Tuesday 7 November 2017

मीमांसा

परिभाषा: सूत्र व्याख्या पूर्वक किया गया सत्य सहज अभिव्यक्ति संप्रेषणा। 
(परिभाषा संहिता, संस्करण : 2012 मुद्रण: 14 जनवरी 2016, पृष्ठ नंबर: 153)

(1) सन्दर्भ : मानव व्यवहार दर्शन (अध्याय: संस्करण:2011, मुद्रण- 2015, पृष्ठ नंबर:)
  • मीमांसा शब्द प्राप्त नहीं हुआ। 
(2) सन्दर्भ : मानव कर्म दर्शन (अध्याय: 3-16  संस्करण:2010, मुद्रण:2017, पृष्ठ नंबर: 155)
  • इसमें रचना में विविधता के लिए प्राण सूत्रों में प्रवृत्ति के बारे में जिज्ञासा बनती है- क्यों होता है, कैसा होता है ? इस मुद्दे पर सोचने की आवश्यकता मानव में आता ही है। मुख्य मुद्दा रंग और रुप ही है, जिसमें विविधता हो पाता है। अंग अवयवों के कोई खास विविधता नहीं हो पाता। इस तथ्य को परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक समझ चुके हैं। कई प्रकार के रस द्रव्यों को आज का मानव सटीकता से पहचान चुका है। इसका अनुपातिक  भिन्न-भिन्न प्रयुक्ति के आधार पर शरीर का रंग होना पाया जाता है। कुल मिला कर रंग, शरीर के ऊपरी हिस्से में अर्ध सूखा हुआ, सूखा हुआ प्राणकोषा की स्थिति में रंग का पता लगता है। चमड़े के अंदर जो रक्त होता है, सबके शरीर में लाल ही होता है। ऊपरी हिस्से से रंग का पता लगता है। प्राणकोषायें शुष्क होने के उपरान्त जो प्रदर्शन करते हैं, इसी को हम रंग के रूप में जान पाते हैं। इसीलिए रंग के आधार पर मनुष्य को पहचानना, मानव को पहचानने के अर्थ में सटीक नहीं हुआ। इसीलिए परस्पर मानव को सटीक पहचानने का प्रयास जारी रहा है। यह भी सोच सकते हैं, बहुत पहले से भी परस्पर पहचानने के लिये रंग प्रधान रहा, और कोई आधार खोजते रहे। इसी के साथ नस्ल भी बहुत प्रधान रह गए। काफी समय तक मानव रंग और नस्ल प्रधान विधि से अपना पहचान बनाये रखने के लिए कोशिश किया। अभी भी इसका गवाही जगह-जगह मिलता है। यद्यपि मानसिक रूप में इस जगह में से अर्थात् वंशानुषंगी पहचान विधि से रंग, नस्ल विचार से विचलित हो चुके हैं। 
इस क्रम में मानव कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता को ज्ञान विधा में सार्थक बनाने दौड़ा। तब संसार की विविधता का अध्ययन न होने की कमजोरी के कारण, ज्ञान मीमांसा चाहते हुए, ज्ञानी होना चाहते हुए, ज्ञानी होने के लिए प्रस्तावित सभी तप, साधन, योग, अभ्यास करते रहे, किन्तु प्रमाणित होने की स्थली पर रिक्त रह गए। इसमें सांत्वना पाने के लिए उपाय रूप में शास्त्रों को आधार मान लिया। इस ढंग से धर्म ग्रन्थ, किताब प्रमाण माना गया। आदमी प्रमाण को प्रस्तुत करने वाला है, इसको स्वीकारा नहीं। ध्यान देने की बात यही है कि ज्ञान, विज्ञान, विवेक सम्बन्धी प्रमाणों को कोई प्रस्तुत करेगा तो वह मानव ही होगा। इस तथ्य से ज्ञानाभ्यासी संसार को अथवा आगे पीढ़ी को सार्थक प्रमाण दे नहीं पाया।
(3)  सन्दर्भ :मानव अभ्यास दर्शन (अध्याय: संस्करण:2010 , पृष्ठ नंबर:)
  • विवेचनापूर्ण आचरण ही विचार है। विवेचनायें ‘‘तात्रय’’ की सीमा में मानव के संदर्भ में होती हैं। इसी श्रृंखला में जीवन का अमरत्व, शरीर का नश्वरत्व एवं व्यवहार का नियम संबंधी ज्ञान एवं तत्व-मीमांसा है। फलत: व्यवहारिक ‘‘नियम-त्रय’’ यथा प्राकृतिक, सामाजिक व बौद्धिक रूप में सिद्ध हुआ है। (अध्याय:4, पृष्ठ नंबर: 55)
  • समाधानात्मक भौतिकवादी कार्यक्रम की चरितार्थता आवश्यकता से अधिक उत्पादन के रूप में भी प्रस्तावित है, जिसके लिये मानव में शिक्षा एवं शैक्षणिक क्षमता, निपुणता एवं कुशलता के रूप में है। यही उत्पादन क्षमता है। यही क्षमता उपयोगिता एवं कला मूल्य को प्राकृतिक ऐश्वर्य पर प्रतिस्थापित करती है। व्यवहारात्मक जनवादीय जीवन का मूल तत्व जीवन मूल्य, मानव मूल्य, स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य है। यह शिष्टता मानवीयता पूर्वक संयत सिद्ध हुई है। इसी शिष्ट मूल्य में उत्पादन मूल्य समर्पित है क्योंकि शिष्ट मूल्य के अभाव में उत्पादित वस्त मूल्य का संयमन एवं सदुपयोग सिद्ध नहीं होता। अस्तु, उत्पादित वस्तु मूल्य शिष्ट मूल्य में; शिष्ट मूल्य स्थापित मूल्य में; स्थापित मूल्य मानव मूल्य में; मानव मूल्य जीवन मूल्य में संयोजित विधि से प्रमाणित होता है। शिष्ट मूल्य के संयोग में ही उत्पादित वस्तु मूल्य का सदुपयोग सिद्ध हुआ है। सामाजिक मूल्य के संयोग में ही उत्पादित वस्तु मूल्य का सदुपयोग सिद्ध हुआ है। सामाजिक मूल्य अर्थात् प्रत्येक संबंध में स्थापित मूल्य में शिष्ट मूल्य वर्तमान होना पाया जाता है यही जागृति है। सामाजिक मूल्य ‘‘में, से, के लिये’’ ही शिष्ट मूल्य की गरिमा-महिमा गण्य है। सामाजिक मूल्य के अभाव में शिष्ट मूल्य की व्यवहारिक मीमांसा सिद्ध नहीं हुई है। अपितु स्थापित मूल्यों के अनुगमनशीलता में ही शिष्ट मूल्यों की मूल्यवत्ता एवं महत्ता स्पष्ट हुई है। अस्तु, स्थापित मूल्य में शिष्ट मूल्य का समर्पित होना अवश्यंभावी है। स्थापित मूल्य का निर्वाह मानव मानवीयता पूर्वक करता है। यही मानव का व्यक्तित्व एवं प्रतिभा का संतुलन है। यही उसका आचरण है। इसके सहकारी परिवार, प्रोत्साहन योग्य समाज, संरक्षण-सवंर्धन योग्य व्यवस्था अर्थात् विधि व्यवस्था शिक्षा, संतुलन एवं अनुकूल परिस्थति निर्माण करने योग्य अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था ही  ‘‘वादत्रय’’ का चरितार्थ रूप है।  (अध्याय:4, पृष्ठ नंबर: 56-57)
(4) सन्दर्भ :मानव अनुभव दर्शन (अध्याय:  संस्करण:2011, मुद्रण-2016 , पृष्ठ नंबर:)
  • मीमांसा शब्द प्राप्त नहीं हुआ। 
(5) सन्दर्भ: समाधानात्मक भौतिकवाद (अध्याय: 9-1 संस्करण:2009, पृष्ठ नंबर: 201-203)
  • अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित व्यवस्था सहज सूत्रों की व्याख्याओं की रोशनी में बहुत अच्छे से आहार विधियों को पहचान सकते हैं। ये दो विधियाँ हैं- जैसे शाकाहार, मांसाहार, अति पौष्टिक आहार, अति स्वादिष्ट आहार। इसमें और कुछ चिंतन जुड़ा हैं कि सुपाच्य भी हों। इस प्रकार से आहार के बारे में सोचा गया है। इन सबके प्रयोजन के बारे में जब निरीक्षण, परीक्षण किया जाता है, तब यह पता लगता हैं कि अधिक से अधिक मजबूत शरीर हो। उसके उपयोग के बारे में निरीक्षण किया जाता हैं तब यह और पता लगता है कि वह ज्यादा से ज्यादा संघर्ष कर सकें। संघर्षों में टिक सकें, संघर्षों में विजय प्राप्त कर सकें। चौथी अपेक्षा, पूर्व पीढ़ी से भी कुछ अधिक हो सकती हैं और वह यह कि स्वयं से स्वयं में सर्वाधिक भोग कर सकें। आज की स्थिति में भोग का स्वरूप, युवा और प्रौढ पीढ़ी में जैसा भी दिखता है, वह तीन स्थली में केन्द्रित हो चुका है। शयनागार, स्नानागार और भोजनागार। इसके प्राप्त होने का भरोसा राष्ट्रीयकृत बैंकों में अथवा विदेशी बैंकों में मोटी राशि का खाता है। इसीलिए आज तक के मानव छल, कपट, दंभ, पाखंड, द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्घ इन विधियों को अपनाने के लिए मजबूर है। इसी से संग्रह-सुविधा संभव होना माना जाता है। इसमें बिरले व्यक्ति ही अपने व्यक्तित्व वश इससे छूटा रहा हो। अन्यथा छोटे-मोटे संग्रहों के आधार पर इन्हीं नाज नखरों में मगन रहना देखने को मिलता हैं। द्रोह, विद्रोह, छल, कपट, दम्भ, पांखड से होने वाली सभी प्रकार की पीड़ाओं को, कुण्ठाओं को, प्रताडऩाओं को भुलावा देने के लिए दो ही उपाय आदमी को सूझा हुआ हैं, वह है यौन-यौवन-व्यसन और सुरापान।  ये सर्वोपरि माने गये। यह इस प्रकार का घन चक्कर है कि कुछ राहत पाने के लिए कुल मिलाकर यौन व्यसन और सुरापान ही मिल पाया। इसे बनाये रखने के लिए जो अमीरी-गरीबी की दूरी है, यही सर्वाधिक दिखाई पड़ता है। उक्त दोनों व्यसनों के लिए समुचित आहार व्यवस्था सहित जीने के लिए प्रत्येक स्तर में (यथा कम से कम खर्च और ज्यादा से ज्यादा खर्च की) दूरी बनी हुई हैं। उसे मैं अपनी भाषा में कहूँ तब एक और एक लाख की दूरी है। जिद्द तो यही है और हर स्तर में यही मानसिकता काम करती हैं कि ज्यादा से ज्यादा, उससे ज्यादा और उससे ज्यादा की उम्मीदें बंधी हुई हैं। इन सबको देखने के उपरान्त इन सबकी उपज क्या हुई? यह पूछने पर मानव समुदाय से यह उत्तर मिला कि ज्यादा से ज्यादा समस्या, ज्यादा से ज्यादा अव्यवस्था। ऐसे हर व्यक्ति से मानव पंरपरा के लिए यह अव्यवस्था विरासत में मिली। और अभी सर्वाधिक लोग इसी खाते में हैं। इसी को यथा स्थिति कहा गया। जबकि इस प्रवाह में बहने वाला हर व्यक्ति परिवर्तन चाह रहा है। उक्त विश्लेषण से इस प्रमाण को आज हर दिन देखा जा रहा है, सुना जा रहा हैं कि आहार, विहार, व्यवसाय, उपार्जन, संग्रह के लिए सभी लोग अवांछनीय कर्म करते हैं। यह सब उपक्रम, प्रक्रिया, प्रवृति, समुदाय चेतना के अनुसार प्रदत्त रहना, प्रमाणित हो चुकी। इसमें व्यवस्था कहीं देखने-सुनने को नहीं मिली। अस्तु, भोगवादी आदर्श जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है तथा विरक्तिवादी-भक्तिवादी आदर्श, इन दोनों उपक्रमों से एक अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था नहीं मिली। भौतिकवादी तर्क संगत सभी तत्व, मीमांसा, ज्ञान मीमांसा मानवीयता से दूर रह गया हैं। इतना ही नहीं निरर्थक, अपराधिक, हिसंक, बेहोशी और भ्रम को बढ़ाने वाले सिद्ध हो गये। यह तो पक्का पता लग चुका है कि भ्रम और बेहोशी, व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का सूत्र और व्याख्या अथवा इसके सहायक सिद्ध नहीं होते। व्यवस्था में भागीदारी निरंतर जागृति सहज अभिव्यक्ति हैं जागृत रहना है। जागृति का प्रमाण प्रस्तुत करना ही है। उस स्थिति में हर मानव का यही कर्तव्य होता है कि बेहोशी अथवा बेहोश होने के लिए जो उपक्रम हैं उससे मुक्ति पाया जाये। जैसे- स्वस्थ रहना है, उस स्थिति में सारे अस्वस्थता के उपक्रमों को उपचार करना बनता है। उसी भाँति बेहोशी, नशाखोरी, यौवन, यौन, संग्रह, उन्माद ये सब अव्यवस्था के कारक हैं। यह समझ में आने की स्थिति में स्वाभाविक रूप में अव्यवस्था वादी हर क्रियाकलाप प्रवृतियाँ अपने आप में निरर्थक, अपराधिक है। इसीलिए समाधानात्मक भौतिकवाद में जीवन ज्ञान सहज प्रकाश में, अस्तित्व दर्शन का स्वरूप मानवीयतापूर्ण आचरण की मौलिकता को अध्ययनगम्य कराना-करना प्रमाणित हैं। इसकी रोशनी में सहज ही, सभी अव्यवस्थाएँ अनावश्यक सिद्ध हो जाएँगी और व्यवस्था प्रमाणित होना सहज है।
(6) सन्दर्भ : व्यवहारात्मक जनवाद (अध्याय: 8, संस्करण: 2009, मुद्रण- 2017, पृष्ठ नंबर: 131)
  • जनचर्चा ही शिक्षा-संस्कार का शिलान्यास/ वातावरण का सूत्र:  मानव अपनी परस्परता में संवाद विधि से तथ्यो को जानने, मानने, पहचानने के आशय का प्रयेाग करता है। सर्वमानव में इसकी आवश्यकता रहती ही है। तथ्य अपने में सहअस्तित्व सहज ही होता है। सहअस्तित्व से मुक्त तथ्य को प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए सहअस्तित्व में पूर्ण तथ्य विद्यमान है। इस विधि से हम मानव तथ्यान्वेषी होना प्रमाणित होते हैं। तथ्य पूर्ण स्वरूप मानव में सहअस्तित्व पूर्ण नजरिया और जागृति का प्रमाण ही है। जागृति का प्रमाण सर्वमानव में स्वीकृत है। सहअस्तित्व पूर्ण नजरियें में ध्रुवीकरण होना शेष रहा इसे मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद ने प्रस्तावित कर दिया है। अध्ययनपूर्वक सुस्पष्ट होने की सम्पूर्ण ज्ञान मीमांसा, कर्म मीमांसा और व्यवस्था मीमांसा को स्पष्ट कर दिया है। सुदूर विगत से ज्ञान मीमांसा, कर्म मीमांसा का पक्षधर रहा है। ये दोनो प्रतिपादन रहस्य से मुक्त नहीं हो पाए हैं। विगत प्रयास के अनुसार वर्तमान में मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्वाद के अनुसार स्पष्ट हो जाता है इसे हर मानव जाँच परख सकता है कर्माभ्यास पूर्वक प्रमाणित कर सकता है।
(7) सन्दर्भ : अनुभवात्मक अध्यात्मवाद (अध्याय: संस्करण:2009, पृष्ठ नंबर:)
  • मीमांसा शब्द प्राप्त नहीं हुआ। 
(8) सन्दर्भ : व्यवहारवादी समाजशास्त्र (अध्याय: संस्करण : 2009, पृष्ठ नंबर:)
  • मीमांसा शब्द प्राप्त नहीं हुआ। 
(9) सन्दर्भ : आवर्तनशील अर्थशास्त्र (अध्याय:2, संस्करण:2009, पृष्ठ नंबर:24)
  • अस्तित्व में मानव भी अविभाज्य इकाई है। मानव सहज रूप में संचेतनशील होना पाया जाता है। संचेतना का मूल स्रोत के रूप में शरीर का रचना-कार्य जीवन का संयुक्त प्रणाली, लक्ष्य और अध्ययन, पहले बीती हुई दोनों प्रकार के विश्व दृष्टिकोण, तर्क, मीमांसा और प्रतिपादनों से अध्यनगम्य नहीं हो पाया है। उन दोनों विश्व दृष्टिकोणों को ईश्वर केन्द्रित और वस्तु केन्द्रित माना गया है। इन दोनों के विचार और कार्य यात्रा के फलन रूप में बीसवीं शताब्दी की अंतिम दशक में भी देख पा रहे हैं जो शिक्षा संबंधी समीक्षा (पूर्व में किया गया है) सहित लाभोन्माद, कामोन्माद, और  भोगोन्माद विधियों से ग्रसित, त्रस्त मानस रहस्यमी आस्थाओं के लिए बाध्य होता हुआ असमानता, विषमताओं से प्रताड़ित होता हुआ अधिक और कम से, श्रेष्ठ और नेष्ठ के, ज्ञानी और अज्ञानी के, विद्वान और मूर्ख के सविषमताओं से कुण्ठित, होना पाया जाता है क्योंकि विद्वान-ज्ञानी, सक्षम-समर्थ, अमीर और बली ये सभी अपने में सार्वभौम शुभ को घटित करने में असमर्थ रहना पाया गया। इसलिए इस विधि से ये सब भी कुण्ठित हैं एवं इसके विपरीत बिन्दु में दिखने वाले मानव भी कुण्ठित है ही। इसलिए मानव का अध्ययन और स्वभाव गति सम्पन्न मानव का स्वरूप मानसिकता, विचार, योजना, कार्य प्रणालियों को अध्ययन करना और कराना एक आवश्यकता ही रहा है। 
(10) सन्दर्भ : मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान (अध्याय: संस्करण:2008, पृष्ठ नंबर:)
  • मीमांसा शब्द प्राप्त नहीं हुआ। 
(11) सन्दर्भ: मानवीय संविधान सूत्र व्याख्या (अध्याय: संस्करण:प्रथम, मुद्रण-2007, पृष्ठ नंबर:)
  • मीमांसा शब्द प्राप्त नहीं हुआ। 
(12) सन्दर्भ: जीवन विद्या – एक परिचय (अध्याय:, संस्करण 2010: मुद्रण-2017, पृष्ठ नंबर:)
  • मीमांसा शब्द प्राप्त नहीं हुआ। 
(13) सन्दर्भ:  विकल्प (अध्याय:, संस्करण:2011,मुद्रण- 2016, पृष्ठ नंबर:)
  • मीमांसा शब्द प्राप्त नहीं हुआ। 
(14) सन्दर्भ:  जीवन विद्या- अध्ययन बिन्दु (अध्याय:, संस्करण:2011, मुद्रण-2016, पृष्ठ नंबर:)
  • मीमांसा शब्द प्राप्त नहीं हुआ। 
(15) सन्दर्भ:  मानवीय आचरण सूत्र (मानवीय आचरण सूत्र (अध्याय:, संस्करण:  , पृष्ठ नंबर:)
  • मीमांसा शब्द प्राप्त नहीं हुआ। 
(16) सन्दर्भ:  संवाद भाग १ (अध्याय:, संस्करण: प्रथम, मुद्रण: 2011, पृष्ठ नंबर:)
  • मीमांसा शब्द प्राप्त नहीं हुआ। 
(17) सन्दर्भ: संवाद भाग २ (अध्याय:, संस्करण:2013,पृष्ठ नंबर-)
  • मीमांसा शब्द प्राप्त नहीं हुआ। 


स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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