Friday 18 August 2017

स्वतंत्रता

परिभाषा:
  • मानवत्व सहित व्यवस्था-समग्र व्यवस्था में भागीदारी; स्वयं में, से, के लिए ज्ञान, विवेक, विज्ञान समाधान सहजता को स्वयंस्फूर्त विधि से प्रमाणित करना-कराना|
  • पूर्णता की निरंतरता, मानवीय संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था की अक्षुण्णता में भागीदारी| 
  • प्रामाणिकता व समाधान पूर्ण अभिव्यक्ति, सम्प्रेष्णा व प्रकाशन क्रिया| 
  • स्वानुशासन पूर्ण पद्धति, प्रणाली, नीति पूर्वक किया गया कार्य-व्यवहार-विचार विन्यास| 
(परिभाषा संहिता- संस्करण : 2012 मुद्रण: 14 जनवरी 2016, पेज नंबर: 213)


सन्दर्भ:(1) मानव व्यवहार दर्शन (अध्याय: 4,10,16,17, संस्करण: 2011, मुद्रण: 2015 पेज नंबर:)
  • ‘जीवन परमाणु’ के रूप में जब कभी भी अंशों का एकत्रित होना होता है तब तक द्वितीय परिवेशीय अंश सक्रिय होते हैं फलत: अणु  बन्धन व भारबन्धन रहता है । जीवन परमाणु आशा बन्धन से युक्त होता है। यह गठनपूर्णता का प्रमाण है । गठनपूर्णता का प्रमाण स्वत्व स्वतंत्रता अधिकार के रूप में स्पष्ट हो जाता है । (अध्याय: 4, पेज नंबर: 39)
  • अध्ययन ही उपासना है|  प्रमाणित मानव ही अध्यापक है जिनके सान्निध्य में ही अध्ययन है|  अध्ययन पूर्वक समझदारी से तदाकार-तद्रूपता पूर्वक स्वत्व, स्वतंत्रता अधिकार होता है| (अध्याय: 10, पेज नंबर: 73) 
  • विकास और जागृति सम्पूर्ण सृष्टि का लक्ष्य है तथा सृष्टि में प्रत्येक जड़ इकाई की चेष्टा विकास-क्रम व विकास रूप में ही है.  सृष्टि में इकाई के स्वतन्त्र अस्तित्व का दर्शन नहीं होता.  प्रत्येक इकाई वातावरण से प्रेरित रहता ही है.  सृष्टि, जड़ एवं चैतन्य, दो स्वरूप में है.  जड़ अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था समग्र व्यवस्था में भागीदारी रूप में है.  जिसका दृष्टा मानव है, किन्तु चैतन्य सृष्टि में मानव इकाई के जागृति पूर्वक स्वतन्त्र (स्वायत्त) होने की व्यवस्था है| यहाँ स्वतंत्रता का मतलब सबसे अलग होने से नहीं है, फिर स्वतंत्रता का क्या अर्थ है?  स्वतंत्रता का अर्थ है, अपने को सह-अस्तित्व सहज व्यवस्था में संगीतमय रूप में प्रमाणित करना|  मानव इकाई में इसकी पूर्ण संभावनाएं हैं तथा मानव ने स्वतंत्रता की अनुभूति भी की है| (अध्याय: 16, पेज नंबर:113)
  • चित्त जब बुद्धि का संकेत ग्रहण करने योग्य विकसित हो जाता है तब संतोष की अनुभूति होती है|  फलस्वरूप स्वायत्त मानव जीवन में जागृति का प्रादुर्भाव होता है अर्थात मानव स्व-तंत्रित होता है|
  • ऐसे स्वतन्त्र मानव में अधिक उत्पादन, कम उपभोग तथा अपव्यय का अत्याभाव होता है और वह अधिकाधिक जागृति के लिए प्रेरणास्त्रोत होता है| (अध्याय: 17, पेज नंबर: 144)

(2) मानव कर्म दर्शन (अध्याय: 18, संस्करण: 2004, मुद्रण- 2017, पेज नंबर: 167)

  • साध्य, साधन, साधक के रूप में जो सोचा जाता था, सहअस्तित्व वादी नजरिये से साधक को पहचानने का तरीका बहुत आसान, प्रयोजन से जुड़ा हुआ होना पाया जाता है। सहअस्तित्ववादी नजरिये से साधक मानव के रूप में पहचानने में आता है। साध्य के रूप में जीवन जागृति सुलभ हो पाता है। मानव स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार के रूप में जागृति ही पहचानने में आता है। ऐसे स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार, समझदारी के रूप में और ऐसी समझदारी ज्ञान, विज्ञान, विवेक रूप में पुन: स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार वैभवित होना पाया जाता है। यही जागृति का प्रमाण है।
  • मानव का साध्य वस्तु जागृति है। जिसका स्वत्व स्वतंत्रता एवं अधिकार का स्वरूप ज्ञान, विज्ञान, विवेक जिसका प्रमाण कार्य व्यवहार पूर्वक अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का स्वरूप है जो एक दूसरे से कड़ी के रूप में जुड़ा हुआ है। 

(3) मानव अभ्यास दर्शन (अध्याय: 1,2,4,6,8,10,13,15 संस्करण:द्वितीय, मुद्रण:2004, 2010, पेज नंबर:)

  • "प्रत्येक मानव स्वतंत्र, स्वतंत्रित एवं स्वतंत्रतापूर्ण होना चाहता है। स्वतंत्र-पूर्णता का प्रत्यक्ष रूप ही है ज्ञान विवेक सहित विज्ञान का प्रयोग, जिसमें ही नियमपूर्ण उत्पादन, न्यायपूर्ण व्यवहार, धर्मपूर्ण विचार एवं सत्यमय अनुभूति है। यही स्वतंत्रता सहज प्रमाण है, जो जागृति पर आधारित है। स्वतंत्रताधिकार मानवीता पूर्ण मानव देव तथा दिव्य मानवीयता की कोटि में सफल होता है। (अध्याय:1, पेज नंबर: 7) 
  • प्रत्येक मानव स्वतंत्रता के प्रति आशुक, कल्पनाशील तथा इच्छुक है।न्याय, धर्म, सत्य पूर्ण विधि से ‘‘स्वंय में से, के, लिए तंत्रित एवं नियन्त्रित जीवन-प्रतिष्ठा ही स्वतंत्रता है।’’
  • मानव में न्याय की चरितार्थता की क्षमता ही स्वतंत्रता है, यही सामाजिकता का प्राण व त्राण है। अमानवीयतावश (पशु मानव एवं राक्षस मानव) स्वतंत्र एवं संयत नहीं है। मानवीयतापूर्ण मानव संयमता से, में, के लिए स्वतंत्रता का प्रमाण है और ऐषणा त्रय सहित उपकार करता है। देव मानव स्वतंत्रता का प्रमाण है एवं लोकेषणा सहित उपकार करता है। अतिमानवीयतापूर्ण दिव्य मानव पूर्ण स्वतंत्र है तथा ऐषणा मुक्त विधि से उपकार करते हैं। स्वतंत्रता के प्रमाण में संवेदनशीलताएं संज्ञानशीलतापूर्वक नियन्त्रित रहना पायी जाती है। आत्मा के संकेतानुरूप बुद्धि, बुद्धि के संकेतानुरूप चित्त, चित्त के संकेतानुरूप वृत्ति, वृत्ति के संकेतानुरूप मन है, जो क्रम से अनुभव, बोध, इच्छा, विचार एवं आशा है। यही स्वतंत्र जीवन का प्रत्यक्ष रूप है। इसके विपरीत में लोकानुरूप, आशानुरूप एवं कल्पनानुरूप इच्छाएं परतंत्रता का प्रत्यक्ष रूप हैं, जबकि परतंत्रता मानव सहज वांछित घटना एवं उपलब्धि नहीं है। मध्यस्थ क्रिया पूर्ण जीवन ही स्वतंत्रता है। मध्यस्थ क्रिया का अस्तित्व है, इसलिए स्वतंत्रता की संभावना है। (अध्याय: 1, पेज नंबर: 8-9) 
  • अमानवीयता में असामाजिकता, मानवीयता में सामाजिकता एवं अतिमानवीयता में स्वतंत्रता, स्वराज्य प्रमाणित होता है, जो प्रसिद्ध है।
  • सामाजिकता से सम्पन्न हुए बिना मानव का अतिमानवीयता को पाना संभव नहीं है, क्योंकि जागृति एक सघन व्यवस्था एवं क्रम है। विचार सीमा में ही मानव स्वतंत्रता का अनुभव करता है, क्योंकि जागृत मानव का मूल मूत्र्त रूप आशा, विचार, इच्छा, संकल्प एवं अनुभूति और प्रमाण ही है। (अध्याय: 1, पेज नंबर: 10)
  • मानवीयता से परिपूर्ण होना ही स्वतंत्रता का प्रधान लक्षण है। स्वयं से तंत्रित होना न्याय, समाधान प्रमाणित होना ही स्वतंत्रता है। यही जीवन-चरितार्थता का लक्षण है। मानव के स्वत्व में क्षमता, योग्यता एवं पात्रता है। उनके स्वाधीन  (स्वबौद्धिकता के अधीन) में जिन वस्तु, स्थान व जीवों को पाया जाता है, उनकी अनिवार्यता मानव की उपयोग क्षमता में, से, के लिए ही है। क्षमता ही वहन, योग्यता ही प्रकटन एवं पात्रता ही ग्रहण क्रियाएं हैं, जो प्रत्येक मानव में प्रत्यक्ष हैं। साथ ही यही मानव का स्पष्ट रूप एवं अधिकार भी हैं। क्षमता, योग्यता एवं पात्रता ही मानवों का इकाईत्व, सीमा, संवेग, प्रवृत्ति, प्रतिभा, व्यक्तित्व, वहन, निर्वाह, निरूपण, निर्धारण, निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण एवं संयोजन है। यही उत्पादन, व्यवहार एवं अनुभव प्रमाण है।
  • वहनपूर्वक स्थापित मूल्यों का निर्वाह, शिष्टतापूर्वक शिष्ट मूल्यों का आचरण एवं व्यवहार, आचरण सहित भौतिक मूल्यों (उत्पादन मूल्यों) का समर्पण-अर्पण-उपयोगी सिद्ध हुआ है। यही स्वतंत्रता का मूल रूप है। स्वत्व निर्वाह से, स्वतंत्रता प्रयोजन से, अधिकार उपलब्धि से प्रमाणित है। मानव का अधिकार भौतिकता (उत्पादन व व्यवस्था) में, अधिकार एवं स्वतंत्रता बौद्धिकता (आचरण एवं स्वतंत्रता) में, अधिकार स्वतंत्रता एवं स्वत्व अध्यात्म (अनुभव) में चरितार्थ हुआ है। यही व्यवहारात्मक जनवाद, समाधानात्मक भौतिकवाद, अनुभवात्मक अध्यात्मवाद है, जो धर्म नीति एवं राज्य-नीति को स्पष्ट करता है। (अध्याय:2, पेज नंबर: 29-30) 
  • सतर्कता सहित समाधान, समाधान ही सार्वभौमता, सार्वभौमिकता ही निर्विषमता, निर्विषमता ही सत्यता, सत्यता ही यथार्थता, यथार्थता ही निर्भमता, निर्भमता ही अखण्डता, अखण्डता ही सफलता, सफलता ही सतर्कता है। सतर्कता-सजगता ही सफल सामाजिकता का लक्षण है। सामाजिकता शिष्टता सहित स्थापित मूल्यों का निर्वाह है जो अनुभव मूलक प्रकटन है। यही अभय का स्पष्ट रूप है। ऐसे जीवन में ही स्वतंत्रता, स्वत्व एवं अधिकार का विधिवत् सदुपयोग होता है। सतर्कतापूर्ण जीवन में अपव्यय की संभावना नहीं है| (अध्याय: 4, पेज नंबर: 61-62)
  • वर्ग वाद में अखंडता नहीं है। जब तक मानव जीवन में अखंडता नहीं है तब तक भय से मुक्ति नहीं है। जब तक भय से मुक्ति नहीं है तब तक स्वतंत्रता नहीं है, जब तक स्वतंत्रता नहीं है तब तक अपव्ययता का अभाव नहीं है। (अध्याय:4, पेज नंबर: 63)
  • मानव में विकसित अवस्था ही देव पद चक्र है। जिसके लिये मानव में सतत तृषा, अथक प्रयास एवं पूर्ण आकाँक्षा है। देव पद चक्र में संक्रमित होना ही मानवीयता सहज वैभव है। यही वैयक्तिक एवं परिवार की स्थिति में आचरण एवं व्यवहार है। इसका व्यवस्था एवं शिक्षा के रूप में उपलब्ध हो जाना ही मानवीयतापूर्ण समाज का प्रत्यक्ष रूप है। यह संक्रमण-प्रक्रिया चेतना विकास मूल्य शिक्षा के क्रम में भावी है। अमानवीयता से मुक्ति पाने के लिये मानवीयता एक संभावना है। मानवीयता से परिपूर्ण होने के अनन्तर यह मानव का अधिकार और स्वत्व है। यही अधिकार एवं स्वत्व, स्वतंत्रता के लिये उत्प्रेरणा है। पूर्ण स्वतंत्रता दिव्य मानवीयता में ही होती है। देव पद चक्र  में संक्रमित समाज ही जागृति सहज समाज है। इससे पूर्व की स्थिति में सामाजिकतापूर्ण समाज सिद्घ नहीं है, क्योंकि अमानवीयता में सामाजिकता का पूर्ण होना संभव नहीं है। इसी कारणवश वर्ग-संघर्ष का क्रम दृष्टिगोचर है। (अध्याय:4, पेज नंबर:68)
  • मानव में पायी जाने वाली स्वतंत्रता की तृषा का तृप्त हो जाना ही मानव-जीवन में दृष्टा पद एवं जागृति है। मानव जीवन भी जागृति क्रम है। स्वतंत्रता का प्रत्यक्ष रूप ही सतर्कता एवं सजगता है जो मानवीयतापूर्ण समाज, सामाजिकता, आचरण, संस्कृति, विधि, व्यवस्था एवं शिक्षा है। ये सभी परस्पर पूरक तथ्य हैं। (अध्याय 6:, पेज नंबर:88)
  • अन्तर्विरोध विहीनता ही मध्यस्थता है। यही संतुलन, समाधान, प्रत्यावर्तन, सतर्कता, सजगता एवं स्वतंत्रता है। (अध्याय: 8, पेज नंबर: 118)
  • ‘‘विधि पालन कामना मानव में पायी जाती है।’’ कामना को इच्छा में, इच्छा को तीव्र इच्छा में, तीव्र इच्छा को संकल्प में, संकल्प को संभावना में, संभावना को सुगमता में, सुगमता को उपलब्धि में, उपलब्धि को अधिकार में, अधिकार को स्वतंत्रता में, स्वतंत्रता को स्वत्व में, स्वत्व को व्यवहार एवं उत्पादन में चरितार्थ करना ही शिक्षा एवं व्यवस्था का आद्यान्त कार्यक्रम एवं उपलब्धि है।(अध्याय:10, पेज नंबर: 135)
  • ‘‘विधि विहित जीवन यापनाधिकार ही प्रत्येक मानव का मौलिक अधिकार है।’’ मौलिकता से परिपूर्णता ही मौलिक अधिकार है। मानव में मानवीयता पूर्ण क्षमता ही मौलिकता है। मानव के मौलिक अधिकार का प्रयोग व्यक्ति के आचरण एवं व्यवहार, परिवार के सहयोग एवं सहकार, समाज के प्रबोधन एवं प्रोत्साहन, राष्ट्र के संरक्षण एवं संवर्धन तथा अंतर्राष्ट्र में उसके अनुकूल स्थिति परिस्थिति के लिए किया गया कार्यक्रम है। संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था की एकात्मता ही अंतर्राष्ट्र में अनुकूल स्थिति-परिस्थिति है। मानवीयता को संरक्षण एवं संवर्धनदायी विधि व्यवस्था उसके व्यवहारान्वयन योग्य व्यवस्था पद्घति एवं नीति ही अखण्ड सामाजिकता का संरक्षण एवं संवर्धनकारी तत्व है। मानवीयतापूर्ण संस्कृति सभ्यता का प्रचार, प्रदर्शन, प्रकाशन, गोष्ठी, संगोष्ठी, आख्यान, स्पष्टीकरण एवं समीक्षात्मक कार्यकलाप ही समाज का प्रबोधन एवं प्रोत्साहन सर्वस्व है। परिवार में चारित्रिक एवं नैतिक कार्यक्रम में द्दढ़ता, विश्वास एवं अवगाहन क्षमता ही व्यक्ति के आचरण एवं व्यवहार में सहयोगिता एवं सहकारिता है, जो स्पष्ट है। यही मानव जीवन चरितार्थता का स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष रूप है। यही जीवन चरितार्थता भी है। यही मानव के मौलिक अधिकार तथा उसकी उपयोगिता, उपादेयता एवं उपलब्धि है। मौलिक अधिकार का अनुष्ठान ही स्वतंत्रता का लक्षण है। इसका पालन, अनुसरण एवं अनुशीलन ही स्वतंत्रता का द्योतक है। इसका पालन, अनुसरण एवं अनुशीलन ही स्वतंत्रता का द्योतक है। इसी मौलिक अधिकार में स्वत्व सिद्घि होती है। यही राष्ट्र में अखण्डता एवं प्रभुसत्ता, समाज में सह-अस्तित्व, परिवार में सहकारिता एवं व्यक्ति में मौलिक अधिकार का आचरण है। (अध्याय:10, पेज नंबर:137- 138)
  • प्रेमानुभूति ही स्वतंत्रता को स्पष्ट करती है। प्रेमानुभूति के बिना स्वतंत्रता पूर्वक मानवीयता का निर्वाह करना संभव नहीं है। स्वतंत्रता जीवन का लक्ष्य है। ‘‘मानवीयता से परिपूर्ण होना ही स्वतंत्रता की प्रतीति, प्रेमानुभूति का भास एवं उसकी संभावना का आभास होता है।’ (अध्याय: 13, पेज नंबर: 156)
  • स्वतंत्रतापूर्वक सामाजिकता का आचरण ही सामाजिकता की परिपक्वता है। स्वतंत्रता ही प्रेमानुभूति का प्रधान लक्षण है। (अध्याय: 13, पेज नंबर:157)
  • आत्मानुशासित जीवन स्वतंत्रतापूर्वक मानवता को अभिव्यक्त करता है। साथ ही देव मानव पद में प्रतिष्ठित होता है। देव मानव में निवृत्ति परिचय होता है। प्रत्यावर्तन के अनन्तर ही मध्यस्थ जीवन स्थापित होता है। यह स्वतंत्रता का प्रधान कारण है। मानव स्वतंत्रता के लिए अनादिकाल से प्रतीक्षारत है। प्रत्यावर्तन के अनन्तर स्वभावत: मानव स्वतंत्र होता है। यही देव मानव पद है। देवमानव मानव के लिए मार्गदर्शक होता है। प्रत्यावर्तन के अनन्तर ही आत्मा से बुद्घि, बुद्घि से चित्त, चित्त से वृत्ति एवं वृत्ति से मन अनुशासित होता है। मन से मेधस, मेधस से इंद्रिय व्यापार संपन्न होता है। इस पद्घति से आत्मानुशासित जीवन प्रकट होता है। (अध्याय: 15, पेज नंबर:173)

(4) मानव अनुभव दर्शन (अध्याय: 2,6, संस्करण: 2011, मुद्रण- 2016, पेज नंबर:)

  • क्लेश ही दास्यता है। यह अजागृति का प्रतीक है। उससे मुक्ति ही स्वतंत्रता का लक्षण है।       (अध्याय:2, पेज नंबर:9 )
  • स्वकर्म-परिपाक संस्कार अध्ययन एवं वातावरण ही स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के कारण है।        (अध्याय: 2, पेज नंबर:9 )
  • जागृत मानव में स्वतंत्रता ही समाधान, समाधान ही समत्व, समत्व ही सहज समाधि, सहज समाधि ही आनंद, आनंद ही जीवन जागृति, जागृति ही स्वतंत्रता है। (अध्याय: 2, पेज नंबर: 13-14 )
  • जड़ प्रकृति के साथ नियम पूर्वक उत्पादन, समाज में न्याय पूर्वक व्यवहार, स्वयं में समाधान पूर्ण विचार एवं सत्ता में अनुभवपूर्ण क्षमता से संपन्न होना ही मानव इकाई का परम जागृति है। यही स्वतंत्रता का आद्यान्त लक्षण व स्वानुशासन का स्वरूप है। स्वतंत्र मानव इकाई जागृति सहज प्रमाण है तथा अन्य उसका अनुसरण करने में या पूर्ण जागृति के निकट है। जागृति पूर्ण मानव इकाई अन्य के अभ्युदय के लिए सहायक है। स्वतंत्र मानव इकाइयों  की संख्या वृद्धि हेतु मानवीयता सहज व्यवहार उत्पादन तथा व्यवस्था का अध्ययन व आचरण की एकसूत्रता आवश्यक है। (अध्याय: 2, पेज नंबर:14)
  • चैतन्य क्रिया में आशा, विचार, इ'छा और संकल्प सक्रियता और  उसका परिमार्जन, विकल्प भी प्रसिद्घ है। सत्यानुभव-योग्य क्षमता, योग्यता, पात्रता से परिपूर्ण होने तक स्वीकृति रूपी परिपाक, परिमार्जन और जागृति सहज विकल्प की श्रृंखला बनी हुई है, जो पूर्णता एवं स्वतंत्रता हेतु मार्ग है। (अध्याय: 2, पेज नंबर:15 )
  • जड़ता के प्रति आसक्ति स्वतंत्रता का लक्षण नहीं है। उससे मुक्ति के लिए उपदेश है, यह जागृति के लिए प्रेरणा है। प्रत्येक मानव स्वतंत्र होना व रहना चाहता है। अनुभवसमुच्चय ही स्वतंत्रता है। दर्शनसमुच्चय पूर्वक कार्यक्रम-समुच्चय का अनुसरण करना ही साधना है। फलत: अनुभव है। (अध्याय:6, पेज नंबर: 35)
  • स्वतंत्रता ही अजेयत्व एवं अनुभव ही अमरत्व है। यही क्रम से सतर्कता एवं सजगता है जिसके लिए ज्ञानात्मा प्यासी है। (अध्याय:6, पेज नंबर: 35)

(5) समाधानात्मक भौतिकवाद (अध्याय: 4,5, संस्करण: 2009, पेज नंबर:)

  • विकास और जागृति क्रम में स्वतंत्रता एक मौलिक प्रकाशन है। स्वतंत्रता के लिए इकाई इसीलिए प्रवर्त होती गयी कि वातावरण और नैसर्गिकता के योगफल से प्रवर्तन होना एक अनिवार्य स्थिति रही। (अध्याय: 4, पेज नंबर: 42)
  • मानव (देव मानव) -> स्वभाव (दया, धीरता, वीरता, उदारता)-> विषय (लोकेषणा सहित उपकार प्रवृत्ति) -> दृष्टि (न्याय व धर्म प्रधान सत्य) ->प्रमाण (स्वराज्य में निष्ठा, स्वतंत्रता में निष्ठा) 
  • मानव (दिव्य मानव) -> स्वभाव (दया, कृपा करुणा )-> विषय (पूर्ण जागृति उपकार प्रधान) -> दृष्टि (न्याय व धर्म प्रधान सत्य) -> प्रमाण (स्वराज्य में निष्ठा, स्वतंत्रता में निष्ठा) (अध्याय: 5 , पेज नंबर:90 )

(6) व्यवहारात्मक जनवाद (अध्याय:6, संस्करण: 2009, मुद्रण: जनवरी 2017, पेज नंबर: 91-92)

हर मानव स्वराज्य स्वतंत्रता चाहता ही है। स्वतंत्रता का स्वरूप यही है :-

  • स्वयं में विश्वास करने में स्वतंत्रता
  • श्रेष्ठता का सम्मान करने में स्वतंत्रता 
  • प्रतिभा को लोकव्यापीकरण में स्वतंत्रता
  • व्यक्तित्व को प्रमाणित करने की स्वतंत्रता 
  • उत्पादन में स्वावलंबी होने की स्वतंत्रता
  • व्यवहार में सामाजिक होने की स्वतंत्रता
यही छ: विधा में स्वतंत्रता है इसमें निष्णात होने के फलस्वरूप:-

  • मानवीय शिक्षा कार्य में स्वतंत्रता
  • न्याय सुरक्षा कार्य में स्वतंत्रता 
  • उत्पादन कार्य में स्वतंत्रता 
  • विनिमय कार्य में स्वतंत्रता
  • स्वास्थ्य-संयम कार्य में स्वतंत्रता 
स्वयं स्फूर्त विधि से सम्पन्न होती है। इनमें हमें पारंगत होना है प्रमाणित होना है यही स्वतंत्रता का वैभव है। स्वतंत्रता के साथ स्वराज्य, स्वराज्य के साथ स्वतंत्रता अविभाज्य है। परिवार संबंध, मानव संबंध, प्राकृतिक संबंधो में  न्याय और संतुलन प्रमाणित करने में स्वतंत्रता बनी ही रहती है।

  • समाधानित मानव में, से, के लिए  कृत कारित , अनुमोदित विधि से किया गया| सम्पूर्ण क्रियाकलाप स्वतंत्रता है। उसके परिणामों की पहचान ही स्वराज्य है। स्वयं का वैभव अर्थात मानवकुल का वैभव स्वयं में स्वराज्य है। मानव कुल समझदारी के आधार पर ही संयुक्त वैभव को प्रमाणित कर पाता है न कि युद्घ, शोषण, द्रोह, विद्रोह से। संग्रह सुविधा के सर्वाधिकता के जगह में भी हजारो लाखो लोग इस धरती पर हो चुके हैं। इसके बावजूद पद, पैसा, प्रतिष्ठा सम्पन्न होते हुए उनके स्वयं में तृप्ति का न होना पाया जा रहा है। इस स्थिति में पद, पैसा, प्रतिष्ठा के आधार पर राज्य गद्दी क्या सफल हो पायेगी ? क्या स्वराज्य मिलेगा ? क्या मानव स्वतंत्र हो पायेगा ? ऐसा हम सोचने विचारने जाते है तब इससे नहीं  होगा, यही आवाज निकलती है। इसी मुद्दे पर विचार की आवश्यकता  इस व्यवहारात्मक जनवाद के माध्यम से प्रस्तुत करने में प्रयत्न शील है।
  • एक 'ज्वलंत प्रश्न है किताब प्रमाण होगा, यंत्र प्रमाण होगा या मानव प्रमाण होगा ? यदि मानव ही प्रमाण होगा तब हम आगे समझ बूझ तैयार करेगे यह मानव स्वीकृति के आधार पर निर्भर है। यंत्र और किताब के प्रमाण के आधार पर मानव कुल अभी तक स्वराज्य और स्वतंत्रता का इन्तजार करता ही आया है। अपनी अपनी संस्कृति, सभ्यता , धर्म, पूजा पाठ में स्वतंत्रता संविधानों में उल्लेखित है। इस प्रकार की स्वतंत्रता में न तो सार्वभौमता हुई न सार्वभौमता का रास्ता मिल पाया। यंत्रो के आधार पर जो स्वतंत्रता है वह स्वतंत्रता के लिए मूल वस्तु धन होना पाया गया  इसलिए मानव धन संग्रह में ज्यादा से ज्यादा अपनी मानसिकता और श्रम को नियोजित किया। हर समुदायों की अपनी अपनी पूजा स्थली होती है जो निर्माण शिल्प विधाओं से बनी रहती है। इसमें पूजा करने वाले या  ऐसे स्मारको में पूजा प्रार्थना करने वाले सब समुदाय अपने को अलग अलग मान लेते है। जबकि ये सब मानव ही रहते है। यही मूलत: स्वयं में अविश्वास का आधार रहा है। क्योंकि स्वयं का स्वरूप मानव ही होता है और कुछ भी नहीं होता है। हर समुदाय में प्रतिबद्घ मानव अन्य समुदायों से भिन्न मानना एक आदत बनी रहती है। आदतन अपने को  जब मानव गिरफत  कर लेता है अन्धकूप में हो जाता है। गिरफ्त होने का मतलब जो सर्व स्वीकृति की वस्तु न हो, ऐसी वस्तु (स्वयं स्वीकृति) में प्रतिबद्घता आ जाये, कट्टरता आ जाये, बर्बरता आ जाये, यही गिरफ्त होने का प्रमाण है। हर समुदाय या कोई भी समुदाय इस प्रकार की गिरफ्त में न तो स्वराज्य पाता है न स्वतंत्रता को पाता है, न व्यवस्था को पाता है। परिणाम स्वरूप व्यवहार मानव हो ही नहीं सकता।

(7) अनुभवात्मक अध्यात्मवाद (अध्याय:4,5 संस्करण: 2009, पेज नंबर:)
  • हर व्यक्ति परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में भागीदारी करने के लिये इच्छुक है,उत्साहित है। इसी के साथ बैरविहीन, सामरस्यता पूर्ण ‘परिवार मानव’ के रूप में जीने देकर, जीना चाहता है। यह मानव सहज स्वतंत्रता और स्वराज्य का उद्गार रूप में सर्वेक्षित है। इसे सफल बनाने के लिये अनुभवमूलक विधि से समीचीन है। इसके विपरीत शक्ति केन्द्रित शासन-संविधान जिसकी मानसिकता यथास्थिति की अपेक्षा गलती और अपराध के लिये दण्ड विधान, पड़ोसी देश और धर्म को अपना विरोधी और शत्रु होना मानते हुए इसका प्रचार पूर्वक प्रतिबद्धताओं को अर्थात् गलत मान्यताओं को हर प्रकार से मनवाना, मानने के लिये मत देना, यह समूल भ्रम पाया गया| (अध्याय:4 पेज नंबर: 110 )
  • ‘दिव्य मानव’ पद में दृष्टा-पद प्रतिष्ठा सार्थक अर्थात् सम्पूर्ण अभिव्यक्ति हो जाता है। यही ‘दिव्यमानव’-देवमानव और मानव के लिये प्रेरक होते है। सभी दिव्यमानव का समान कारकता, प्रेरकता प्रमाणित होती है। क्योंकि सम्पूर्ण सार्थक प्रेरणाएँ मानवापेक्षा, जीवनापेक्षा के अर्थ में ही होता है। यही ‘दिव्यमानव’ अमानव को मानव पद में स्वत्व, स्वतंत्रता अधिकार पूर्वक जीने की कला सहित प्रेरक होना पाया जाता है। (अध्याय: 4, पेज नंबर: 106 )
  • जीवन सहज प्रयोजन, जागृति और जागृतिपूर्णता ही है । जागृतिपूर्णता, उसकी निरन्तरता क्रम में सुख, शांति, संतोष, आनन्द अक्षुण्ण होना पाया जाता है। यह जागृतिपूर्ण मानव (दिव्यमानव) में, से, के लिए प्रमाण और प्रामाणिकता पूर्वक वैभवित होना स्वाभाविक है । यही स्वानुशासन और परम स्वतंत्रता है । यही गति का गंतव्य स्वरूप है।(अध्याय: 5, पेज नंबर: 138 )


(8) व्यवहारवादी समाजशास्त्र (अध्याय:, संस्करण:, पेज नंबर:)


  • जीवन विद्या भले प्रकार से बोधपूर्वक अनुभवगामी विधि से अध्ययन कराया जाना सहज है क्योंकि हर मनुष्य जीवन मूलक विधि से ही जी पाता है| जीवन मूलक विधि से जीने में विश्वास हो पाना ही स्वयं के प्रति विश्वास होने का तात्पर्य है| जीवन ज्ञान से अस्तित्व में मानव ही दृष्टा पद में होना समझ में आता है| इसी आधार पर मानव को ज्ञानावस्था की इकाई के रूप में पहचाना गया| ज्ञान का तात्पर्य सुस्पष्ट हो चुका है कि जीवन ज्ञान व अस्तित्व दर्शन है|  इसमें जागृत होने के उपरांत स्वयं स्फूर्त विधि से ही विवेकपूर्ण तर्क, विज्ञान सम्मत होना पाया गया है| ज्ञानावस्था सहज ज्ञान समृद्ध मानव ही, प्रामाणिकता, समाधान और न्यायपूर्ण विचार व्यवहार व कार्यप्रणालियों को प्रमाणित करता है| प्रत्येक मनुष्य में से के लिए अनुभव व्यवहार और प्रयोग ही प्रमाण है| अनुभव मूलक विधि से किया गया व्यवहार व प्रयोग तर्क सम्मत हो व प्रयोजनकारी होना पाया जाता है| यही ज्ञानवस्था का वैभव है ऐसा वैभव ही स्वराज्य व स्वतंत्रता के रूप में प्रमाणित होता है|(अध्याय:3, पेज नंबर: 49-50 ) 
  • ‘मानवत्व’ ही मानव परंपरा में स्वत्व, स्वतंत्रता और अधिकार के रूप में नीति प्रमाणित है| ‘मानवत्व’ प्रत्येक स्त्री, पुरुष में समान होता है|  
  • स्वतंत्रता:- प्रत्येक मानव अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था (मानव धर्म) में भागीदारी निर्वाह करने, कराने एवं करने के लिए मत देने में स्वतंत्र है| अखंड समाज और सार्वभौम व्यवस्था की अक्षुण्णता मानवीय शिक्षा- संस्कार, स्वास्थ्य- संयम, न्याय-सुरक्षा, उत्पादन-कार्य, विनिमय-कोष, सुलभता सहित है जिसका क्रियान्वयन दस सीधी में होता है| 1. ‘परिवार’ सभा, 2. ‘परिवार समूह’ सभा, 3. ‘ग्राम परिवार’ सभा, 4.’ग्राम समूह’ परिवार सभा 5. ‘ग्राम क्षेत्र’ परिवार सभा, 6. ‘मंडल’ परिवार सभा, 7. ‘मंडल समूह’ परिवार सभा, 8. ‘मुख्य राज्य’ परिवार सभा, 9. ‘प्रधान राज्य’ परिवार सभा और 10. ‘विश्व राज्य’ (अध्याय 5:, पेज नंबर: 127- 128)
  • स्वतंत्रता का संतुलन स्वराज्य विधि में, स्वराज्य स्वतंत्रता विधि में संतुलित रहता है| 
  • संतुलन ही हर व्यक्ति में दायित्व और कर्तव्य के रूप में नियंत्रित रहना पाया जाता है। यही संपूर्ण कार्यों में नियमित रहना होता है। इस प्रकार मानव अपने परिभाषा के अनुरूप अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान को स्वीकृति के रूप में स्वानुशासन के रूप में स्वतंत्रता को; समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में स्वराज्य व्यवस्था को प्रमाणित करता है। यही मानव सहज परिभाषा का सार्थकता, उपकार, तृप्ति और उसकी निरंतरता है। अस्तु, मानव अपने परिभाषा सहज सार्थकता को प्रमाणित करना ही मौलिक अधिकार है| (अध्याय: 6, पेज नंबर: 148) 
  • संविधान का लक्ष्य - '. परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था (मानव धर्म) स्वानुशासन रूपी स्वतंत्रता है। मानव धर्म समाधान सहज तृप्ति (सुख, शांति, संतोष, आनन्द और समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) और उसकी निरंतरता ही ‘‘स्वत्व’’ है। (अध्याय: 4, पेज नंबर: 125)
  • मौलिक अधिकार का आधार भी मानवत्व ही है। यही स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार रूपी मूल ऐश्वर्य है अथवा सम्पूर्ण ऐश्वर्य है। इसी ऐश्वर्य को वर्तमान में प्रमाणित करने के क्रम में ही स्वराज्य और स्वतंत्रता को परंपरा के रूप में प्रमाणित कर सकते हैं जिससे ही समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व सर्वसुलभ होना नित्य समीचीन है। सर्ववांछा अथवा अपेक्षा अथवा आवश्यकता सर्वमानव में निहित है।(अध्याय: 6, पेज नंबर: 150)
  • मानव परंपरा भी नियति क्रम विधि से परंपरा के रूप में अक्षुण्ण है। अतएव मानव परंपरा में मानवत्व अक्षुण्ण होना नित्य समीचीन है। यही मानव सहज स्वत्व, स्वतंत्रता और अधिकार की व्याख्या है। दूसरे विधि से यही समझदारी अनुरूप विचार शैली के अनुरूप कार्य-व्यवहार और कार्य-व्यवहार का फल-परिणाम का सटीक मूल्यांकन पुन: समझदारी की पुष्टि, यही आवर्तनशील होना पाया जाता है। इसी क्रम में समझदारी को स्वत्व के रूप में, विचार शैली को स्वतंत्रता के रूप में, कार्य-व्यवहारों का अधिकारों के रूप में वर्तमान होना पाया जाता है। इस प्रकार जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही स्वत्व, स्वतंत्रता और अधिकार है। यह हर मानव में जागृति पूर्वक वर्तमान होना ही/रहना ही मानव परंपरा का वैभव है। यही वैभव परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के रूप में प्रमाणित रहता है। व्यवस्था में भागीदारी स्वयं समाधान मानव धर्म का द्योतक है। न्याय प्रदायी विधियाँ समाज का द्योतक है। जागृति सहज सम्पूर्ण प्रमाण सत्य का द्योतक है। इस प्रकार न्याय, धर्म, सत्य पूर्ण जीवन क्रियाकलाप जागृत संचेतना के रूप में नित्य प्रमाण होता है। ऐसा स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार हर व्यक्ति के लिये, हर परिवार के लिये, सम्पूर्ण मानव के लिये समान रूप में समीचीन है। (अध्याय: 7, पेज नंबर: 259)
  • शिक्षा-संस्कार का आधार रूप अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन, मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववादी विधि) से सम्पन्न होना देखा गया है। यही परम जागृति का द्योतक है। यही जागृत मानव परंपरा की आवश्यकता है। मध्यस्थ दर्शन का तात्पर्य मध्यस्थ जीवन, मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्ति, मध्यस्थ सत्ता सहज विधि से अध्ययन कार्य को सह-अस्तित्व सूत्र में पूर्णतया सजा लिया गया। यही शिक्षा का महत्वपूर्ण उपलब्धि है। मध्यस्थ जीवन का स्वरूप नियम, न्याय, धर्म, सत्य पूर्ण विधियों से जीने की कला ही है। यही परिवार मूलक स्वराज्य के रूप में स्वतंत्रता और स्वानुशासन के रूप में प्रमाणित होना देखा गया है। यही मध्यस्थ जीवन का वैभव है। ऐसा स्वराज्य और स्वतंत्रता हर मानव में, से, के लिये एक चाहत होता ही है।(अध्याय: 9, पेज नंबर: 282)


(9) आवर्तनशील अर्थशास्त्र (अध्याय:7, संस्करण: 2009, पेज नंबर: )
  • सृष्टि, जड़ एवं चैतन्य दो अवस्थाओं  में है। जड़ अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था के रूप में है। जिसका दृष्टा मानव है किन्तु चैतन्य सृष्टि में मानव इकाई के स्वतंत्र (स्वायत्त) होने की व्यवस्था है। यहाँ स्वतंत्रता का अर्थ सबसे अलग होने से नहीं है, फिर स्वतंत्रता का क्या अर्थ है?  स्वतंत्रता का अर्थ है, अपने को सह-अस्तित्व सहज व्यवस्था में संगीतमय रुप में प्रमाणित करना। मानव इकाई में इसकी पूर्ण संभावनाएँ हैं तथा जागृत मानव ने स्वतंत्रता की अनुभूति भी की है। जड़ प्रकृति के साथ नियम पूर्वक उत्पादन, समाज में न्याय पूर्वक व्यवहार, स्वयं में समाधानपूर्ण विचार एवम् सत्ता में अनुभवपूर्ण क्षमता से सम्पन्न होना ही स्वतंत्रता का आद्यान्त लक्षण है। (अध्याय: 7, पेज नंबर: 217)
  • स्वायत्त मानव से परिवार मानव, परिवार मानव से ही व्यवस्था मानव, व्यवस्था मानव से ही समग्र व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करने का स्वत्व, स्वतंत्रता और अधिकार को स्पष्ट करता है। अधिकार का तात्पर्य अनुभव बल के रूप में दृष्टव्य है। यही मानव अधिकार है। अनुभव बल को प्रमाणित करने का कार्य ही स्वत्व के रूप में देखने को मिलता है। ऐसे अधिकार और स्वत्व के सूत्रों पर व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी प्रमाणित होना ही स्वतंत्रता है। (अध्याय: 7, पेज नंबर: 219 ) 


(10) मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान (अध्याय: 3,5, संस्करण: 2008, पेज नंबर:)
  • इस बीसवीं शताब्दी की दसवीं दशक तक व्यक्तिवादी समुदाय परम्परा में अभी तक की शिक्षा, संस्कार विधियों से, समुदायवादी अथवा व्यक्तिवादी प्रयासों की अपेक्षा में होते हुए भी, स्वतंत्रता और स्वराज्य रूपी ध्रुवों के आधार पर सफल होने का आधार, किसी परम्परा में करतलगत नहीं हुआ अर्थात व्यवहार में प्रमाणित, शिक्षा में प्रबोधित नहीं हुआ। जिसके फलस्वरूप पुन: व्यक्तिवादी मानसिकता और समुदायवादी मानसिकता के लिए मानव विवश होते आया। इस प्रकार व्यक्तिवादी समुदाय परम्परा का स्वरूप स्पष्ट हो गया। सर्वमानव जागृति सहज विधि से इसे स्वतंत्रता और स्वराज्य पूर्वक, अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था, स्वानुशासन रूप चरित्र मूल्य, नैतिकता की मानसिकता का लोकव्यापीकरण सहित, प्रमाणित करने की आवश्यकता निर्मित हुई है। इसी क्रम में, अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन ज्ञान के आधार पर, यह “मानव-संचेतनावादी मनोविज्ञान’’ प्रणयित हुआ है।              (अध्याय: 3, पेज नंबर: 30)
  • मानव में संचेतना ही विशिष्ट वस्तु है, जिसका प्रभावन कार्य ही जागृति के रूप में प्रमाणित होता है। जागृति पूर्वक ही मूल्यांकन कार्य सम्पन्न होता है। श्रेष्ठता के मूल्यांकन का एक ध्रुव, मानव संचेतना है, उसकी जागृति (यथा जानने मानने, पहचानने, निर्वाह करने) में संगीत है, जिसका प्रमाण जानने में, निर्वाह करने में, सामंजस्यता है (अथवा एक रूपता है)। दूसरा ध्रुव अस्तित्व सहज, सह-अस्तित्व में, प्रयोजनों के साथ प्रमाणित होना ही है। यही जागृति प्रभाव और प्रभाव क्षेत्र के रूप में भी मानव परम्परा में स्पष्ट हो पाता है। मानव परम्परा में सम्पूर्ण प्रयोजन “व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी’’ के रूप में “परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था’’ ही है, जिसका लक्षण समाधान, समृद्धि, अभय तथा सह-अस्तित्व ही है। यही सर्व मानव स्वीकृति है। इसी लक्षण या फलन के अर्थ में, व्यवस्था की सहज प्रतिष्ठा है। इन्हीं में श्रेष्ठता की पहचान हो पाती है। फलस्वरूप सम्मान कार्य सम्पन्न होता है। दूसरा प्रयोजन स्वानुशासन है, यही स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता में भी, श्रेष्ठता का प्रयोजन, लोकव्यापीकरण, प्रयोजन के आधार पर मूल्यांकित होता है। इस प्रकार सम्मान कार्यकलाप, सार्वभौमता के अर्थ में, चरितार्थ होना पाया जाता है। (अध्याय: 5, पेज नंबर: 53 )
  • जीवन तृप्ति का तात्पर्य - स्वराज्य और स्वतंत्रता में प्रमाणित होना है। इसे पाने के पहले, इस संदर्भ में सम्पूर्ण अध्ययन संपन्न होने में शिक्षा-संस्कार की प्रमुख भूमिका है। यह अध्ययन भी, जिसका एक अनिवार्य भाग है। मानव परम्परा के जागृत होने के उपरान्त ही इसके, सबको सुलभ होने की संभावना समीचीन है। (अध्याय: 5, पेज नंबर: 79)
  • मानवीयता अपने कार्य-व्यवहार रूप में, वृत्ति (ऐषणात्रय) और निवृत्ति (स्वतंत्रता, स्वानुशासन) का अविभाज्य वर्तमान है। (अध्याय: 5, पेज नंबर: 119)
  • मानव जब मानवत्व को पहचानता है, स्वीकारता है, निश्चय करता है तभी जागृति के प्रमाण के रूप में स्वंय में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता है। मानव का स्वत्व मानवत्व है ही, इसलिए मानवजाति का आधार मानवत्व है। स्वतंत्रता व स्वराज्य ही मानवत्व का लक्ष्य है।                  (अध्याय: 5, पेज नंबर: 171)
  • कर्म स्वतंत्रता का तृप्ति बिंदु स्वतंत्रता है जो स्वानुशासन के रूप में प्रमाणित होता है। स्वानुशासन जीवन-जागृति, मानव जागृति, अस्तित्व में जागृति का प्रमाण है। जबकि स्वतंत्रता, मानव परम्परा अर्थात मानवीय शिक्षा संस्कार, संविधान, राज्य व्यवस्था का सामरस्यता है। यही अस्तित्व में, मानव के जागृत होने का साक्ष्य है। जागृत परम्परा की धारक वाहकता सहज प्रमाण, स्वराज्य के आधार पर मानवीय आचरण व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी, परिवार, समाज, व्यवहार, न्याय व सर्वतोन्मुखी समाधान ही, सतत तृप्ति का स्रोत बना ही रहता है। फलस्वरूप प्रामाणिकता अर्थात अस्तित्व, सह-अस्तित्व, विकास, जीवन, जीवन जागृति, रासायनिक और भौतिक रचना-विरचना सहज सत्य को जानना, मानना, उसकी तृप्ति बिंदु में जीना, उसका निरंतर वर्तमान होना ही प्रामाणिकता है। जागृति, भ्रम मुक्ति और मुक्त जीवन है। मुक्ति समझदारी और प्रमाणिकता प्रमाण सहज योगफल में होना पाया गया है। (अध्याय: 5, पेज नंबर: 181)
  • यशस्वी होने का तात्पर्य - स्वतंत्रता और स्वराज्य में प्रमाणित होने से है। (अध्याय: 5, पेज नंबर: 221)
  • प्रेमानुभूति स्वयं स्वतंत्रता स्वानुशासन के रूप में प्रमाणित होता है।  अस्तित्व में अनुभूति पूर्वक ही प्रेमानुभुति और अभिभूति प्रमाणित होता है। स्वतंत्रता जीवन का लक्ष्य है। अभिभूति ही नियम नियंत्रण, संतुलन न्याय, धर्म सत्य सहज विधि से पूरक होने का प्रमाण है। पूरक होने का प्रमाण मानव सम्बंधों के नैसर्गिक सम्बंधोंं में सार्थक होना पाया जाता है। मानव सहज मानव संचेतना का प्रमाण सहजता के आधार पर स्वानुशासन सहज ही सार्थक होना पाया जाता है। प्रेमानुभूति का प्रधान लक्षण अनन्यता है। प्रत्येक मनुष्य, अपने से विकसित के साथ अनन्यता को स्थापित करता है। यह जागृति परम्परा की महिमा है। 
  • स्वतंत्रता ही प्रेमानुभूति का प्रधान लक्षण है। प्रेमानुभूति में सहजता और प्रमाणिकता वर्तमान रहता है। (अध्याय 5:, पेज नंबर: 224)

(11) मानवीय संविधान सूत्र व्याख्या (अध्याय: 2,4,5,6,7,9,10,12, संस्करण: प्रथम, मुद्रण- 2007, पेज नंबर:)
  • मानवीय संविधान, परिचय - मानवीयता सहज साक्ष्य रूप में पूर्णता, स्वराज्य, स्वतंत्रता और उसकी निरंतरता को जानने, मानने, पहचानने व निर्वाह करने, कराने और करने योग्य मूल्य, चरित्र, नैतिकता रूपी विधान|(अध्याय: 2, पेज नंबर: 9)
  • ‘‘जागृति मानव सहज स्वीकृति है।’’ मानव सहज कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता का तृप्ति बिंदु स्वानुशासन है । यह परम जागृति के रूप में प्रमाणित होता है। यह मानव परंपरा में मौलिक विधान है। 
  • ‘‘सार्वभौम व्यवस्था व अखंड समाज, मानव सहज वैभव है।’’ मानव सहज कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता का तृप्ति बिंदु परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित होता है। यह मौलिक विधान है। (अध्याय: 2, पेज नंबर: 10 )
  • स्वतंत्रता- 
  1.  जागृत मानव स्वयं स्फूर्त विधि से संस्कृति-सभ्यता, विधि-व्यवस्था में भागीदारी| 
  2. पूर्णता सहज निरंतरता, मानवीय संस्कृति-सभ्यता, विधि-व्यवस्था सहज अक्षुण्णता एवं परम्परा  
  3.  प्रामाणिकता व समाधान पूर्ण अभिव्यक्ति, सम्प्रेषणा व  प्रकाशन क्रिया सहज परम्परा । 
  4. स्वानुशासन पूर्ण पद्धति, प्रणाली, नीति पूर्वक किया गया कार्य-व्यवहार-विचार विन्यास परम्परा । (अध्याय: 2, पेज नंबर:19 )
  • ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्पन्नता पूर्वक अखण्डता सार्वभौमता सूत्र व्याख्या स्वयं स्फूर्त होना ही सार्थक स्वतंत्रता है । यह जागृति सहज वैभव है । (अध्याय:4, पेज नंबर: 47)
  • स्वतंत्रता = स्वयं स्फूर्त विधि से समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी में-से-के लिये प्रमाण परंपरा । हर जागृत मानव समझदारी सहित अधिकार को प्रमाणित करने में स्वतंत्र है ।
  • स्वयं स्फूर्त विधि से सर्वतोमुखी समाधान में से के लिए प्रमाण वर्तमान|(अध्याय: 5, पेज नंबर: 59-60)
  • मौलिक अधिकार को प्रमाणित करने के लिए स्वयं स्फूर्त विधि से प्रवृत्त रहना स्वतंत्रता है ।     (अध्याय: 5, पेज नंबर: 58)
  • स्वतंत्रता का अधिकार - स्वतंत्रता - 
  1. जीवन-मूल्य सुख-शांति-संतोष-आनन्द सहज वैभव को सर्वतोमुखी समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व रूपी परम सत्य में प्रमाणित होने, करने, कराने एवं सहमत कराने में हर नर-नारी स्वतंत्र हैं। यह मौलिक अधिकार है।
  2. मानव सहज बहुआयामी समझदारी को प्रमाणित करने में हर जागृत नर-नारी स्वतंत्र है । यह मौलिक अधिकार है।
  3. मानवीयता पूर्ण परम्परा पाँच आयामी व्यवस्था में भागीदारी करने में हर जागृत नर-नारी स्वतंत्र है । यह मौलिक अधिकार है।
  4. हर जागृत नर-नारी को तन-मन-धन रूपी अर्थ का सदुपयोग व सुरक्षा करने की स्वतंत्रता है । यह मौलिक अधिकार है ।
  5. हर जागृत नर-नारी मानवत्व सहित व्यवस्था समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने की स्वतंत्रता है । यह मौलिक अधिकार है । (अध्याय: 6, पेज नंबर: 67-68)
  • स्वत्व, स्वतंत्रता - जागृत मानव में, से, के लिए स्वत्व स्वतंत्रता सहज वैभव है । वैभव अपने स्वरूप एवं स्थिति में स्वत्व और गति में स्वतंत्रता है । स्वत्व के रूप में स्वतंत्र जिम्मेदारी, भागीदारी है और स्वतंत्रता रूप में प्रमाण परम्परा है । जागृत मानव में समझदारी और ईमानदारी स्वत्व के रूप में और जिम्मेदारी-भागीदारी स्वतंत्रता सहज रूप में प्रमाण और परंपरा है । जागृति मानव में जीवन मूल्य, मानव मूल्य, स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य एवं वस्तु मूल्य में, से, के लिए स्वतंत्र है । मानव चेतना मूलक शिक्षा मूल्य सहित उपयोगिता-कला मूल्य नियोजन में श्रम मूल्य स्वतंत्रता है|                         (अध्याय: 6, पेज नंबर: 69-70)
  • परंपरा में स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार सहज स्वराज्य प्रमाणित रहना न्याय है|                           (अध्याय: 7, पेज नंबर: 118)
  • परंपरा में अनुभव मूलक, शिक्षा-दीक्षा, दीक्षान्त (परम्परागत) विवाहोत्सव कार्यक्रम न्याय और स्वतंत्रता है । (अध्याय: 7, पेज नंबर: 119 )
  • मानवत्व मानवीयता पूर्ण आचरण और दस सोपानीय अथवा मानव व्यवस्था का सर्व सुलभ होना ही ज्ञानावस्था सहज, मानव सहज अपेक्षा व आवश्यकता व प्रयोजन है । इसलिये इसकी प्रमाण-परंपरा ही स्वराज्य व स्वतंत्रता पूर्ण वैभव है ।(अध्याय: 9, पेज नंबर: 211 )
  • संविधान  हर  नर-नारी  का  स्वत्व-स्वतंत्रता-अधिकार  सहज अभिव्यक्ति, सम्प्रेषणा, प्रकाशन नित्य उत्सव है । मानवीयतापूर्ण आचरण जागृत मानव सहज प्रमाण है । सर्वदेश-काल में स्थित सर्व मानव जागृति सहज सम्पन्न होना-रहना चाहते हैं । सर्व मानव अथवा प्रत्येक मानव सर्व शुभ सुख, सौन्दर्य सम्पन्नता सहित स्व कल्याण सर्वशुभ संपन्न होना-रहना नित्य उत्सव है।                             (अध्याय: 9, पेज नंबर:215)
  • ‘‘अखण्ड समाज सूत्र व्याख्या पर आधारित ग्राम मोहल्ला स्वराज्य है’’ ग्राम स्वराज्य की मूलभूत इकाई समझदार परिवार है । परिवार स्वयं  मानव चेतना मूल्य सम्पन्न मानवीयता पूर्ण व्यवस्था सहज मौलिक रूप है । मानवीयता स्वयं स्वराज्य एवं स्वतंत्रता का सूत्र स्वरुप है । स्वराज्य का तात्पर्य  न्याय-सुलभता, उत्पादन-सुलभता और विनिमय-सुलभता है। इसके पूरकता में शिक्षा – संस्कार, स्वास्थ्य आवश्यक है| स्वतंत्रता का तात्पर्य प्रत्येक मानव का स्वानुशासन सहज प्रामाणिकता और समाधान पूर्वक अभिव्यक्त, संप्रेषित व प्रकाशित होने से है, जो सहअस्तित्व रूपी परम सत्य अनुभव पूर्वक विधि से जानने व मानने से है अर्थात् सह-अस्तित्व में परस्पर संबंधों व मूल्यों को पहचानने व निर्वाह करने से है । यही शिक्षा-संस्कार, न्याय –सुरक्षा सुलभता स्त्रोत है| ‘‘अस्तित्व में प्रत्येक मानव’’ मानवत्व सहित व्यवस्था है, और ‘‘ समग्र व्यवस्था में भागीदार है ।’’ इसका प्रत्यक्ष रूप स्वतंत्रता के रूप में स्वयं में व्यवस्था और स्वराज्य के रूप में  समग्रता के साथ भागीदारी है । (अध्याय: 10, पेज नंबर:216 )
  • ‘‘मानव परंपरा में स्वायत्तता का स्वरूप स्थिति में स्वतंत्रता (स्वानुशासन) व गति में स्वराज्य है ।’’ (अध्याय: 10, पेज नंबर:217 )
  • ‘‘जीवन जागृति ही स्वयं अभिव्यक्ति में प्रामाणिकता, संप्रेषणा में समाधान और प्रकाशन में स्वतंत्रता तथा स्वराज्य है । यही प्रत्येक-व्यक्ति अपने में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण है।’’ यही अखंड मानव समाज का सूत्र और स्वरुप है। (अध्याय: 10, पेज नंबर:218 )
  • स्वराज्य, स्वतंत्रता, स्वत्व - स्वतंत्रता: स्वयं स्फूर्त विधि से मानव चेतना पूर्वक अक्षुण्णता, सार्वभौमता सहज सूत्र व्याख्या सहज प्रमाण परंपरा है| (अध्याय: 12, पेज नंबर: 282 )

(12) मानवीय आचरण सूत्र (अध्याय: 10, संस्करण:  , पेज नंबर: 66-68 )

स्वराज्य ,स्वतंत्रता, स्वत्व 
  • प्रबुद्धता का प्रमाण सह-अस्तित्ववादी, ज्ञान-विज्ञान-विवेकपूर्ण सर्व शुभ संगत समाधान सहज प्रमाण है। संप्रभुता सर्वतोन्मुखी समाधान सम्पन्नता का प्रमाण और प्रभुसत्ता, प्रबुद्धता पूर्ण सत्ता के रूप में अखण्ड-समाज, सार्वभौम-व्यवस्था ही वैभव है। यही स्वतंत्रता और स्वराज्य है।
  • स्वराज्य को प्रमाणित करने के लिए स्वयं स्फूर्त रहना ही स्वतंत्रता है। मानवत्व सहित व्यवस्था व समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना स्वराज्य है।
  • संप्रभुता सर्वतोन्मुखी समाधान सम्पन्नता का प्रमाण है और प्रभुसत्ता प्रबुद्धता पूर्णसत्ता (परम्परा) के रूप में अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था ही वैभव है यही स्वतंत्रता स्वराज्य है।
  • स्वतंत्रता ही प्रबुद्धता व प्रभुसत्ता का प्रमाण है। और मानवत्व सहित व्यवस्था व समस्त व्यवस्था में भागीदारी ही प्रभुसत्ता है। यही जागृत मानव-परंपरा है।
  • ‘स्वत्व’  ही स्वतंत्रता व अधिकार को प्रमाणित करने का स्रोत है। 
  • स्वायत्तता स्वयं स्फूर्त स्व-अनुशासन रूपी स्वतंत्रता, स्वराज्य वैभव है।
  • जागृत मानव सहज आवश्यकताएं सीमित होना, आवश्यकता से अधिक उत्पादन, फलस्वरूप समृद्ध होना समीचीन है।
  • आवश्यकता का निश्चयन परिवार में, से, के लिए होता है।
  • हर परिवार में आवश्यकताएं निश्चित होने के कारण ही आवश्यकता से अधिक उत्पादन सहज है।
  • हर मानव के लिये अनुभव प्रमाण सम्पन्न होना स्वत्व स्वतंत्रता है।
  • स्वत्व के अनुरूप किया गया लक्ष्य व दिशा निर्धारण ही स्वतंत्रता है।
  • स्वत्व अविभाज्य सम्पदा है जो वैभव का आधार है।
  • स्वतंत्रता स्वयं स्फूर्त विधि से लक्ष्य व दिशा निर्धारण क्रिया है जो आगे-आगे स्पष्ट योजना व प्रमाण कार्य-योजना गति का उदय पूर्वक प्रवृत्ति है।
  • स्वायत्ता स्व स्फूर्त विधि से परिवार व्यवस्था ग्राम व्यवस्था में भागीदारी के रूप में स्पष्ट होती है। जागृति सहज प्रमाण है।
  • स्वत्व ही अधिकार या अधिकार ही स्वत्व, स्वतंत्रता ही विधि या विधि ही स्वतंत्रता, व्यवस्था ही नैतिकता या नैतिकता ही व्यवस्था है। ऐसा सर्व शुभ सर्व मानव के लिए समीचीन है।
(13) संवाद (अध्याय:, संस्करण:, पेज नंबर:) 


इनको भी देखें: 
स्वत्व, स्वराज्य

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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