यवहारिकता सार्थकता को प्रमाणित कर देता है। स्थापित मूल्य सहित सम्पूर्ण मूल्यों का मूल्यांकन योग्य कार्यक्रम, मानवीयता सहज विधि से चरितार्थ होता है, सार्थक होता है। यही जागृति का प्रमाण है। ऐसी जागृत परम्परा को स्थापित, प्रस्थापित, गतित, सार्थक करना ही सम्पूर्ण शिक्षा, शिक्षण, राष्ट्र, राज्य, समाज, समाज सेवी, धर्म, कर्म, प्रायश्चित उद्धारकारी, प्रौद्योगिकी और व्यापार संस्थाओं तथा व्यक्तियों का सहज कर्तव्य है। ऐसे कर्तव्य को पहचानने के लिए ऐसी सभी संस्थाओं और सभी व्यक्तियों को जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन, मानवीयता पूर्ण आचरण सहज समझदारी में पारंगत होना अपरिहार्य स्थिति है। ऐसे सार्वभौम समझदारी को ‘हम’ पा चुके है। ‘हम’ का तात्पर्य हम जितने नर-नारी जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण में पारंगत हो चुके है, से है। हमारी प्रतिज्ञा ही है कि समझदारी को लोकव्यापीकरण करना। यही प्रेममय अभिव्यक्ति का साक्षी भी है। अस्तु, मानव कुल प्रेम और अनन्यता सहज विधि से कार्य, व्यवहार विन्यास, सर्वमानव सुलभ हो, ऐसी कामना है। इसे सार्थक बनाने का कार्यक्रम है। (अध्याय: 5.31, पृष्ठ नंबर:229-230)
                • सम्पूर्ण सम्बंध मानव की जिज्ञासा के अनुसार सम्बंधों का संबोधन प्रचालित है। इन सभी सम्बंधों में शुभेच्छा ही सर्वाधिक लोगों में आकलित होता है। मानव सहज प्रयोजनों के अर्थ में सम्बंधों की दृढ़ता में निरंतरता रहता ही है। ऐसी दृढ़ता के आधार पर ही जागृति पूर्वक निष्ठा सहज स्वीकार होना पाया जाता है। सम्पूर्ण निष्ठा में मानव अपने दायित्व कर्तव्यों को स्वीकारने की स्थिरता होना पाया जाता है फलस्वरूप व्यवस्था और व्यस्था में भागीदारी सहज हो जाता है। वात्सल्य सहज सम्बंधों का निर्वाह प्रमाणिकता के आधार पर ही सफल होना पाया गया है। हर बड़े बुजुर्ग, आचार्य, गुरू, मित्र, परिवार, समाज व्यवस्था सम्बंधों के साथ अपेक्षाएं श्रेष्ठता के अर्थ में ही बना रहता है। इसी प्रकार बड़े बुजुर्ग, आचार्य अभिभावक भी वात्सल्य प्रेरित मानव संतान को भावी श्रेष्ठ स्वरूप के अर्थ में ही अपेक्षा बनाये रखते है। ये उभयपक्षी अपेक्षाएं सार्थक होने का जहाँ तक प्रमाण बिंदु है वहाँ तक पहुँचने में बड़े बुजुर्ग, आचार्य अभिभावकों का ही दायित्व प्रधान रहता है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर आते है कि परम्परा ही आगे पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक है। लक्ष्योन्मुखी प्रवृत्ति के लिए दायित्व पीछे पीढ़ी के साथ जुड़ा रहता है। अतएव परम्परा जागृति होने के बाद ही परम्परा अपने सभी आयामों में जागृत होने के उपरांत ही भविष्य की पीढ़ियाँ जागृत होना और प्रमाणित होना पाया जाता है। (अध्याय:5.31, पृष्ठ नंबर:231-232)
                • ...इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक जागृत परिवार मानव के लिए अपने में स्वस्थता और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के क्रम में, प्रमाणिकता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। यही सार्थकता का तात्पर्य है। हर मानव सार्थक बनना ही चाहता है। यह विकास और जागृति सहज स्वर है। जागृत मानव परम्परा का सार्वभौम व्यवस्था, अखंड समाज के रूप में अभिव्यक्ति संप्रेषित प्रकाशित होना परम्परा का गौरव है। ऐसी गौरवमय परम्परा को पाने के क्रम में सर्वमानव में, से, के लिए कर्तव्य दायित्व समीचीन है। उसके लिए मानवत्व को पहचानना एक अनिवार्य स्थिति है। यही सर्वमानव परम्परा में मौलिक बिंदु है। इसे लोकव्यापीकरण करने के लिए मानव को अस्तित्व मूलक, मानव केन्द्रित चिंतन ज्ञान को हृदयंगम करना होगा। (अध्याय: 5.31, पृष्ठ नंबर:237)

                स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
                प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी