Tuesday 7 November 2017

जागृतिशील

परिभाषा: 
  • जागृति की ओर जागृति क्रम में प्रकाशन शीलता। 
  • जागृति की और गतिशीलता की पहचान।
(परिभाषा संहिता, संस्करण : 2012 मुद्रण: 14 जनवरी 2016, पृष्ठ नंबर: 75)

(1) सन्दर्भ : मानव व्यवहार दर्शन (अध्याय: संस्करण:2011, मुद्रण- 2015, पृष्ठ नंबर:)
  • मानव इस सृष्टि में सर्वोच्च विकसित, जागृतिशील, व जागृत रूप में प्रमाणित होने योग्य इकाई है  इसीलिये मानव में तीनो सृष्टि यथा पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, एवं जीव-अवस्था के गुण, स्वभाव, एवं धर्म समाविष्ट रहते ही हैं। (अध्याय: 14, पेज नंबर: 93)
  • हर मानव जागृतिशील है अथवा जागृत होना चाहता है।  हर मानव योग पूर्वक ही जागृत होता है।  जागृति के लिए ही वह आतुर, कातुर, आकुल, व्याकुल, आवेशित अथवा उद्विग्न रहता है।
◘ आतुर: - पात्रता से अधिक इच्छा व्यक्त करने का प्रयास।
◘ कातुर: - वांछित इच्छा पूर्ति के लिए शीघ्रता से कार्यरत होना जिसमे कुशलता, निपुणता और पांडित्य का अभाव हो।
◘ आकुल: - वांछित के अभाव की पीड़ा का अनुभव।
◘ व्याकुल: - वांछित की पीड़ा से भर जाना।
◘ उद्विग्न: - वांछित क्रिया में अप्रत्याशित गति।
◘ आवेश: - अतिक्रमण या आक्रमण से प्राप्त दबाव ही आवेश है।
◘ विधिवत आचरण: - धर्मनीति एवं राज्यनीति सम्मत व्यवहार। (अध्याय:18 , पेज नंबर:154-155)
(2) सन्दर्भ : मानव कर्म दर्शन (अध्याय: संस्करण:2010, मुद्रण:2017, पृष्ठ नंबर: )
  • ज्ञानपूर्ण जीवन में निर्भ्रमता का उदय एवं विपरीत में भ्रम का भास दृष्टव्य है। ज्ञान में ही अनुभव, संकल्प, इच्छा, विचार एवं आशा है, जिनका पूर्ण प्रकटन चैतन्य इकाई की जागृति शीलता एवं क्षमता पर आधारित पाया जाता है। (अध्याय: 1, पेज नंबर:4)
  • मानवीयतापूर्ण मानव और उससे अधिक जागृतिशीलता ही ऊर्ध्वमुखी जीवन में गण्य है जिसमें दया, सरलता, त्याग, तप, परोपकार, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह तथा गौरव जैसी मौलिक मूल्यवत्ता आचरित होती है। यही स्व-पर, मांगलिक है। (अध्याय: 1, पेज नंबर: 31)
  • मानव में शक्तियाँ क्रिया; इच्छा एवं ज्ञान शक्ति ही है, जो उनकी अर्हताएँ हैं। अर्हताएँ प्रत्येक इकाई की जागृतिशीलता, जागृति पर आधारित पाई जाती है। जागृतिशीलता के लिये ही उपासनायें हैं, न कि ह्रास के लिये। (अध्याय: 2, पेज नंबर:39-40)
(3)  सन्दर्भ :मानव अभ्यास दर्शन (अध्याय: संस्करण:2010 , पृष्ठ नंबर:)
  • मानव मध्यस्थ क्रिया के अनुसरण-पूर्वक ही जागृतिशील है। यह जागृति की एक अवस्था का द्योतक है। मानव में ही मध्यस्थ को अनुसरण करने का अवसर है। सम-विषम के नियन्त्रण का आधार मध्यस्थ है, साथ ही मध्यस्थ क्रिया ही समाधान है अन्यथा प्रत्येक द्वन्द्व समस्या-जनक है। (अध्याय: 1, पेज नंबर:6)
  • मध्यस्थ क्रिया (आत्मा) में ही अनुभव में प्रवृत्त रहने, अनुभव से प्रभावित होने और प्रभावित करने तथा अनुभव के लिए जागृतिशील रहने की संभावना एवं अवसर है, क्योंकि अनुभव आत्मा में ही होता है, अनुभव मध्यस्थता है। यह उत्पादन में नियम, व्यवहार में न्याय, विचार में समाधान एवं अनुभव में सत्य है साथ ही मानव जीवन में, से, के लिए प्रमाण भी है। सम और विषम क्रियाएं मध्यस्थ क्रिया से अनुशासित है ही, साथ ही अनुसरण, अनुकरण व अनुगमन के लिए भी बाध्य हैं। (अध्याय: 1, पेज नंबर:14-15)
  • प्रकृति का मध्यस्थ सत्ता में संपृक्तताधिकार ही क्रिया, विकास एवं जागृति के लिए कारण है। जागृति पूर्वक पाया जाने वाला चरमोत्कर्षाधिकारी ही अनुभव है। यही मध्यस्थ क्रिया की आरूढ़ता है, ऐसी अर्हता-पर्यन्त जागृतिशीलता है। (अध्याय: 1, पेज नंबर:15)
  • स्वयं की जागृतिशीलता में विश्वास व निष्ठा रहते हुए अविकसित के विकास के लिए सहानुभूति की निरंतरता ही शुभेच्छा है। स्वयं समृद्घ एवं समाधान पूर्वक कम विकसित के समाधान व समृद्घि के लिए किया गया सहकार्य ही मंगल कामना है। (अध्याय: 1, पेज नंबर:18)
  • जागृतिशीलता का प्रत्यक्ष रूप ही संचेतनशीलता है, जिसका चरमोत्कर्ष ही अनुभव-क्षमता  है। (अध्याय: 2, पेज नंबर: 25)
(4) सन्दर्भ :मानव अनुभव दर्शन (अध्याय: 1, संस्करण:2011, मुद्रण-2016 , पृष्ठ नंबर: 3)
  • आत्मा ब्रह्म से भिन्न होते हुये भी नेष्ट नहीं है क्योंकि प्रकृति सहज सर्वोच्च (विकासपूर्ण) जागृतिपूर्ण अथवा जागृतिशील अंश ही आत्मा है।  

(5) सन्दर्भ: समाधानात्मक भौतिकवाद (अध्याय: संस्करण:2009, पृष्ठ नंबर: )
  • जागृतिशील शब्द नहीं प्राप्त हुआ। 
(6) सन्दर्भ : व्यवहारात्मक जनवाद (अध्याय: , संस्करण: 2009, मुद्रण- 2017, पृष्ठ नंबर: )
  • जागृतिशील शब्द नहीं प्राप्त हुआ। 
(7) सन्दर्भ : अनुभवात्मक अध्यात्मवाद (अध्याय:2,  संस्करण:2009, पृष्ठ नंबर: 11-12)
  • चाहे आदर्शवादी विधि से हो अथवा भौतिकवादी विधि से हो मानव ने अभी तक जो यात्रा की है वह स्वस्थ जगह नहीं है। कल्पना और भ्रम के आधार पर ही आधारित रहना मुख्य रूप से देखा गया है। अस्तित्व में परमाणु में विकास नित्य प्रभावी है। अनुस्यूत क्रिया है। इसी क्रम में परमाणु में गठनपूर्णता एक अद्भूत संक्रमणिक घटना के रूप में होना अथवा मौलिक परिवर्तन के रूप में होना जीवन नित्य वर्तमान रहना देखा गया है। ऐसे गठनपूर्ण परमाणु जीवन के रूप में चैतन्य इकाई सहज रूप में नित्य विद्यमान रहना देखा गया है। साथ में सह-अस्तित्व नित्य प्रकटन है, वर्तमान है। ऐसे जीवन ही अपने में अक्षय शक्ति, अक्षय बल सम्पन्नता सहित ही कार्यशील रहना पाया गया इसका प्रमाण अस्तित्व और अस्तित्व में अनुभव सहज शाश्वत् ध्रुवों के बीच विधिवत अध्ययन करने से हर व्यक्ति को यह समझ में आयेगा कि ‘जीवन’ एक गठनपूर्ण परमाणु का ही स्वरूप है, चैतन्य इकाई है यह परमाणु-अणुबन्धन, भार-बन्धन मुक्त आशा बन्धन से अपने से कार्यकारिता को प्रकाशित करता है। भ्रम से आशा, विचार और इच्छा बन्धन शरीर को जीवन समझने के आधार पर कार्यकारिता प्रकाशित होता है । इसके उपरान्त जागृतिशीलता की कार्यकारिता और जागृति और जागृतिपूर्ण कार्यकारिता से अस्तित्व में अध्ययनगम्य और अनुभवगम्य है। यही अनुभवात्मक अध्यात्मवाद का तात्पर्य है। 
(8) सन्दर्भ : व्यवहारवादी समाजशास्त्र (अध्याय: संस्करण : 2009, पृष्ठ नंबर:)
  • न्याय-सुरक्षा का मूल्यांकन - मूल्यों का मूल्यांकन क्रम में न्याय-सुरक्षा स्वाभाविक रूप में सार्थक होना पाया जाता है। सम्बन्धों का पहचान के साथ ही मूल्यों का निर्वाह करना स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह जागृत मानव का सार्वभौम प्रमाण है। मूल्यों का निर्वाह क्रम में अर्पण, समर्पण, पोषण, संरक्षण सहज रूप में ही प्रमाणित हो पाता है। जागृत का ही जागृतिशील इकाई को पहचानना-निर्वाह करना एक दायित्व है। इसी दायित्व के आधार पर जिनके साथ सम्बन्धों का निर्वाह होता है। ऊपर कहे चार सूत्रों में से कोई न कोई सूत्र सह-अस्तित्व सहज वर्तमान रहता ही है। इसलिये परस्पर सुरक्षा समीचीन रहता है और प्रमाणित रहता है। सुरक्षा का तात्पर्य यही हुआ अर्पण, समर्पण, पोषण, संरक्षण। यह चारों सूत्र विधि से प्रमाण, समाधान, समृद्घि सम्पन्न परिवार मानव से ही प्रावधानित होना पाया जाता है। अर्पण, समर्पण तब तक भावी रहता है जब तक संतान अपने स्वायत्तता और परिवार मानव प्रतिष्ठा को प्रमाणित नहीं करता है। अर्पण-समर्पण का दूसरा स्थिति कोई दूसरा रोगी हो जाए उसके साथ अर्पण, समर्पण होने का सूत्र क्रियाशील होना पाया जाता है। तीसरा स्थिति यही है किसी देश में प्राकृतिक प्रकोप जैसे-चक्रवात, भूकंप, तूफान, ज्वालामुखी, उल्कापात, शिलापात, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, से पीड़ित लोगों के साथ अर्पण-समर्पण का सूत्र क्रियाशील होना पाया जाता है। ऐसे अर्पण-समर्पण से किसी का पोषण और संरक्षण प्रमाणित होता है यही सुरक्षा का तात्पर्य है। इस प्रकार पोषण शरीर पक्ष को, संरक्षण मानसिकता विचार पक्ष को विश्वस्त कर देता है। यही परस्परता में समाधान, समृद्घि, सम्पन्न मानव परंपरा में होने वाली सुरक्षा कार्य विधि अपने-आप स्पष्ट है। (अध्याय: 10, पेज नंबर:301-302)
  • हर परिवार मानव संबंधों का पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन पूर्वक उभयतृप्ति पाने के कार्यक्रम में निष्णात रहता ही है। ऊपर कहे परिस्थितियाँ स्वाभाविक रूप में मानव सम्बन्धों के साथ वर्तमानित होने वाले संज्ञानशीलता और संवेदनशीलता का ही महिमा है। ऐसे कार्य-कलापों का मूल्यांकन उभय-पक्ष करता है। शैशवकालीन स्थितियों के अलावा अन्य सभी स्थितियों में परस्पर मूल्यांकन सम्पन्न होना सहज है। जैसे प्राकृतिक प्रकोप के लिये अर्पण-समर्पण, किया गया पूरकता कार्य विधि का मूल्यांकन उभय पक्ष करना स्वाभाविक है और इसमें उभय तृप्ति का होना भी स्वाभाविक है। इसी प्रकार रोगी और संतानों के साथ किया गया अर्पण समर्पण से उन-उन का सुरक्षा स्वाभाविक रूप से सम्पन्न हो पाता है। जिससे उभयतृप्ति होना देखा गया है। यही न्याय है। संतान जब कौमार्य और युवावस्था में होते हैं अभिभावकों से निर्वहन किया गया क्रियाकलाप अर्पण - समर्पण का मूल्यांकन स्वाभाविक रूप में जीवन-जागृतिपूर्वक होता ही है। मानवीय शिक्षा पूर्वक जीवन जागृति समीचीन रहता ही है। इसी प्रकार सभी सम्बन्धों में किया गया पहचान मूल्यों का निर्वहन और उभयतृप्ति जागृत परंपरा में एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में उभयतृप्ति नित्यभावी रहता ही है। जागृत परंपरा में केवल किशोरावस्था तक मानव संतान जागृतिशील रहना देखा गया है। युवा और प्रौढ़ अवस्था में हर मानव, परिवार मानव के रूप में वैभवित रहता ही है। परिवार मानव का स्वरूप, कार्य और परिभाषा सदा-सदा ही न्याय और नियम सम्बन्ध विधि से ही सम्पन्न हुआ करता है। इसी के प्रमाण में हर परिवार मानव समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व का धारक-वाहक होना जागृति सहज तथ्य है। जागृति मानव का वर होने के कारण जागृतिपूर्वक ही हर मानव मानवत्व सहित व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होना समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करता हुआ देखने को मिलता है। यही न्याय का आद्यान्त स्वरूप है। शिशुकाल में केवल मूल्यांकन व्यक्त नहीं हो पाता है, तृप्ति अपने-आप प्रमाणित होती है। यह पोषण-संरक्षण का फलन होना पाया जाता है। मूल्यांकन पूर्वक तृप्त रहने के लिये उभय जागृत रहना आवश्यक रहता ही है। जागृत परंपरा में हर संतान जागृत होता ही है। जागृति के अनन्तर मूल्यांकन भावी हो जाता है। मूल्यांकन में उभयतृप्ति ही संतुलन बिन्दु है। यही न्याय का प्रकाशन है। ऐसा मूल्यांकन हर न्याय-सुरक्षा समिति में सम्पन्न होना स्वाभाविक है। (अध्याय: 10, पेज नंबर:302-303)
(9) सन्दर्भ : आवर्तनशील अर्थशास्त्र (अध्याय:, संस्करण:2009, पृष्ठ नंबर:)
  • जागृतिशील शब्द नहीं प्राप्त हुआ। 
(10) सन्दर्भ : मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान (अध्याय: संस्करण:2008, पृष्ठ नंबर:)
  • जागृतिशील शब्द नहीं प्राप्त हुआ। 
(11) सन्दर्भ: मानवीय संविधान सूत्र व्याख्या (अध्याय: 12, संस्करण:प्रथम, मुद्रण-2007, पृष्ठ नंबर: 259)
  • व्यापक वस्तु पारदर्शी, पारगामी, साम्य ऊर्जा सहज सत्ता, स्थिति पूर्ण सत्ता में संपृक्त प्रकृति स्थितिशील है यही भौतिक रासायनिक और जीवन इकाइयों में बल संपन्न क्रियाशील, परिणामशील, विकास क्रमशील, विकास, जागृतिशील, जागृति व जागृति पूर्ण अवस्था व पदों में नित्य वर्तमान होना सहज है। 
(12) सन्दर्भ: जीवन विद्या – एक परिचय (अध्याय:, संस्करण 2010: मुद्रण-2017, पृष्ठ नंबर:)
  • जागृतिशील शब्द नहीं प्राप्त हुआ। 
(13) सन्दर्भ:  विकल्प (अध्याय:, संस्करण:2011,मुद्रण- 2016, पृष्ठ नंबर:)
  • जागृतिशील शब्द नहीं प्राप्त हुआ। 
(14) सन्दर्भ:  जीवन विद्या- अध्ययन बिन्दु (अध्याय:, संस्करण:2011, मुद्रण-2016, पृष्ठ नंबर:)
  • जागृतिशील शब्द नहीं प्राप्त हुआ। 
(15) सन्दर्भ:  मानवीय आचरण सूत्र (मानवीय आचरण सूत्र (अध्याय:, संस्करण:  , पृष्ठ नंबर:)
  • व्यापक वस्तु पारदर्शी, पारगामी, सहज सत्ता, व्यापक है। स्थिति पूर्ण सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति स्थितिशील है यही भौतिक रासायनिक और जीवन इकाइयाँ बल सम्पन्न क्रियाशील, परिणामशील, विकास क्रमशील, विकास, जागृतिशील, जागृति व जागृति पूर्ण अवस्था व पदों में नित्य वर्तमान है । (अध्याय: , पेज नंबर:)
(16) सन्दर्भ:  संवाद भाग १ (अध्याय:, संस्करण: प्रथम, मुद्रण: 2011, पृष्ठ नंबर:)
  • जागृतिशील शब्द नहीं प्राप्त हुआ। 
(17) सन्दर्भ: संवाद भाग २ (अध्याय:, संस्करण:2013,पृष्ठ नंबर)
  • जागृतिशील शब्द नहीं प्राप्त हुआ। 

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

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